-शार्दूलविक्रीडित-
सम्यग्दर्शनबोधवृत्तशमताशीलक्षमाद्यैर्धनै: संकेताश्रयवज्जिनेश्वर भवान् सर्वैर्गुणैराश्रित:।
मन्ये त्वय्यवकाशलब्धिरहितै: सर्वेऽत्र लोके वयं संग्राह्या इति गर्वितै: परिहृतो दोषैरशेषैरपि।।११।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेश ! निविड जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान,सम्यक्चारित्र, शमता, शील और क्षमा आदिक समस्त गुण हैं उन्होंने संकेत के घर के समान आपका आश्रय किया है इसीलिये आपमें जिन्होंने स्थान को नहीं पाया है और जो समस्त लोक में हम संग्राह्य (ग्रहण करने योग्य) हैं इस प्रकार के अभिमान कर संयुक्त हैं, ऐसे समस्त दोषों ने आपको छोड़ दिया है, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ —ग्रंथकार कहते हैं कि हे जिनेन्द्र ! आप में जो समस्त गुण ही गुण दीखते हैं और दोष एक नहीं दीखता, उसका कारण यही मालूम पड़ता है कि समस्त गुणों ने पहले ही आपस में सलाह कर आपको स्थान बना लिया और पीछे उनके विरोधी जो दोष हैं, उन्होंने आप में स्थान को नहीं पाया, तब उन दोषों को इस बात का अभिमान उत्पन्न हुआ कि हम समस्त संसार में पैâले हुवे हैं और समस्त संसार के ग्रहण करने योग्य हैं यदि एक केवल जिनेन्द्र में हमको आश्रय नहीं मिला और उन्होंने हमको ग्रहण नहीं किया जो हमारा कोई भी नुकसान नहीं इसीलिये इस प्रकार के अभिमान से आपको उन्होंने सर्वथा छोड़ दिया।।१।।
-वसंततिलका-
यस्त्वामनंतगुणमेक भुवं त्रिलोक्या: स्तौति प्रभूतकवितागुणगर्वितात्मा।
आरोहति द्रुमशिर: स नरो नभोंऽतं गन्तुं जिनेन्द्र मति विभ्रमतो बुधोऽपि।।२।।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! आप तो अनन्तेगुणों के भंडार हैं और तीनों लोक के एक स्वामी हैं, ऐसा समझकर भी यदि प्रचुर जो कविता का गुण, उससे जिसकी आत्मा अत्यंत गर्वकर सहित है अर्थात् जो कविता चातुर्य का बड़ा भारी अभिमानी है, ऐसा कोई मनुष्य आपकी स्तुति करे तो समझ लेना चाहिये कि वह बुद्धिमान भी मनुष्य अपनी बुद्धि के भ्रम से (मूर्खता से) आकाश के अंत को प्राप्त होने के लिये वृक्ष की चोटी पर चढ़ता है ऐसा निसंदेह मालूम होता है।
भावार्थ —आकाश अनंत है तथा सब जगह पर व्याप्त है इसलिये सैकड़ों वृक्षों की चोटी पर चढ़ने से भी जिस प्रकार उसका अंत नहीं मिल सकता, उसी प्रकार हे जिनेन्द्र ! आप भी अनंते गुणों के भंडार हैं और समस्त जगत के स्वामी हैं इसलिये आपका स्तवन करना भी अत्यंत कठिन है, यदि कोई मनुष्य अपनी कवित्व शक्ति का अभिमान रखकर आपकी स्तुति करना चाहे तो वह बुद्धिमान् होने पर भी सर्वथा मूर्ख है, ऐसा समझना चाहिये।।२।।
शव्नâोति कर्तुमिह क: स्तवनं समस्तविद्याधिपस्य भवतो विबुधार्चिताङ्घ्रे:।
तत्रापि तज्जिनपते कुरुते जनो यत्तच्चित्तमध्यगतभक्तिनिवेदनाय।।३।।
अर्थ —हे प्रभो ! आप समस्त विद्याओं के स्वामी हैं और आपके चरणों की बड़े-बड़े देव अथवा बड़े-बड़े पंडित आकर पूजन करते हैं इसलिये संसार में आपकी स्तुति करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है तो भी हे जिनेन्द्र ! जो लोग आपकी स्तुति करते हैं, वे केवल अपने चित्त में प्राप्त जो भक्ति, उसके निवेदन करने के लिये ही करते हैं और दूसरा कोई भी कारण नहीं है।।३।।
१नामापि देव भवत: स्मृतिगोचरत्वं वाग्गोचरत्वमथ येन सुभक्तिभाजा।
