सुधेश-पिताजी!आज स्कूल में मास्टर साहब ने बतलाया कि जैन नास्तिक हैं,क्योंकि वे निरीश्वरवादी हैं,सो मुझे कुछ समझ में नही आया ।आप तो बहुत बार कहा करते हैं कि जैन सच्चे आस्तिक हैं । पिताजी-हाँ सुधेश! तुमने अच्छा प्रश्न किया है । देखो,हम बताते हैं,सुनो ।जैनों का अन्य सम्प्रदायवादियों ने इसलिए नास्तिक कहा है कि जैन वेदों को नहीं मानते हैं और सृष्टि का कर्ता नहीं मानते हैं । बस इतने मात्र से लोग जैनों को निरीश्वरवादी कह देते हैं । सुधेश-जैन वेदों को क्यों नही मानते हैं ? पिताजी-हमारे यहाँ जिनेन्द्र भगवान की सच्ची वणी वेड है और उसके भी प्रथमानुयोग,करणानुयोग,चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ये चार भेद हैं अतः वेद के चार भेद होते हैं । सुधेश-अन्य लोगों ने जो अथर्व आदि वेद माने हैं वे कैसे हैं? पिताजी-पहली बार लोग कहते हैं कि वेद अपौरुषेय हैं अर्थात् इनके करता कोई भी नहीं हैं,सो बात असम्भव है । अपने यहाँ वेदों के मूलकर्ता तीर्थंकर होते हैं । जैसे वर्तमान में भगवान थे और ग्रन्थकर्ता श्री गोतम स्वामी गणधर थे । परम्परा से उन्हीं के वचनों का आश्रय लेकर अन्य-अन्य आचार्यों ने भी ग्रन्थ रचे हैं । हाँ,यहाँ बात अवश्य है कि द्रव्यदृष्टि से श्रुत अनादिनिधन है,क्योंकि उसमे जो कुछ प्रतिपादित है वह सब अनादिनिधन है । केवल तीर्थंकर इसके प्रकाशक या प्रचारक होते हैं तथा ग्रन्थ रूप से यह श्रुत सादि-सांत ही हैं । दूसरी बात यह है कि अन्य मत के वेदों में जगह-जगह हिंसा का भी विधान आया है इसलिए हिंसा में धर्म मनाने वाले,पंचाग्नि तप करने वाले सही मार्गी नहीं हैं ।