परमभावदर्शियों को शुद्ध नय का कथन करने वाला शुद्धनय जानने योग्य है किन्तु जो अपरमभाव में स्थित हैं उनको व्यवहारनय के द्वारा उपदेश करना योग्य है।
जो पुरुष अंतिम पाक से उतरे हुए शुद्ध सुवर्ण के समान शुद्ध परमभाव का अनुभव करते हैं, वे प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पच्यमान अशुद्ध सुवर्ण के समान अपरमभाव के अनुभव से शून्य हैं। अत: उनके लिए शुद्ध द्रव्य को ही कहने वाला होने से जिसने अस्खलित एक स्वभावरूप एक भाव प्रकट किया है ऐसा शुद्धनय ही उपरितन एक शुद्ध सुवर्ण के समान जाना हुआ प्रयोजनवान् है और जो पुरुष प्रथम, द्वितीय आदि अनेक पाकों की परम्परा से पकते हुये उस अशुद्ध सुवर्ण के समान ‘अपरमभाव’ का अनुभव करते हैं वे अंतिम पाक से उत्तीर्ण शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ के अनुभवन से शून्य हैं। अत: उनके लिए अशुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला होने से भिन्न-भिन्न एक भाव स्वरूप अनेक भाव दिखलाता हुआ यह व्यवहारनय विचित्र-अनेक वर्णमाला के समान जाना हुआ उस काल में प्रयोजनवान है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इस प्रकार से ही व्यवस्थित है।
कहा भी है-‘‘यदि तुम जिनमत में प्रवर्तन करना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि व्यवहार के बिना तो तीर्थ का (मोक्षमार्ग का) नाश हो जायेगा और दूसरे निश्चय के बिना तत्त्व (वस्तु) का नाश हो जायेगा१।’’
अब यहाँ समझना यह है कि ‘परमभाव’ तथा ‘अपरमभाव’ क्या है ? अंतिम पाक को प्राप्त कर चुके शुद्ध सुवर्ण के सदृश ‘परमभाव’ को लिया है और एक पाक, दो पाक आदि से शुद्ध होते हुए पंद्रह पाक तक उतरे हुए सुवर्ण के सदृश ‘अपरमभाव’ को कहा है। यह श्री अमृतचंद्रसूरि का मत है। इस दृष्टि से तो शुद्ध ‘परमभाव’ बारहवें गुणस्थान में ही घटित होगा उसके नीचे अशुद्ध सुवर्ण के समान आत्मा ‘अपरमभाव’ में ही स्थित है अथवा निर्विकल्पध्यान में आठवें, नवमें, दशवें गुणस्थानों में बुद्धिपूर्वक राग का अभाव होने से वीतरागता मानी गई है, उस दृष्टि से वहाँ पर भी ‘परमभाव’ कहा जा सकता है उसके पहले सविकल्प अवस्था वाले छठे गुणस्थानवर्ती मुनि तो ‘अपरमभाव’ में ही हैंं। चूँकि-
‘व्यवहारनयो…..तदात्वे प्रयोजनवान, तीर्थतीर्थफलयोरित्थमेव व्यवस्थितत्वात्।’ यह वाक्य ध्यान देने योग्य है।
व्यवहार नय……उस काल में प्रयोजनवान है, क्योंकि तीर्थ और तीर्थफल इसी प्रकार से व्यवस्थित हैं।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय से ही तीर्थ और तीर्थ का फल होता है। तब यह भी स्पष्ट हो जाता है कि व्यवहारनय का अवलंबन बुद्धिपूर्वक क्रिया होने तक चलता ही है। ‘‘निर्ग्रंथ प्रवचन को अथवा निर्ग्रंथचर्या को निर्वाणमार्ग श्री गौतमस्वामी ने भी कहा है।’’ छठे गुणस्थान की सरागचर्या भी निर्ग्रंथचर्या है चूँकि उसके बिना भी आगे के गुणस्थान नहीं होते हैं अत: चतुर्थ गुणस्थान से लेकर छठे, सातवें तक व्यवहारनय प्रयोजनवान है वहाँ तक ‘अपरमभाव’ है ही है।
व्यवहार अथवा निश्चय इन दोनों में किसी एक नय का एकांत तो मिथ्यात्व ही है अत: मिथ्यात्व में व्यवहारनय का अवलंबन नहीं है प्रत्युत व्यवहाराभास का अवलंबन है।