नीतं लभेत स नरो निखिलार्थसिद्धिं साध्वी स्तुतिर्भवतु मा किल मात्र चिंता।।४।।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! हे प्रभो ! जो आपका भक्त मनुष्य आपके नाम को भी स्मरण करता है तथा आपके नाम को वचन द्वारा कहता भी है, उस मनुष्य को भी संसार में समस्त प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है, तब आपकी उत्तमरीति से स्तुति हो अथवा मत हो, कोई भी चिंता नहीं।
भावार्थ —जो मनुष्य आपकी स्तुति तथा भक्ति करता है, वह किसी न किसी लाभ के लिये ही करता है, यदि उस भव्य- जीव को आपके नाम के स्मरण से अथवा आपके नाम के उच्चारण करने से ही समस्त प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जावें, तो चाहे आपकी स्तुति उससे उत्तमरीति से हो या न हो, कोई चिंता नहीं।।४।।
एतावतैव मम पूर्यत एव देव सेवां करोति भवतश्चरणद्वयस्य।
अत्रैव जन्मनि परत्र स सर्वकालं न त्वामित: परमहं जिन याचयामि।।४।।
अर्थ —हे जिनेश ! इस भव में तथा पर भव में मैं आपके दोनों चरणों की सदा काल सेवा करता रहूँ, यही मुझे प्राप्ति होवे किंतु मैं इससे अधिक आपसे कुछ भी नहीं माँगता।।५।।
सर्वागमावगमत: खलु तत्त्वबोधो मोक्षाय वृत्तमपि सम्प्रति दुर्घटं न:।
जाड्यात्तथा कुतनुतस्त्वयि भक्तिरेव देवास्ति सैव भवतु क्रमतस्तदर्थम्।।६।।
अर्थ —समस्त प्रकार के शास्त्रों के ज्ञान से निश्चय से तत्त्वों का ज्ञान होता है और उन्हीं शास्त्रों से मोक्ष के लिये सम्यक्चारित्र की भी प्राप्ति होती है किंतु इस पंचमकाल में हमारे लिये वे दोनों मूर्खता के कारण तथा दुर्गंधमय शरीर के कारण अत्यंत दुर्घट हैं अर्थात् सहसा प्राप्त नहीं हो सकते, इसलिये मुझमें जो आपकी भक्ति है, वही क्रम से मोक्ष के लिये होवे, ऐसी प्रार्थना है।
भावार्थ —यद्यपि मोक्ष के लिये तत्त्वज्ञान की प्राप्ति तथा सम्यक्चारित्र की प्राप्ति शास्त्रों से हो सकती है किन्तु इस पंचमकाल में अज्ञानता की अधिकता से तथा असमर्थ और दुर्गंधमय शरीर के कारण न तो तत्त्वज्ञान ही हम सरीखे मनुष्यों को हो सकता है और न सम्यक्चारित्र ही पल सकता है और मोक्ष को चाहते ही हैं इसलिये हे िजनेन्द्र! यह विनयपूर्वक प्रार्थना है कि जो मुझमें आपकी भक्ति मौजूद है, वही मुझे मोक्ष के लिये होवे।।६।।
हरति हरतु वृद्धं वार्धकं कायकान्तिं दधति दधतु दूरं मंदतामिन्द्रियाणि।
भवति भवतु दु:खं जायतां वा विनाश: परमिह जिननाथे भक्तिरेका ममास्तु।।७।।
अर्थ —वृद्धावस्था समस्त शरीर की कांति को नष्ट करती है, सो करे तथा समस्त इन्द्रियाँ बहुत काल तक मंद हो जाती हैं सो होवें, और संसार में दु:ख होता है सो भी हो, तथा विनाश भी हो किंतु जिनेन्द्र भगवान में जो मेरी भक्ति है, वह सदा रहे, ऐसी प्रार्थना है।
भावार्थ —वृद्धावस्था में चाहे मेरे समस्त शरीर की कांति नष्ट हो और मेरी समस्त इन्द्रियाँ भी शिथिल होवें तथा मुझे दु:ख भी भोगना पड़े और मेरा मरण भी हो जावे, तो भी जो जिनेन्द्र भगवान में मेरी भक्ति है, वह सदा स्थिर रहे, यह विनय से प्रार्थना है।।७।।
अस्तु त्रयं मम सुदर्शनबोधवृत्तसंबंधि यांतु च समस्तदुरीहितानि।
याचे न किञ्चिदपरं भगवन् भवन्तं नाप्राप्तमस्ति किमपीह यतस्त्रिलोक्याम्।।८।।
अर्थ —हे प्रभो ! इस संसार में सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी जो त्रयी है, वह मेरे होवे तथा मेरे समस्त पाप नष्ट हो जावें, बस यही मैं आप से याचना करता हूँ किंतु इससे भिन्न दूसरी वस्तु, मैं नहीं माँगता क्योंकि संसार में इनसे भिन्न ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है, जो मुझे प्राप्त न हो गई हो।
