भगवज्जिनसेनाचार्य ने महापुराण में भगवान बाहुबली के ध्यान के बारे में जैसा वर्णन किया है उसके आधार से उनके शल्य मानना उनका अवर्णवाद है।
प्रतिमायोगमावर्षमातस्थे किल संवृत: ।।१०६।। पर्व ३६ गौरवंस्त्रिमिरून्मुक्त: परां निशल्यतां गता।।१३७।।
‘एकलविहारी अवस्था को प्राप्त बाहुबली ने एक वर्ष तक के लिए प्रतिमायोग धारण किया। वे रसगौरव, शब्दगौरव और ऋद्धिगौरव इन तीनों से रहित थे, अत्यंत नि:शल्य थे और दश धर्मों के द्वारा उन्हें मोक्ष मार्ग में अत्यंत दृढ़ता प्राप्त हो गई थी।’
परमावधिमुल्लंघ्य स सर्वावधिमासदात् । मन: पर्ययबोधे च संप्रापद् विपुलां मतिम् ।।१४७।।
‘तपश्चरण का बल पाकर उन मुनिराज के योग के निमित्त से होने वाली ऐसी अनेक ऋद्धियां प्रगट हुई थीं जिससे कि उनके तीनों लोकों में क्षोभ पैदा करने की शक्ति प्रगट हो गई थी। मतिज्ञान की विधि से कोष्ठबुद्धि आदि ऋद्धियां एवं श्रुतज्ञान की वृद्धि से समस्त अंग पूर्वों के जानने की शक्ति का विस्तार हो गया था। वे अवधिज्ञान में परमावधि को उल्लंघन कर सर्वावधि की ओर मनःपर्यय में विपुलमति मनःपर्यय को प्राप्त हुये थे।
सिद्धान्तग्रंथ का नियम
सिद्धान्तग्रंथ का यह नियम है कि भावलिंगी व वृद्धिंगत चारित्र वाले मुनि के ही सर्वावधिज्ञान होता है तथा ‘विपुलमति मनःपर्यय तो वर्धमान चारित्र वाले एवं किसी न किसी ऋद्धि से समन्वित मुनि के ही होता है। आगे भगवान जिनसेन सभी प्रकार की ऋद्धियों की प्रगटता मानते हुए कहते हैं कि ‘उनके तप के प्रभाव से आठ प्रकार की विक्रिया ऋद्धि प्रगट हो गई थी।
आमर्षौषधि, जल्लौषधि, क्ष्वेलौषधि आदि औषधि ऋद्धियों के हो जाने से उन मुनिराज की समीपता जगत का उपकार करने वाली थी। यद्यपि वे भोजन नहीं करते थे तथापि शक्ति मात्र से ही उनके रस ऋद्धि प्रगट हुई थी। उनके शरीर पर लतायें चढ़ गई थीं। सर्पों ने वामियाँ बना ली थीं और वे निर्भीक हो क्रीड़ा करते थे परस्पर विरोधी तिर्यंच भी क्रूर भाव को छोड़कर शांत चित्त हो गये थे।
विद्याधर लोग गति भंग हो जाने से उनका सद्भाव जान लेते थे और विमान से उतर कर ध्यान में स्थित उन मुनिराज की बार-बार पूजा करते थे। तप की शक्ति के प्रभाव से देवों के आसन भी बार-बार कंपित हो जाते थे जिससे वे मस्तक झुकाकर नमस्कार करते रहते थे। ‘कभी-कभी, क्रीडा के लिये आई हुई विद्याधरियां उनके सर्व शरीर पर लगी हुई लताओं को हटा जाती थीं।
धर्मध्यान के बल से तप की शक्ति का उत्पन्न होना
समीचीन धर्मध्यान के बल से जिनके तप की शक्ति उत्पन्न हुई थी ऐसे वे मुनि लेश्या विशुद्धि को प्राप्त होते हुए शुक्ल ध्यान के सन्मुख हुये एक वर्ष का उपवास समाप्त होने पर भरतेश्वर ने आकर जिनकी पूजा की है, ऐसे महामुनि बाहुबलीकेवलज्ञान ज्योति को प्राप्त हो गये। वह भरतेश्वर मुझ से संक्लेश को प्राप्त हो गया।
