जीवन और मृत्यु का अनादि प्रवाह तब तक है, जब तक जीव की मुक्ति नहीं हो जाती। जो जीवन के सौन्दर्य व शित्व को पहचान लेते हैं, उनके लिए मृत्यु, मंगल महोत्सव बन जाती है। जैसे रात्रि में अरुणोदय होता है और अरुणोदय में ही रात्रि का निर्माण होता है, ऐसे ही जीवन में मृत्यु का फल लगता है और मृत्यु में जीवन का। जिनका जीवन संयम और तप आराधना में व्यतीत होता है, उन्हें मृत्यु भयकारक नहीं लगती। जिन्होंने जीवन आनन्द, अनुग्रह औ अनासक्ति में जिया है, वे मुस्कराते हुए मरते हैं। कबीर इसे कहते हैं – ‘‘ज्यों की त्यों धरी दीन्ही चदरिया’’। मुनि क्षमासागर जी ने एक कविता में कहा – मौत ने आकर। उससे पूछा- मेरे आने के पहिले वह क्या करता रहा? उसने कहा- आपके स्वागत में पूरे होश और जोश से जीता रहा। मौत ने उसे प्रणाम किया और कहा- अच्छाा जियो/अलविदा ! एक अनासक्त साधक के लिए – मौत जीवन की परीक्षा है। जीवन का मूल्यांकन करने वाली कसौटी। तभी तो मुनि क्षमासागर जी कहते हैं –
जीवन भर/ मौत हमारा इम्तिहान लेती है, एक एक सांस/ गिन गिन कर लेती और देती है।
हमने, जीवन भर क्या खोया? क्या पाया? इसका लेखा-जोखा- अंत में यही आकर तो लेती है।
जैन साधक चाहे वह व्रती श्रावक हो या साधु हो, मृत्यु को निकट जानकर सभी प्रकार के विषाद को छोड़कर समता पूर्वक देह त्याग करना समाधिमरण या सल्लेखना है। सल्लेखना है- काय व कषायों को भली तरह से कृश करने का। जब शरीर ही उसकी संयम साधना में बाधक बनने लगे तो यह सोचकर कि शरीर तो पुन: मिल सकता है लेकिन जो व्रत, संयम, धर्म मैंने धारण किये हैं वे अमूल्य निधि हैं, दुर्लभता से प्राप्त हुए हैं, इनकी सुरक्षा के लिए ऐसा प्रयास किया जाना चाहिए कि यह बारबार धारण न करना पड़े। ऐसी भावना से देहोत्सर्ग करना- सल्लेखना है। वस्तुत: सल्लेखना को साधना का अंतिम चरण माना गया है। यह जीवन भर के तप का फल है। जैसे विद्यार्थी परीक्षा में न बैठे तो वर्ष भर की पढ़ाई व्यर्थ चली जाती है, उसी प्रकार सल्लेखना पूर्वक मरण न होने पर जीवन भर की साधना का वास्तविक फल नहीं मिल पाता है। जैसे मंदिर के शिखर की शोभ उसके कलशारोहण से है, वैसे ही सल्लेखना-तप-साधना के शिखर का कलशारोहण है।
सल्लेखनागत आचार्य या साधु क्षपक कहलाता है। आ. पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में क्षपक का स्वरूप कहा है – ‘‘कर्मों के उपशमन में तत्पर, तप साधना में संलग्न चारित्रमोह को क्षपणा के लिए सन्मुख शील धारी जो साधक सन्त हैं और जो परिणामों की विशुद्धि में अग्रसर हैं, वह क्षपक कहलाता है।’’ क्षपक मुख्यत: दो कारणों से प्रेरित होकर सल्लेखना हेतु दृढ़ विचार करता है –
(१) भले ही दुर्भिक्ष आदि का भय नहीं है। लेकिन वह विचारता है कि यदि मैं इस समय भक्त प्रत्याख्यान न करूँ और आगे निर्यापकाचार्य भी कदाचित न मिले, तब मैं ‘पण्डित मरण’ की साधना से वंचित रह जाऊँगा।
(२) वह विचारता है कि जिस सम्यक्तवाराधना रूप धर्म को बहुत समय से धारण किया है, यदि मरण के समय में छोड़ दिया जावे, या कारणवश उसकी विराधना हो जाए तो वह धर्म निष्फल हो जायेगा, अस्तु कर्मों की निर्जरा के लिए सल्लेखना धारण करना योग्य है।