भावार्थ —हे जिनेश ! मैं इस संसार में बड़ी ऋद्धि का धारी देव भी हो चुका तथा राजा भी हो चुका और भी मैने अनेक विभूतियाँ प्राप्त कर लीं किंतु अभी तक मुझे सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र की प्राप्ति नहीं हुई है और मेरे पाप भी अती नष्ट नहीं हुवे हैं इसलिये मैं यह आपसे याचना करता हूँ कि मुझे इन तीनों की प्राप्ति हो जावे तथा समस्त कर्म मेरे नष्ट हो जावें और इनसे अधिक मैं आपसे कुछ भी नहीं माँगता क्योंकि सम्यग्दर्शन आदि से भिन्न वस्तु का माँगना बिना प्रयोजन का है।।८।।
-वसंततिलका-
धन्योऽस्मि पुण्यनिलयोऽस्मि निराकुलोऽस्मि शांतोस्मि नष्टविपदस्मि विदस्मि देव।
श्री मज्जिनेन्द्र भवतोऽड.्घ्रियुगं शरण्यं प्राप्तोस्मि चेदहमतीन्द्रियसौख्यकारि।।९।।
अर्थ —हे जिनेन्द्र ! जो सुख अतीन्द्रिय है अर्थात् इन्द्रियों से नहीं हो सकता है, उस सुख के करने वाले यदि मुझे संसार में आपके दोनों चरण प्राप्त हो गये, तो हे देव ! मैं अपने को धन्य हूँ पुण्यवान हूँ समस्त प्रकार की आकुलताओं कर रहित हूँ शांत हूूँ तथा सब प्रकार की आपत्तियों कर भी रहित हूँ और ज्ञानी हूँ, ऐसा भलीभांति समझता हूँ।
भावार्थ —हे प्रभो ! यदि संसार में जीवों को अलभ्य हैं तो अतीन्द्रिय सुख के करने वाले आपके चरण-कमल ही हैं और जब मुझे उन्हीं की प्राप्ति हो गई, तब मैं धन्य हूँ, पुण्यवान हूँ, निराकुल हूँ, शांत हूँ और समस्त प्रकार की आपत्तियों कर रहित हूँ तथा ज्ञानी हूँ, ऐसा मैं अपने को मानता हूँ।।९।।
रत्नत्रये तपसि पंक्तिविधे च धर्मे मूलोत्तरेषु च गुणेष्वथ गुप्तिकार्ये।
दर्पात् प्रमादात उतागसि मे प्रवृत्ते मिथ्यास्तु नाथ जिनदेव तव प्रसादात्।।१०।।
अर्थ —हे प्रभो जिनेश ! सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय में, तप में, दश प्रकार के धर्म में तथा मूलगुण और उत्तरगुणों में और तीन प्रकार की गुप्तियों में जो कुछ अभिमान से अथवा प्रमाद से मुझे अपराध लगा हो, सो हे जिनदेव! हे नाथ! आपके प्रसाद से वह मेरा अपराध सर्वथा मिथ्या हो ऐसी प्रार्थना है।।१०।।
मनोवचोऽङ्गै: कृतमङ्गिपीडनं प्रमोदितं कारितमत्र यन्मया।
प्रमादतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिन दुष्कृतं मम।।११।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र ! प्रमाद से अथवा अभिमान से जो मैंने मन-वचन-काय से जीवों को पीड़ा दी है अथवा दूसरों से मैंने दिलवाई है वा जीवों को पीड़ा देने वाले दूसरे जीवों को मैंने अच्छा कहा है, इनसे पैदा हुवा वह समस्त पाप मेरा मिथ्या हो।।११।।
-शार्दूलविक्रीडित-
चिंतादुष्परिणामसंततिवशादुन्मार्गगाया गिर: कायात्संवृतिवर्जितादनुचितं कर्मार्जितं यन्मया।
तन्नाशं ब्रजतु प्रभो जिनपते त्वत्पादपद्मस्मृतेरेषा मोक्षफलप्रदा किल कथं नास्मिन् समर्था भवेत्।।१२।।
अर्थ —हे प्रभो ! हे जिनेन्द्र! चिंता से, खोटे परिणामों की संतति से तथा खोटे मार्ग में गमन करने वाली वाणी से और संवररहित शरीर से जो मैंने नाना प्रकार के कर्मों का उपार्जन किया है, वे समस्त कर्म आपके चरण-कमलों के स्पर्श से सर्वथा नाश को प्राप्त होवें क्योंकि आपके दोनों चरण-कमलों की जो स्मृति है, वह निश्चय से मोक्षफल को देने वाली है इसलिये वह पाप कर्मों के नाश करने में क्यों नहीं समर्थ होगी ?