यह विचार बाहुबली के हृदय में रहता था, इसलिये केवलज्ञान ने भरत की पूजा की अपेक्षा की थी। प्रसन्न बुद्धि सम्राट भरत ने केवलज्ञान उदय के पहले और पीछे विधिपूर्वक उनकी पूजा की थी। भरतेश्वर ने केवलज्ञान के पहले जो पूजा की थी वह अपना अपराध नष्ट करने के लिये की थी और केवलज्ञान के बाद जो पूजा की थी वह केवलज्ञान की उत्पत्ति का अनुभव करने के लिये की थी।
बाहुबली को शल्य नहीं विकल्प था
इस प्रकार महापुराण के इन उदाहरणों से स्पष्ट हो जाता है। कि भगवान बाहुबली को कोई शल्य नहीं थी। मात्र इतना विकल्प अवश्य था कि भरत को मेरे द्वारा संक्लेश हो गया था सो भरत के पूजा करते ही वह दूर हो गया। भरत की भूमि पर ही तो रहेंगे। ऐसे मंत्रियों के द्वारा व्यंग्यपूर्ण शब्द के कहे जाने पर बाहुबलि कुछ क्षुब्ध से हुये और मान कषाय को धारण करते हुए चले गये तथा दीक्षा ले ली।
उस समय से लेकर उनके मन में यही शल्य लगी हुई थी कि मैं भरत की भूमि में खड़ा हूँ। अतः उन्हें केवलज्ञान नहीं हो रहा था तब भरत ने आकर भगवान ऋषभदेव से प्रश्न किया कि बाहुबली को एक वर्ष के लगभग होने पर भी अभी तक केवलज्ञान क्यों नहीं हुआ है। भगवान ने कहा ‘भरत। उसके मन में शल्य है अत: तुम जावो और समझाओ कि भला यह पृथ्वी किसकी है। हमारे जैसे तो अनंतों चक्रवर्ती हो चुके हैं फिर भला यह पृथ्वी मेरी कैसे है।’
इत्यादि समाधान करने पर बाहुबली की शल्य दूर हुई और उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया।’’ यह किवदन्ती महापुराण के आधार से तो गलत हो ही, साथ ही सिद्धान्त की दृष्टि से भी बाधित ही है। जैसे कि शल्य तीन होती है माया, मिथ्या और निदान।
माया या अर्थ है वंचना ठगना, छल कपट पूर्ण व्यवहार करना
तो उन्हें थी नहीं । मिथ्याशल्य-मिथ्यात्व को कहते हैं। ‘मैं भरत की भूमि पर खड़ा हूँ यह विपरीत ही मिथ्यात्व शल्य कही जा सकती है सो भी बाहुबली के मानना संभव नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टि साधु के सर्वावधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और अनेक ऋद्धियां प्रगट नहीं हो सकती थीं।
निदान शल्य का अर्थ है आगामी काल में भोगों की वाञ्छा रखते हुये उसी का चिन्तन करना सो भी उन्हें नहीं मानी जा सकती है। दूसरी बात यह है कि तत्वार्थसूत्र में भी श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है कि ‘‘निःशल्योव्रती’’ जो माया, मिथ्यात्व और निदान इन तीनों शल्यों से रहित होता है वही व्रती कहलाता है। पुनः यदि बाहुबली जैसे महामुनि के भी शल्य मान ली जावे तो वे महाव्रती क्या अणुव्रती भी नहीं माने जा सकेगें।
पुन: वे भावलिंगी मुनि नहीं हो सकते और न उनके ऋद्धियों का प्रादुर्भाव माना जा सकता है। यदि कोई कहे कि पुन: एक वर्ष तक ध्यान करते रहे और केवलज्ञान क्यों नहीं हुआ, सो भी प्रश्न उचित नहीं प्रतीत होता। एक वर्ष का ध्यान तो अन्य महामुनियों के भी माना गया है जैसे उत्तरपुराण में भगवान शांतिनाथ के पूर्वभवों में एक उदाहरण आता है-
