‘मानचित्र’ शब्द मात्र से ही बच्चों को भूगोल की कक्षा की याद आ जाती है , किन्तु बच्चों ने शायद ही यह कभी सोचा होगा कि शुरुआत में ये मानचित्र बने कैसे? आज हम यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि मानचित्र का इतिहास क्या है और भारत का मानचित्र कैसे बना ? ईसा के लगभग तीन हजार वर्ष पहले पृथ्वी के एक बड़े भू—भाग को ‘भारतवर्ष’ का नाम दिया गया। अनेक शताब्दियों के बाद सातवीं सदी में भारत के महान गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने गणित को शून्य की इकाई दी। मानचित्र की वैज्ञानिक विधि का आधार भी गणित ही है। मानचित्रण की कला, क्षेत्रफल मापना आदि हमारे देश में पौराणिक काल से ही चले आ रहे हैं। महाभारत, रामायण के अतिरिक्त पाणिनी, पतंजलि, कौटिल्य एवं कालिदास के काव्य भौगोलिक वर्णनों से ओत—प्रोत है। मानचित्र का विज्ञान पृथ्वी के आकार ज्ञान के बिना असंभव है, इस बात का आभास हमारे पूर्वजों को पहले से ही था। पृथ्वी के आकार को जानने के लिए अक्षांश एवं देशान्तर के महत्व को भी हमारे पूर्वज समझ चुके थे। दार्शनिक इरंटोस्थेनीज (ई.पू.२७८—१९८) ने पृथ्वी की परिधि का आकलन कर बनाए गए विश्व के मानचित्र को प्रस्तुत कर मानचित्र की प्रथम वैज्ञानिक आधारशिला रखी। महान गणितज्ञ खगोलविद् एवं भूगोलविद् क्लॉडियस टोल्मी ने दूसरी शताब्दी में भारत के मानचित्र को बनाया। पांचवी शताब्दी में भारत के महान गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री आर्यभट्ट ने ‘सूर्य सिद्धांत’ लिखा। इसमें पृथ्वी की परिधि २५०८० मील बताई गई। इसके साथ ही अन्य खगोलशास्त्री वराहमिहिर एवं भास्कराचार्य ने पृथ्वी के आकार के अतिरिक्त गुरूत्वाकर्षण को भी खोज निकाला। समय एवं विकास के साथ— साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों की खोज में मनुष्यों की जिज्ञासा बढ़ती गई।
पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम चरण में कोलंबस ने १४९२ में प्रशान्त महासागर पार कर लिया, वास्कोडिगामा ने १४९७ में अप्रतिका तट छान लिया तथा मेगेलन ने १५१९ से १५२२ के मध्य सम्पूर्ण विश्व का चक्कर लगा लिया । अनुभवजन्य यात्राओं से एकत्रित भौगोलिक ज्ञान समयोपरांत वैज्ञानिक मानचित्र का आधार बना। पन्द्रहवीं शताब्दी में छपाई कला का आविष्कार होने के बाद मानचित्र की प्रतियों को बनाना संभव हो गया। अकबर के दरबार में आये पादरी फादर मौन्सेरेट ने खगोलशास्त्रियों से प्राप्त विवरणों के आधार पर बादशाह के साम्राज्य का मानचित्र तैयार किया। अकबर के राजस्व मंत्री टोडरमल एवं बुद्धिमान प्रशासन शेरसाह सूरी के बनाये मानचित्र नियमित भूमि— सर्वेक्षण पर आधारित थे। इन नक्शों की विश्वसनीयता ऐसी थी कि इनका प्रयोग अठारहवीं सदी के मध्य तक किया गया। अकबर के राज्यकाल में ही सोलहवीं शताब्दी में जमीन की माप मूंज की रस्सियों के स्थान पर लोहे की कड़ियों से जुड़ी बांस की ‘जरीबों’ से की जाने लगी। फ्रांसीसी भूगोलविद जॉ—वैपाडिस्ट ने १७५२ ई. में भारत का मानचित्र बनाकर देश के भौगोलिक ज्ञान को एक वैज्ञानिक दिशा दी। सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक त्रिकोणमितीय तकनीक अर्थात् खगोलविद्या की सहायता से स्थान विशेष की स्थिति जानने का ज्ञान हो चुका था। जयपुर के महाराजा जयसिंह (१६९३—१७४३) ने जयपुर, दिल्ली, मथुरा, उज्जैन एवं वाराणसी में खगोल वेधशालाएं (जन्तर—मन्तर) बना कर भारत में इस कार्य में अग्रणी योगदान दिया। अठारहवीं शताब्दी के मध्य में अक्षांश एवं देशान्तर मापने के लिए भारत में अनेक वेधशालाएं बनाई गई। इसमें सेक्सटेंट, क्रोनोमीटर, एवं टेलिस्कोप आदि यंत्रों का प्रयोग किया जाने लगा।
इसके बाद एक जनवरी १७६७ को ईस्ट इंडिया कम्पनी के मेजर जेम्स रेनल को बंगाल का सर्वेयर जनरल नियुक्त किया गया।रेनल ने सेवानिवृत्ति के बाद १७८३ ई. में ‘मैप आफ हिन्दुस्तान’ प्रकाशित किया जिसमें समय—समय पर सुधार करते हुए इसे वैज्ञानिक बनाया गया। इस प्रकार हमारे भारत का मानचित्र तैयार हो गया जो पूर्णरूप से वैज्ञानिक होने के साथ ही विश्वसनीय भी है। आज जिस मानचित्र का उपयोग हम कर रहे हैं उसका पूर्ण श्रेय ‘जेम्स रेनल’ को ही जाता है। यह बात अलग है कि समयानुसार उसमें सुधार किया जाता रहा है।