इस ‘परमभाव’ और ‘अपरमभाव’ को श्री जयसेनस्वामी ने भी इसी तरह से कहा है। यथा-
‘‘यहाँ पर केवल भूतार्थ-निश्चयनय निर्विकल्पसमाधि में रत हुये मुनियों को प्रयोजनवान हो, मात्र इतनी ही बात नहीं है किन्तु सोलह ताव के शुद्ध सुवर्ण लाभ के अभाव में नीचे के ताव सहित सुवर्ण लाभ के समान निर्विकल्प समाधि से रहित किन्हीं प्राथमिक शिष्यों को कदाचित् सविकल्प अवस्था में मिथ्यात्व, विषय, कषाय को दूर करने के लिए व्यवहारनय भी प्रयोजनवान् है, ऐसा कहते हैं-
‘‘शुद्धात्मभावदर्शियों को शुद्ध द्रव्य का कथन करने वाला शुद्धनय भावित करना चाहिए। क्यों ? क्योंकि यह सोलह ताव के सुवर्णलाभ के समान अभेद रत्नत्रय स्वरूप समाधि के काल में प्रयोजन सहित है, नि:प्रयोजन नहीं है। व्यवहार से, विकल्प से, भेद से अथवा पर्याय से कहने वाला नय व्यवहारनय है। वह पुन: नीचे के ताव वाले सुवर्णलाभ के समान प्रयोजनवान् होता है। किनके लिये ? जो पुन: ‘अपरम’ अर्थात् अशुद्ध में अर्थात् असंयत सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से अथवा श्रावक की अपेक्षा से सराग सम्यग्दृष्टि लक्षण वाले शुभोपयोग में अथवा प्रमत्त और अप्रमत्त मुनि की अपेक्षा से भेदरत्नत्रय लक्षण जीव पदार्थ में स्थित हैं। उनके लिए यह व्यवहारनय प्रयोजनवान् है।’’
इससे यह समझना कि गाथा ११ में जो ‘भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।’ कहा है सो वीतराग सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा से ही कहा है।
‘‘जो राग-द्वेष आदिरूप अध्यवसान आदि भाव हैं वह जीव है’’ ऐसा जिनेन्द्रदेव ने जो कहा है वह व्यवहारनय का कथन है।’’
इसी की टीका में श्री अमृतचंंद्रसूरि कहते हैं-
ये सब अध्यवसानादि भाव ‘जीव’ हैं ऐसा जो भगवान् सर्वज्ञ देव ने कहा है, वह अभूतार्थ रूप जो व्यवहारनय है उसका मत है क्योंकि व्यवहारनय व्यवहारी जीवों को परमार्थ का कहने वाला है। जैसे कि म्लेच्छभाषा म्लेच्छों को वस्तु का स्वरूप बतलाने वाली है। उसी तरह यह व्यवहारनय परमार्थ का प्रतिपादक होने से अपरमार्थभूत होने पर भी तीर्थ प्रवृत्ति का निमित्त है अत: इसका दिखलाना न्याय संगत ही है। चूँकि उस व्यवहार के बिना परमार्थ से तो जीव शरीर से भिन्न है पुन: जैसे भस्म को नि:शंक होकर उपमर्दित कर देते हैं वैसे ही त्रस-स्थावर जीवों का भी नि:शंक होकर घात कर देने से हिंसा नहीं होगी तो फिर बंध का भी अभाव हो जायेगा। ऐसी स्थिति में ‘रागी, द्वेषी, मोही जीव कर्म से बंधता है वही छुड़ाने योग्य है’ इस प्रकार राग-द्वेष-मोह से जीव परमार्थ से भिन्न ही रहेगा, तब मोक्ष के उपाय को ग्रहण करने का भी अभाव हो जाने से मोक्ष का ही अभाव हो जायेगा।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि रत्नत्रय स्वरूप मोक्ष का उपाय भी व्यवहारनय से ही ग्रहण किया जाता है। व्यवहारनय के बिना बंध व मोक्ष की व्यवस्था ही नहीं ब्ना सकती है।
शंका-इस विषय में हमें कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु निश्चयनय के अवलंबन से होने वाला रत्नत्रय चौथे से ही शुरू हो जाता है इस मान्यता में ही विवाद है, अत: उसी का समाधान चाहिए ?
