भगवान कुंदकुंददेव स्वयं कहते हैं कि यदि जीव में पुद्गल कर्म बंधे नहीं हैं तो यह संसार कैसे बना हुआ है ? अथवा यदि यह जीव कर्मों से बंधा नहीं है तो फिर संसार कैसे दिख रहा है ? इत्यादि एकांत रूप से जो जीव को सर्वथा कर्मों का अकर्ता मानते हैं उनका खंडन करते हुए कहते हैं-
जीवे णा सयं बुद्धं ण सयं परिणमदि कम्म भावेण।
जइ पुग्गलदव्वमिणं अप्परिणामी तदा होदि।।११६।।
कम्मइयवग्गणासु य अपरिणमंतीसु कम्मभावेण।
संसारस्स अभावो पसज्जदे संखसमओ वा१।।११७।।
यदि आप ऐसा कहें कि पुद्गलद्रव्य जीव में न तो आप स्वयं बंधा ही है और न स्वयं आप कर्मरूप से परिणमन ही करता है तब तो यह पुद्गल द्रव्य अपरिणामी-कूटस्थ नित्य हो जायेगा अथवा यदि आप ऐसा कहें कि ये कार्मण वर्गणाएं आप स्वयं कर्मरूप से परिणमन नहीं करती हैं तब तो संसार का ही अभाव हो जाएगा अथवा सांख्यमत सही सिद्ध हो जायेगा। इसी तरह से जीव के विषय में देखिये-
ण सयं बद्धो कम्मे ण सयं परिणमदि कोहमादीहिं।
जइ एस तुज्झ जीवो अप्परिणामी तदा होदि।।१२१।।
अपरिणमंतम्हि सयं जीवे कोहादिएहिं भावेहिं।
संसारस्य अभावो पसज्जदे संखसमओ वा।।१२२।।
यदि आप ऐसा मानें कि यह जीव कर्मों में न तो आप स्वयं बंधा ही है और न स्वयं आप क्रोधादि भावों से परिणमन ही करता है तब तो यह जीव अपरिमाणी-कूटस्थ नित्य हो जाएगा और जब यह जीव क्रोध आदि भावों से आप परिणमन ही नहीं करेगा तब तो संसार का ही अभाव हो जायेगा अथवा सांख्य मत सिद्ध हो जावेगा।
यदि आप कहें कि पुद्गल कर्म क्रोध रूप प्रकृति है वही इस जीव को क्रोध भाव से परिणमन करा देती है तब तो प्रश्न उठता है कि वह क्रोध कर्म इस जीव को आप स्वयं परिणमन न करते हुए क्रोध भाव कराता है या परिणमन करते हुए को क्रोध रूप करता है।
प्रथम प्रश्न का उत्तर तो यही होगा कि जो स्वयं परिणमन नहीं कर सकता है उसे क्रोध रूप पुद्गल कर्म कैसे परिणमन कराएगा क्योंकि जिसमें स्वयं जो शक्ति नहीं है वह दूसरे द्वारा लाई नहीं जा सकती है। यदि दूसरा प्रश्न लेवें तो यदि जीव स्वयं क्रोध रूप परिणमन कर रहा है तो पुन: क्रोध रूप द्रव्य कर्म ने क्या किया?