उत्तरपुराण में भगवान शांतिनाथ के पूर्वभवों में एक उदाहरण
वज्रायुध ने विरक्त होकर सहस्रायुध को राज्य दिया, पुन: क्षेमंकर तीर्थंकर के पास जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और बाद में उन्होंने ‘सिद्धिगिरि’ पर्वत पर जाकर एक वर्ष के लिये प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का आश्रय पाकर बहुत से वमीठे तैयार हो गये। उनके चारों तरफ लगी हुई लतायें भी मुनिराज के पास जा पहुँचीं। इधर वज्रायुध के पुत्र सहस्रायुध ने भी विरक्त हो अपना राज्य शतबली को दिया और दीक्षा ले ली।
जब एक वर्ष का योग समाप्त हुआ तब वे अपने पिता वज्रायुध के पास जा पहुँचे। अनंतर पिता-पुत्र दोनों ने चिरकाल तक तपस्या की, पुन: वैभार पर्वत पर पहुंचकर अंत में सन्यास विधि से मरण कर अहमिंद्र हो गये। यह प्रकरण भगवान शांतिनाथ के पांचवें भवपूर्व का है । यह घटना पूर्व विदेह क्षेत्र की है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि विदेहादि क्षेत्रों में ऐसे-ऐसे महामुनि एक-एक वर्ष का योग लेकर ध्यान किया करते हैं।
भगवान बाहुबली कब जन्में
चतुर्थकाल की आदि में क्या तृतीयकाल के अन्त में जन्में थे और ध्यान में लीन हुए थे तथा मुक्ति भी तृतीय काल के अन्त में प्राप्त की थी। अतः उनमें एक वर्ष के ध्यान की योग्यता होना कोई बड़ी बात नहीं है। पुनः शल्य थी इसलिये केवलज्ञान नहीं हुआ यह कथन संगत नहीं प्रतीत होता है।
रविषेणाचार्य ने भी बाहुबली के शल्य का वर्णन नहीं किया है। यथा-उन्होंने उसी समय सकल भोगों को त्याग दिया और निर्वस्त्र दिगम्बर मुनि हो गये तथा एक वर्ष तक मेरूपर्वत के समान निष्प्रक़ंप खड़े रहकर प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके पास अनेक वामियाँ लग गई जिनके बिलों से निकले हुऐ बड़े-बड़े सांपों और श्यामा आदि की हरी-हरी लताओं ने उन्हें वेष्टित कर लिया।
इस दशा में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। अतएव भगवान बाहुबली के शल्य नहीं थी। ‘कोई कहते हैं कि भरत के साथ ब्राह्मी-सुन्दरी बहनों ने भी जाकर उन्हें संबोधा जब उनकी शल्य दूर हुई।’ यह कथन भी नितान्त असंगत है ‘क्योंकि भगवान वृषभदेव को केवलज्ञान होने के बाद पुरिमताल नगर के स्वामी भरत ने छोटे भाई वृषभसेन ने भगवान से दीक्षा ले ली और प्रथम गणधर हो गये। ब्राह्मी ने भी दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रमुख गणिनी पद प्राप्त किया एवं सुन्दरी ने भी दीक्षा ले ली।
इसके बाद चक्रवर्ती ने घर आकर चक्ररत्न की पूजा करके दिग्विजय के लिये प्रस्थान किया जहां उन्हें साठ हजार वर्ष लग गये। अनंतर आकर बाहुबली के साथ युद्ध हुआ है। अत: भगवान बाहुबली का आदर्श जीवन महापुराण के आधार से लेना चाहिए। चूंकि ग्रंथराज महापुराण ऋषिप्रणीत होने से ‘आर्षग्रंथ माना जाता है।