समाधान-इसका समाधान तो गाथा १२वीं में किया जा चुका है कि जो ‘अपरमभाव’ में स्थित हैं उनके लिये व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है और आज सातवें गुणस्थान से ऊपर जा नहीं सकते अत: आज निश्चयनय का विषय श्रद्धान के लिये ही योग्य है अवलंबन के लिये नहीं। हाँ, सप्तमगुणस्थान में भी शुद्धोपयोग माना गया है अत: उसकी दृष्टि से कथंचित् मुनि ही उस निश्चयनय के अवलंबनस्वरूप निश्चयरत्नत्रय को प्राप्त कर सकते हैं, साधारण जन नहीं प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा समझना। क्योंकि व्यवहार या भेद रत्नत्रय साधन हैं और निश्चय या अभेद रत्नत्रय साध्य है। इस बात को आचार्यों ने स्वयं कहा है। साधन के बिना साध्य असंभव है पुन: छठे तक साधन रहे और चौथे गुणस्थान में साध्य हो जावे यह वैâसे बनेगा ?
व्यवहारनय अथवा व्यवहार रत्नत्रय साधन है तथा निश्चयनय या निश्चय रत्नत्रय साध्य है। इसका प्रमाण-पंचास्तिकाय की गाथा १६०, १६१ में है। सो देखिये-
व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है-धर्मादि द्रव्यों का श्रद्धान सम्यक्त्व है, अंग-पूर्व संबंधी ज्ञान सो ज्ञान है और तप में प्रवृत्ति करना सो चारित्र है। इस प्रकार यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।
श्री अमृतचंद्रसूरि इस गाथा की टीका में कहते हैं-
……इसमें तप के जो विशेषण दिये हैं वे पंच महाव्रत आदि से समन्वित मुनिचर्या रूप ही हैं। यथा-‘‘आचारादि सूत्रों द्वारा भेदरूप से कहे गये अनेक विध मुनि आचारों के समस्त समुदायरूप तप में प्रवर्तन करना सो चारित्र है। ……यह व्यवहारनय के आश्रय से किया जाने वाला मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग के साधन भाव को प्राप्त होता है अर्थात् इस व्यवहार मोक्षमार्ग से ही निश्चयनयाश्रित मोक्षमार्ग की सिद्धि होती है अन्यथा नहीं।
‘‘इसलिये निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग में साध्य-साधन-भाव अतिशयरूप से घटित हो जाता है।’’
इन प्रमाणों को देखकर भी जो विद्वान् व्यवहार चारित्र को हेय कहते हैं अथवा व्यवहार चारित्र के बिना निश्चय चारित्र की कोरी बातें करते हैं। वे आकाश पुष्प की सुगंधि ही चाहते हैं ऐसा समझना चाहिए।
आगे चलकर श्री कुंंदकुंददेव कहते हैं कि यह रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग कथंचित् (दसवें गुणस्थान तक) बंध का हेतु है पुन: (बारहवें गुणस्थान में) साक्षात् मोक्ष का हेतु है। यथा-
दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है। इसलिये वे सेवन करने योग्य हैं, ऐसा साधुओं ने कहा है। इनसे बंध भी होता है और मोक्ष भी होता है। इसी गाथा की टीका करते हुए श्री अमृतचंद्र सूरि कहते हैं-
ये दर्शन-ज्ञान-चारित्र यदि अल्प भी परसमयप्रवृत्ति के साथ मिलित हों तो….बंध के कारण भी हैं और जब समस्त परसमय प्रवृत्ति से निवृत्तिरूप स्वसमयप्रवृत्ति के साथ संयुक्त होते हैं तब……साक्षात् मोक्ष के कारण ही हैं।
श्री जयसेनाचार्य भी कहते हैं-
ये सम्यग्दर्शन-ज्ञान और चारित्र जब शुद्धात्मा के आश्रित होते हैं तब मोक्ष के लिए कारण होते हैं और जब ये पर-पंचपरमेष्ठी आदि के आश्रित होते हैं तब पुण्यबंध (सातिशय तीर्थंकर प्रकृति आदि) के लिए कारण हो जाते हैं।
इसी गाथा नं. १६० की टीका में श्री जयसेनाचार्य के शब्दों में देखिये-
वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए जीव आदि पदार्थों के संबंध में सम्यक् श्रद्धान करना और जानना ये दोनों सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान गृहस्थ और मुनियों में समान होते हैं। परन्तु साधु, तपस्वियों का चारित्र आचारसार आदि ग्रंथों में कहे गये मार्ग के अनुसार प्रमत्त और अप्रमत्त-छठे-सातवें गुणस्थान के योग्य पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति व छह आवश्यक आदिरूप होता है। गृहस्थों का चारित्र उपासकाध्ययन शास्त्र में कही गई रीति के अनुसार पंचमगुणस्थान के योग्य दान, शील, पूजा और उपवास आदि रूप अथवा दर्शन, व्रत आदि ग्यारह प्रतिमास्थानरूप होता है। यह व्यवहार मोक्षमार्ग का लक्षण है। जैसे-अग्नि सुवर्ण पाषाण को सुवर्ण बनाने में निमित्त है वैसे ही यह व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का साधक है।
अब अगली गाथा के लिए श्री अमृतचंद्र सूरि की उत्थानिका देखिये-
‘व्यवहारमोक्षमार्गसाध्यभावेन निश्चयमोक्षमार्गोपान्यासोऽयम्।
व्यवहार मोक्षमार्ग के द्वारा साध्यरूप होने से अब निश्चय मोक्षमार्ग का यह कथन किया जाता है-
जो आत्मा इन तीनों द्वारा समाहित होता हुआ अन्य कुछ भी न करता है औन न छोड़ता ही है, वह निश्चयनय से मोक्षमार्ग कहा गया है। इसी की टीका में श्री अमृतचंद्र सूरि पुन: कहते हैं-
‘‘अतो निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयो: साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न: इति।’
इस प्रकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि रत्नत्रय को धारण करने वाले मुनि भी परसमयरत होते हैं तथा जहाँ तक बंध है वहाँ तक कथंचित् परसमयप्रवृत्ति मानना चाहिए। उसके ऊपर उत्कृष्ट अंतरात्मा मुनि बारहवें गुणस्थान में ही पूर्णतया स्वसमयरत हैं वहीं पर बंध का अभाव होकर साक्षात् मोक्षमार्ग प्रकट होता है।
श्री अमृतचंद्र सूरि ने समयसार की व्याख्या में तो ‘यथाख्यातचारित्र के पहले बंध होता है’ यह बात स्पष्ट रूप से कह दी है।
वह (ज्ञानगुण) तो यथाख्यात चारित्र के नीचे (ग्यारहवें गुणस्थान के नीचे) अवश्यंभावी राग परिणाम का सद्भाव होने से बंध का हेतु ही है।
इससे यह भी स्पष्ट है कि सातवें से दशवें गुणस्थान तक अबुद्धिपूर्वक भी राग का अंश होने से कर्मबंध होता ही है और यह बात अध्यात्मसूरि श्री अमृतचंद्र सूरि जब स्वयं स्वीकार कर रहे हैं तब चतुर्थगुणस्थान आदि के सम्यग्दृष्टि को वीतरागी अथवा अबंधक कह देना स्वयं आत्मवंचना करना ही है।
निश्चयरत्नत्रय के लिये व्यवहार रत्नत्रय साधन (कारण) है।
शुद्ध निश्चयनय से निजशुद्धात्मा ही उपादेय है तथा भेदरत्नत्रय भी उपादेय है क्योंकि वह अभेदरत्नत्रय का साधक है अत: वह व्यवहार से उपादेय है।
उपादेयभूत जो निश्चयरत्नत्रय उसका कारण होने से व्यवहार मोक्षमार्ग उपादेय है और परम्परा से जीव की पवित्रता का कारण होने से पवित्र है।
‘‘यह नि:शंकित आदि आठ गुणों का व्याख्यान निश्चयनय की मुख्यता से किया गया है। निश्चयनय के लिए साधकभूत ऐसे व्यवहार रत्नत्रय में स्थित हुये सरागसम्यग्दृष्टि को अंजन चोर आदि की कथारूप से व्यवहारनय से भी यथासम्भव लगा लेना चाहिए।’’
निश्चय का व्याख्यान करके पुन: व्यवहारनय का व्याख्यान क्यों किया ?