भावार्थ —हे जिनेश ! मैंने खोटे पदार्थों की चिंता से तथा खोटे परिणामों से, कुत्सित वचनों से और संवर कर रहित शरीर से अनेक प्रकार के कर्मों का संचय किया है किंतु हे जिनेन्द्र ! अब उन कर्मों के नाश का उपाय आपके दोनों चरण-कमलों की स्मृति ही है अत: उससे ये मेरे समस्त पाप नष्ट हो जावें क्योंकि आपके दोनों चरण-कमलों की स्मृति में जब जीवों को मोक्षरूपी फल के देने की शक्ति मौजूद है, तब क्या वह स्मृति इन पाप कर्मों के नाश में समर्थ नहीं हो सकती है ? अवश्य ही हो सकती है।।१२।।
-वसन्ततिलका-
वाणी प्रमाणमिह सर्वविदस्त्रिलोकीसद्मन्यसौ प्रवरदीपशिखासमाना।
स्याद्वादकांतिकलिता नृसुराहिवंद्या कालत्रयप्रकटिताखिलवस्तुतत्त्वा।।१३।।
अर्थ —जो सर्वज्ञदेव की वाणी स्याद्वादरूपी कांति कर स्ांयुक्त है और जिसकी मनुष्य-देव-नागकुमार सब ही स्तुति करते हैं तथा जो तीनों कालों में रहने वाले समस्त तत्त्वों को प्रकट करने वाली है अतएव जो तीन लोकरूपी धरम उत्कृष्ट दीपक की शिखा के समान है, वही वाणी प्रमाण है।
भावार्थ —जिस प्रकार दीपक कांतिकर सहित होता है और वंदनीय होता है तथा पदार्थों का प्रकाश करने वाला होता है उसी प्रकार जो सर्वज्ञ की वाणी स्याद्वादरूपी कांतिकर सहित है और मनुष्य-देव-नागकुमार आदि सबों से वंदनीय है तथा तीनों कालों में रहने वाले समस्त पदार्थों को प्रकट करने वाली है, ऐसी वह त्रिलोकरूपी मकान में उत्कृष्ट दीप के समान केवली की वाणी ही प्रमाण है।।१३।।
-पृथ्वी-
क्षमस्व तद्वाणि तज्जिनपतिश्रुतादिस्तुतौ यदूनमभवन्मनोवचनकायवैकल्यत:।
अनेकभवसंभवैर्जडिमकारणै: कर्मभि: कुतोत्र किल मादृशे जननि तादृशं पाटवम्।।१४।।
अर्थ —हे मात: सरस्वति ! मन-वचन-काय की विकलता से जिनेन्द्र भगवान की स्तुति में अथवा शास्त्र की स्तुति में जो कुछ (मुझसे) हीनता हुई है, उसको क्षमा करो क्योंकि अनेक भवों में उत्पन्न हुवे तथा जड़ता के कारण जो कर्म हैं, उनसे मेरे समान मनुष्य में जिनेन्द्र की तथा शास्त्र आदि की भली-भांति स्तुति करने में कहाँ से इतनी चतुरता आ सकती है ?