निष्कर्ष यही निकलता है कि जीव स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है और पुद्गल द्रव्य भी स्वयं परिणमन स्वभाव वाला है। द्रव्यकर्म रूप पौद्गलिक क्रोध कर्म के उदय से जीव क्रोध रूप परिणत हो जाता है और उसके क्रोध रूप परिणत होने से पुनरपि कर्मवर्गणायें क्रोध रूप से परिणत होकर जीव के साथ बंध जाती हैं।
इस बात को भगवान कुंदकुंददेव स्वयं अपने शब्दों में कहते हैं-
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स।
णाणिस्स स णाणमओ अण्णाणमओ अणाणिस्स।।१२६।।
यह आत्मा जिस भाव को कर्ता है उस भावरूप कर्म का कर्ता हो जाता है। ज्ञानी के वह भाव ज्ञानमय होता है और अज्ञानी के अज्ञानमय होता है।
श्री जयसेनस्वामी इसी प्रकरण को अत्यधिक रूप से स्पष्ट कर रहे हैं-
भाव कर्म रूप से परिणमन करना ही जीव का कर्तृत्व है और भोक्तृत्व है। वास्तव में जब तक यह जीव अशुभोपयोग से परिणमन करता है तक तक यह पाप, आस्रव और बंध इन तीन पदार्थों का ‘कर्ता’ होता है। जब यही जीव मिथ्यात्व एवं कषायों के मंद उदय होने पर भोगों की आकांक्षा रूप निदान बंध आदि करते हुए दान, पूजा आदि शुभ अनुष्ठान करता है तब यह पुण्य पदार्थ का भी ‘कर्ता’ हो जाता है। यह तो अज्ञानी जीव के अज्ञानमय भावों का कथन आपको बताया है, आगे कहते हैं कि जब वही जीव ज्ञानी हो जाता है अर्थात् शुद्धोपयोग भाव से परिणत होता हुआ जब यह जीव अभेद रत्नत्रय लक्षण अभेदज्ञान से परिणमन करता है तब निश्चय चारित्र के साथ अविनाभावी ऐसे वीतराग सम्यक्त्व से सहित होता हुआ यह संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तीन पदार्थों का ‘कर्ता’ होता है।
किन्तु यह जीव जब तक निश्चय सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त कर पाता है अर्थात् अभेद रत्नत्रय रूप निर्विकल्प समाधि में परिणमन नहीं कर पाता है तब तक सराग सम्यक्त्व से परिणमन करता हुआ शुद्ध आत्मा को उपादेय मानकर परम्परा से निर्वाण१ के लिए कारणभूत ऐसे तीर्थंकर प्रकृति आदि पुण्य पदार्थ का भी कर्ता होता है। चूँकि ये तीर्थंकर आदि पुण्य प्रकृतियाँ चौथे गुणस्थान से लेकर अष्टम गुणस्थान तक बंधती रहती हैं इसीलिये सम्यग्दृष्टि का पुण्य मोक्ष के लिये कारण है।
ये सब जीव को कर्ता सिद्ध करने वाली बातें जीव और पुद्गल को कथंचित् परिणामी मानने पर ही बन सकती हैं अन्यथा नहीं।
यहाँ यह बात विशेष समझने की है कि जीव उपादान रूप से कर्मों का कर्ता नहीं है जैसे कि मिट्टी स्वयं उपादान रूप से परिणत होकर ही घट बन जाती है वैसे ही जीव स्वयं उपादान रूप से कर्म नहीं बन जाता है किन्तु जैसे कुंभार, चाक, दण्ड आदि के बिना भी घड़े का बनना असंभव है उसी प्रकार से जीव के परिणामों को निमित्त रूप किये बिना पुद्गल भी कर्म रूप परिणत नहीं हो सकता है तथा जीव भी कर्मों के उदय रूप द्रव्य कर्मों के निमित्त बिना राग, द्वेष आदि विकारी भाव नहीं कर सकता है अर्थात् द्रव्य कर्म रूप पुद्गल का निमित्त पाकर जीव के परिणाम विभाव रूप होने से भावकर्म होते हैं और भाव कर्म के निमित्त से ही आगे पुद्गल द्रव्य कर्म रूप परिणत होते हैं।
पुद्गल भी उपादान रूप से जीव का कर्ता नहीं है और जीव भी उपादान रूप से पुद्गल कर्म का कर्ता नहीं है ऐसा सिद्धांत स्पष्ट है तथा निश्चयनय की अपेक्षा से देखा जाए तो जीव के साथ न तो कर्म का संबंध ही है न संसार और मोक्ष की व्यवस्था ही है, जीव तो ज्ञायक एक भाव रूप टंकोत्कीर्ण शुद्ध सिद्ध ही है किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कथंचित् कर्ता है अतएव संसार और मोक्ष की व्यवस्था है। यदि आपको संसार से छूटना है तो व्यवहार नय को भी सच्चा मानिए अन्यथा आप संसार में भी अपने को मुक्त मानकर मुक्त बन बैठे रहिए और व्यवहारनय को असत्य मानकर उसके द्वारा हुए चतुर्गति रूप दु:खों को भोगते रहिए, कोई आपको रोकने वाला नहीं है।