ऐसा नहीं है, क्योंकि अग्नि और सुवर्णपाषाण के समान निश्चय और व्यवहारनय में परस्पर में साध्य-साधन भाव दिखलाने के लिए किया है।’’
व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है, परन्तु किनके लिए ?
इस प्रकार से निश्चयनय के द्वारा व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है तुम ऐसा जानो, क्योंकि निश्चयनय का आश्रय लेने वाले मुनि निर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं।’’
तात्पर्यवृत्ति टीकाकार कहते हैं-
‘इसके पश्चात् अभेद रत्नत्रयात्मक निर्विकल्प समाधिरूप निश्चयनय के द्वारा विकल्पात्मक व्यवहारनय बाधित हो जाता है’ इस कथन की मुख्यता से छह गाथा पर्यन्त व्याख्यान करते हैं-
‘‘एवं पूर्वोक्त प्रकार से पराश्रित होने से व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है ऐसा जानो। किसके द्वारा ? शुद्धात्म द्रव्य के आश्रित निश्चयनय के द्वारा। क्यों ? क्योंकि, निश्चयनय में स्थित हुए मुनिगण निर्वाण को प्राप्त करते हैं, इस कारण से। दूसरी बात यह है कि यद्यपि प्राथमिक शिष्यों की अपेक्षा से प्रारंभ में सविकल्प अवस्था में निश्चय का साधक होने से व्यवहारनय प्रयोजनीभूत है फिर भी विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षण शुद्धात्मा में स्थित मुनियों के लिए निष्प्रयोजन है ऐसा भावार्थ है।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक कथमपि निश्चयनय में स्थित नहीं हो सकते हैं। इसलिए शुद्धोपयोगी मुनियों द्वारा ही व्यवहारनय प्रतिषिद्ध है न कि श्रावकों द्वारा या छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों द्वारा।
निर्विकल्प समाधिरूप निश्चय में स्थित होकर व्यवहार त्याज्य है अर्थात् उस त्रिगुप्त अवस्था में व्यवहार स्वयं ही नहीं है ऐसा तात्पर्य हुआ। इस प्रकार से निश्चयनय के द्वारा यह प्रतिषिद्ध है ऐसा जानना। यह अवस्था वीतरागी मुनियों की ही होती है।
४.८ भेदरत्नत्रय अभेदरत्नत्रय के लिए साधन है-
भेद रत्नत्रय से अभेदरत्नत्रय की एवं अभेद से केवलज्ञान की सिद्धि होती है। देखिए-
‘‘भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग नामक व्यवहारकारणसमयसार के द्वारा अभेद रत्नत्रयात्मक निश्चयमोक्षमार्ग नामक निश्चयकारणसमयसार साध्य है। इस निश्चयकारणसमयसार से केवलज्ञान की अभिव्यक्तिरूप कार्यसमयसार प्रकट होता है।’’
निश्चयनय आत्माश्रित है-
आगे चलकर भगवान कुंदकुंदेव स्वयं कहते हैं-
व्यवहारनय तो मोक्षमार्ग में श्रावक और मुनि इन दोनों ही प्रकार के लिंगों को कहता है किन्तु निश्चयनय सभी लिंगों को मोक्षमार्ग में स्वीकार नहीं करता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, निश्चयनय आत्माश्रित है और व्यवहारनय शरीर आदि का आश्रय लेने से पराश्रित है।
श्री कुंदकुंददेव ने तो यहाँ तक कह दिया है कि दोनों नयों के पक्ष से रहित ही समयसार होता है-
जीव में कर्म बंधे हुये हैं अथवा नहीं बंधे हुये हैं इस प्रकार तो नयपक्ष अर्थात् व्यवहार और निश्चयनयों का कथन जानो, किन्तु जो इन दोनोें के नयों से अतिक्रांत हो चुका है वही समयसार है ऐसा तुम जानो।