भावार्थ —हे मात: ! अनेक भवों में उत्पन्न तथा जड़ता के कारण घोर कर्मों का प्रभाव मेरी आत्मा के ऊपर पड़ा हुवा है इसलिये जिनेन्द्र भगवान की स्तुति में तथा शास्त्र आदि की स्तुति में जितनी विद्वत्ता होनी चाहिये, उतनी विद्वत्ता मुझमें नहीं है इसलिये मन-वचन-काय की विकलता से जो जिनेन्द्र की स्तुति में अथवा शास्त्र आदि की स्तुति में हीनता हुई है, उसको हे मात: सरस्वति ! आप क्षमा करें।।१४।।
-अनुष्टुप्-
पल्लवोयं क्रियाकांडकल्पशाखाग्रसंगत:।
जीयादशेषभव्यानां प्रार्थितार्थिफलप्रद:।।१५।।
अर्थ —समस्त भव्यजीवों को अभिलषित फलों का देने वाला ऐसा यह क्रियाकांड रूपी कल्पवृक्ष की शाखा में लगा हुवा क्रियाकांड चूलिकाधिकाररूपी जो पल्लव है, वह सदा इस लोक में जयवंत रहो।
भावार्थ —जिस प्रकार कल्पवृक्ष की शाखा के अग्रभाग में लगा हुआ पल्लव जीवों को अभीष्टफलों का देने वाला होता है, उसी प्रकार यह क्रियाकांडरूपी कल्पवृक्ष की शाखा पर लगा हुवा क्रियाकांड चूलिका नामक अधिकाररूपी पल्लव भी भव्य जीवों को अभीष्टफल का देने वाला है, इसलिये ऐसा वह पल्लव सदा इस लोक में जयवंत रहे।।१५।।
–भुजंगप्रयात-
क्रियाकांडसंबंधिनी चूलिकेयं नरै: पठ्यते यैस्त्रिसन्ध्यं च तेषाम्।
वपुर्भारती चित्तवैकल्यतो या न पूर्णा क्रिया सापि पूर्णत्वमेति।।१६।।
अर्थ —जो भव्यजीव इस क्रियाकांडसंबंधिनी चूलिका को तीनों काल (प्रात:काल, मध्याह्नकाल तथा सायंकाल) पढ़ता है तथा पढ़ेगा, उस भव्यजीव की जो क्रिया मन-वचन-काय की विकलता से पूर्ण नहीं हुई है, वह शीघ्र ही पूर्ण हो जाती है।।१६।।
-पृथ्वी-
जिनेश्वर नमोस्तु ते त्रिभुवनैकचूडामणे गतोऽस्मि शरणं विभो भवभिया भवंतं प्रति।
तदाहतिकृते बुधरैकथि तत्त्वमेतन्मया श्रितं सुदृढचेतसा भवहरस्त्वमेवात्र यत्।।१७।।
अर्थ —हे तीनभुवन के चूड़ामणि जिनेन्द्र ! आपके लिये नमस्कार हो। संसार के भय से भीत होकर मैं आपकी शरण को प्राप्त हुआ हूँ विद्वान लोगों ने जो संसार की पीड़ा के नाश करने के लिये तत्त्व कहा है, उसका मैंने दृृढ चित्त से आश्रय कर लिया है अर्थात् अपने अंतरंग में धारण कर लिया है क्योंकि इस संसार में आप ही समस्त संसार के नाश करने वाले हो।।१७।।
-वसंततिलका-
अर्हन् समाश्रितसमस्तनरामरादिभव्याब्जनन्दिवचनांशुरवेस्तवाग्रे।
मौखर्यमेतदबुधेन मया कृतं यत् तद्भूरिभक्तिरभसस्थितमानसेन।।१८।।
अर्थ —हे अर्हन् ! सभा में बैठे हुए जो समस्त मनुष्य तथा देव आदिक भव्यजीव, वे ही हुए कमल, उनको आनंद के देने वाले हैं वचनरूपी किरण जिनके, ऐसे आप जिनदेव सूर्य के सामने जो मुझ अपंडित ने वाचालता प्रकट की है, वह अत्यंतगाढ़ जो भक्ति, उसमें स्थित मन से ही की है।
भावार्थ —इस श्लोक से आचार्य ने अपनी लघुता प्रकट की है यथा हे! जिनेन्द्र जिस प्रकार सूर्य की किरणें कमलों को आनंद देने वाली होती हैं, उसी प्रकार आपके वचनरूपी किरण भी समवसरण में बैठे हुवे समस्त मनुष्य-देव आदि भव्यजीवों को आनंद की देने वाली है इसलिये आप सूर्य के समान हैं अत: आपके आगे मै मूर्ख हूँ, आपकी स्तुति कर नहीं सकता किन्तु यह जो मैंने कुछ वचनों से वाचालता प्रकट की है, वह आपकी भक्ति से प्रेरित मन से ही की है।।१८।।
इस प्रकार श्री पद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका में
क्रियाकाण्डचूलिका नामक अधिकार समाप्त हुवा।