मुनि ही समयसार रूप हैं
श्री अमृतचंद्रसूरि मुनियों को ही समयसाररूप मानते हैं-
जो हिंसा आदि पाँचों पापों को पूर्णरूप से त्याग करने में निरत हैं सो ये यति समयसारभूत हैं; और जो इन पाँचों पापों से एकदेशविरत हैं वे उपासक होते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावक समयसाररूप शुद्धात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते।
जो साधन के बिना साध्य की सिद्धि करना चाहते हैं अथवा व्यवहारचारित्र की उपेक्षा करके निश्चय की अपेक्षा करते हैं उनके बारे में आचार्य कहते हैं-
निश्चय का आलंबन लेते हुए परन्तु निश्चय से निश्चय को न जानते हुए कोई मुनि ब्ााह्य आचरण में आलसी होते हुये तेरह प्रकार के चारित्र और तेरह प्रकार की क्रियाओं का नाश कर देते हैं अत: उभय रूप से नष्ट हो जाते हैं।
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि श्रावकों के व्यवहार रत्नत्रय ही होता है। निश्चय नहीं। और भी देखिये-
मुनियों का आचरण कहकर अब आचार्य श्री कुंदकुंददेव मोक्षपाहुड़ ग्रंथ में श्रावकों के लिए कहते हैं-
पूर्वोक्त प्रकार से जिनेन्द्रदेव ने श्रमणों के लिए उपदेश दिया है अब श्रावकों के लिए कहते हैं उसे सुनो! वह उपदेश संसार का विनाश करने वाला है और सिद्धपद को प्राप्त कराने में उत्कृष्ट कारण है।
यदि कोई नय वस्तु की एक विशेषता को विवक्षा वश व्यक्त करता हुआ उसमें रहने वाली अन्य विशेषताओं को गौण न कर उनका निषेध करने लगता है तो वह सुनय न रहकर दुर्नय या नयाभास बन जाता है, क्योंकि वस्तु में विराजमान अन्य विशेषताओं को नकारने (निषेध) करने का उसे न तो कोई अधिकार है और न उसके नकारने में उनका अभाव ही हो जायेगा। एक अंश या विशेषता को पकड़कर उसे ही पूर्ण सत्य एवं अन्य विशेषताओं को असत्य मान लेना या कथन करना ही एकांत मिथ्यात्व और नयाभास है। जैसे अंधे मनुष्य का हाथी की पूँछ पकड़कर पूँछ को ही हाथी मान लेने वाला भ्रमित है, वैसे ही वस्तु में एक अंश को ही पूर्ण वस्तु मान लेने वाला भी भ्रमित हैं जो सत्य से परे है।
जैन वांग्मय में वस्तु को द्रव्य प्रधान दृष्टि से देखने को द्रव्यार्थिक तथा पर्याय (दशा) प्रधान दृष्टि को पर्यायार्थिक नय कहा गया है जबकि अध्यात्म ग्रंथों में द्रव्यार्थिक को निश्चय और पर्यायार्थिक को व्यवहारनय का नाम दिया गया है और निश्चय व्यवहार के नामों से ही उनका प्रयोग भी किया गया है। अत: इनमें नाम मात्र का भेद है, अर्थ भेद नहीं है।
समयसार के टीकाकार आचार्य जयसेन ने दोनों नयों को दो नेत्रों की उपमा दी है। जैसे एक नेत्र को बंद कर दूसरे नेत्र से देखने वाला नाक की दूसरी ओर स्थित वस्तुओं को देखने में असमर्थ रहता है, जो विद्यमान हैं, उसी प्रकार निश्चय प्रधान दृष्टि में वस्तु में विद्यमान गुण और उसकी पर्यायें दृष्टि में रहती नहीं है अत: उस समय वे गौण हो जाती हैं और व्यवहार प्रधान दृष्टि में गुण तथा पर्यायें ही दृष्टि में रहती हैं, द्रव्य गौण हो जाता है, जैसे एक व्यक्ति यह जीव है यह कथन और ज्ञान द्रव्य प्रधान दृष्टि है और यह व्यक्ति मनुष्य हैं यह पर्याय प्रधान दृष्टि हैं। दोनों दृष्टियाँ अपने-अपने विषय के कथन को मुख्य तथा अन्य दृष्टि से किये गये यथार्थ कथन को गौण कर प्रतिपादन करने के कारण सत्य हैं, जबकि व्यक्ति को केवल जीव ही कहने या मानने वाला और उसकी मनुष्यता को नकारने वाला एकांती है, उसी प्रकार व्यक्ति को केवल मनुष्य ही मानने वाला और उसके जीवत्व को नकारने वाला भी एकांती (मिथ्यादृष्टि) है।
इसी प्रकार संसारी जीव को शुद्ध निश्चयनय से समयसारादि अध्यात्म शास्त्रों में द्रव्य दृष्टि से त्रिकाल शुद्ध कहा गया है और व्यवहारनय की पर्याय दृष्टि में उसके रागी-द्वेषी होने के कारण अशुद्ध माना गया है। इन नयों की दृष्टियां भिन्न-भिन्न होने पर भी एक ही संसारी जीव में शुद्धता और अशुद्धता एक ही समय में निर्बाध सिद्ध हो जाती है। किन्तु कुछ भ्रमित जन-द्रव्य दृष्टि को ही सत्य और पर्याय दृष्टि को असत्य सत्य एकांती बनकर सिद्ध भगवान के समान स्वयं को भी सर्वथा शुद्ध और अंतस् में केवल ज्ञान सहित संसार दशा में भी मानकर आत्म वंचना में संलग्न हो जाते हैं, जबकि रागी द्वेषी और दु:खी कर्म बंधन बद्ध होने से वह प्रत्यक्ष ही अशुद्ध है और सिद्ध भगवान ही पर्याय दृष्टि से शुद्ध है। चूँकि केवलज्ञान, ज्ञान की पर्याय है और केवल ज्ञानावरण के क्षय होने पर ही वह प्रकट होती है, अत: संसारी जीव को केवलज्ञान की प्राप्ति हुए बिना केवलज्ञानी समझना या मानना भ्रम है। चूँकि संसारी जीव को शुद्ध हुए बिना केवलज्ञानी समझना या मानना भ्रम है। चूँकि संसारी जीव के अशुद्ध होने से ही इसे धर्माचरण द्वारा पुरुषार्थ कर मोक्षप्राप्ति करने का उपदेश दिया गया है अत: मुक्ति प्राप्त होने के पूर्व उसकी अशुद्धता को नकारा नहीं जा सकता।
उल्लिखित स्पष्टीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी नय (दृष्टि) चाहे वह निश्चय हो या व्यवहार, यदि अपने कथन को ही पूर्ण सत्य एवं अन्य नय के कथन को असत्य मानता या कहता है एवं अन्य नय के विषय को गौण न कर उसका निषेध करता है तो वह एकांतवादी होने से जैनदर्शन के अनुकूल नहीं है तथा वह ऐकांतिक कथन मिथ्या दर्शन या एकान्त मिथ्यात्व है। नयों की परस्पर मित्रता ही सत्य को (वस्तु के स्वरूप) यथार्थ में उजागर कर सकती है, शत्रुता नहीं। यत: स्वयं वस्तु में भी द्रव्य गुण और पर्यायों में तादात्म्य संबंध होने से परस्पर मित्रता पायी जाती है। जिसका नय अंश-अंश में ज्ञान कराते हैं अत: वे निराधार नहीं होते।
अष्टसहस्री नामक दर्शनशास्त्र में भी श्री विद्यानंदि महोदय ने ‘तथा चोक्तं’ कहकर सुनय और दुर्नय का लक्षण बताया है-
अनेकरूप पदार्थ का ज्ञान प्रमाण है, उस पदार्थ के एक अंश का ज्ञान नय है। वह नय अपने से विरोधी अन्य धर्म की अपेक्षा रखता है तथा दुर्नय अन्य धर्म का निराकरण करने वाला है।
वहीं पर श्री अकलंकदेव ‘अष्टशती भाष्य’ में कहते हैं-
अनेकांत का ज्ञान प्रमाण है, उसके एक धर्म को जानना नय है और उस नय के विरोधी धर्म का निराकरण करना दुर्नय है।
मिथ्यानयों का समूह मिथ्या ही है, चूूँकि हम स्याद्वादियों के यहाँ मिथ्याएकांत नहीं है। निरपेक्षनय मिथ्या हैं और सापेक्षनय वास्तविक हैं, अर्थक्रियाकारी हैं।
परस्पर में निरपेक्ष ही नय मिथ्यारूप हैं, चूँकि उनका विषयसमूह मिथ्यात्व रूप से स्वीकार किया गया है किन्तु सापेक्षनय सुनय है चूँकि उनका विषय अर्थ क्रियाकारी है, उन विषयों का समूह वास्तविक है।
सुनय को सम्यक् एकांत और दुर्नय को मिथ्या एकांत कहते हैं। यथा-
एकांत के दो भेद हैं-सम्यक् एकांत और मिथ्या एकांत। प्रमाण के द्वारा प्ररूपित वस्तु के एक देश को सयुक्तिक ग्रहण करने वाला सम्यक् एकांत है। एक धर्म (वस्तु के एक अंश) का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकांत है।
अनेकांत भी अनेकांतरूप है, वह प्रमाण और नय से सिद्ध होता है। अनेकांत की सिद्धि प्रमाण से होती है और विवक्षित नय की अपेक्षा से एकांत की सिद्धि होती है। यही सम्यक् एकांत है।
श्री जिनेन्द्रदेव के मत में परस्पर विरोधी विषय को लिये हुए भी सभी नय परस्पर में अविरोधी हैं। यथा-
द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक अथवा नैगम आदि नय, नेवला, सर्प आदि प्राणी और बसंत, ग्रीष्म आदि ऋतुयें ये सब तथा इनके सिवाय और भी जो पृथ्वी पर परस्पर विरोधी पदार्थ हैं जो कि परस्पर में कभी नहीं मिलते हैं, वे सब आपके प्रभाव से एक साथ संगत हो गये हैं-आपस के विरोध को भूलकर मिल गये हैं तथा कितने ही अन्य कार्य देवों की ऋद्धि से निष्पन्न किये गये हैं।
ये सभी नय अपने-अपने विषय के कथन करने में समीचीन हैं और दूसरे नयों के निराकरण करने में मूढ़ हैं। अनेकांत रूप समय के ज्ञाता पुरुष ‘यह नय सच्चा है और यह नय झूठा है’ इस प्रकार का विभाग नहीं करते हैं।
परमपूज्य स्वामी समन्तभद्र ने अपने आप्त मीमांसा नामक ग्रंथ में स्पष्ट शब्दों में नयों के परस्पर निरपेक्ष कथन को मिथ्या एवं सापेक्ष कथन को ही कार्यकारी (यथार्थ ज्ञान कराने वाला) होने से सम्यक् दर्शाया है। वे लिखते हैं-
‘
निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत।’
अर्थात् निरपेक्ष सभी नय मिथ्या और सापेक्ष परस्पर मैत्री भाव रखने वाले सभी नय सत्य हैं।’’
यह सब होते हुए भी समाज में निश्चय और व्यवहार की ऐकांतिक खींचतान कर पक्ष व्यामोह वश अपने प्रिय नय पक्ष को ही सर्वथा सत्य एवं अन्य को असत्य कह कर लोग निरर्थक विवाद करते रहते हैं, जबकि वस्तु स्वरूप को नयों के प्रति मध्यस्थ रहकर निष्पक्ष भावपूर्वक जानने और समझने में ही अनेकान्तात्मक सत्य के दर्शन हो सकते हैं और जबकि दोनों नय अपनी-अपनी दृष्टि से यथार्थ ज्ञान कराने के साधन हैं, वे एकांत पक्ष के पोषण के लिए नहीं है। पुरुषार्थ- सिद्ध्युपाय में आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्व जिज्ञासुओं को सचेत करते हुए लिखते हैं-
जो व्यवहार और निश्चयनय के दृष्टिकोणों को भली भांति जान और समझकर मध्यस्थ बना रहता है, किसी नय का पक्षपात नहीं करता। वही शिष्य भगवान जिनेन्द्र की देशना के पूर्ण फल (सम्यग्ज्ञान) का पात्र बनता है।