सल्लेखना इच्छुक यदि आचार्य क्षपक हैं, तो वह अपने गण से पूछकर उत्कृष्ट रूप से प्रवृत्ति करने के लिए दूसरे गण में जाने का विचार करता है। क्योंकि अपने गण में रहने से- आज्ञाकोप, कठोर वचन, कलह, दु:ख, स्नेह, करुणा, ध्यान विघ्न और असमाधि- ये नौ दोष होने की संभावना हो सकती है, किन्तु परगणवासी आचार्य में उक्त दोष नहीं होते। सल्लेखनाधारी आचार्य क्षपक अपनी आयु स्थिति का विचार कर शुभ दिन शुभकरण या शुभ नक्षत्र में अपने संघ को किसी गुणसंपन्न युवाचार्य के हाथों में सौंपकर, गण त्याग करने के लिए तैयार हो जाते हैं। वह संघ को त्याग करते समय जिन बाल वृद्ध मुनिजनों के साथ लम्बे समय तक रहने से उत्पन्न हुए ममत्व, स्नेह, राग अथवा द्वेष वश जो कठोर वचन कहें हों, उनके लिए क्षमा माँगता है। उस समय आचार्य क्षपक- गणी एवं गण को शिक्षा देते हुये कहते हैं कि जैसे उद्गम स्थल से छोटी नदी आगे-आगे बढ़ती हुई विस्तार को प्राप्त हो, समुद्र तक पहुँच जाती है, वैसे ही आप सभी शील व गुणों में वृद्धिगंत हों। शिक्षा देते हुए आचार्य क्षपक छह आवश्यकों के परिपालन में प्रमाद न करने को, ईर्या भाषादि पंच समितियों के पालन में तथा तीन गुप्तियों के पालन में तत्पर रहने को कहते हैं। वे कहते हैं कि दुष्ट इन्द्रियों को जीतना तथा स्पर्शादि विषय में आसक्त न होते हुए निराकुल होकर ज्ञान व चारित्र की आराधना करना। शिक्षा देने के उपरान्त, आचार्य क्षपक से भी गण के समस्त साधुजन पंचांग नमस्कार पूर्वक मन वचन काय से क्षमा माँगते हैं। समाधिमरण करने वाला क्षपक अपना गण त्यागकर परगण में समाधि हेतु गमन करता है। जिन आचार्य के सान्निध्य में क्षपक सल्लेखना लेता है, उन्हें निर्यापकाचार्य, तथा जो मुनि क्षपक की सेवा-सुश्रुषा देखभाल करते हैंं, वे परिचारक कहलाते हैं। सल्लेखनार्थी को आता देखकर बड़े वात्सल्यभाव से परगण के सधुओं को आदरपूर्वक खड़े होकर उसे ग्रहण करना चाहिए।
आगन्तुक क्षपक और परगणस्थ मुनि प्रतिलेखना द्वारा एक दूसरे के चरण यानी समिति और गुप्ति और करण यानी षडावश्यक को जानने के लिए परीक्षा करते हैं। यह ७ बातों के लिए की जाती है – प्रतिलेखन, वचन,ग्रहण, निक्षेप, स्वाध्याय, विहार और भिक्षा ग्रहण। फिर क्षपक द्वारा सहायता हेतु निवेदन करने पर परगण का आचार्य उसकी वसति- संस्तर देकर तीन रात सहायता करे और भली प्रकार परीक्षा करके संघ में स्वीकार करते हैं। क्षपक का आत्म समर्पण- क्षपक आचार्यवर से प्रार्थना करता है कि आप श्रमण संघ के निर्यापक हैं, मैं आपके सान्निध्य में रहकर श्रामण्य को उद्द्योतित करना चाहता हूँ।
हे मुनिवर क्षपक! बाह्यभ्यन्तर परिग्रह का त्यागकर तुम बिना किसी बाधा के रत्नत्रय रूप उत्तमार्थ की साधना करो और निराकुल होकर हमारे संघ में ठहरो। चित्त व्याकुल नहीं करना। हम सभी वैयावृत्यकारक अपने सहयोगियों से इस विषय में विचार करते हैं। आचार्य यह देखते हैं कि क्षपक की मिष्टाहारों में लोलुपता है या ग्लानि है? आचार्य अपने संघ के बीच क्षपक को उपदेश देते हैं – हे क्षपक! तुम सुखशीलता को त्यागकर परिषहों को सहन करते हुए चारित्र को धारण करो। अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोकना। उत्तम क्षमादि धर्मों के द्वारा कषायों पर विजय पाओ, इससे आप जितेन्द्रिय बनोगे। यद्यपि आप पूर्व अपने गण में छत्तीस मूलगुणधारी, प्राश्चित शास्त्र के ज्ञाता विद्वान आचार्य रहे हो, फिर भी अपने दोषों की आलोचना अवश्य करनी चाहिए, अन्यथा व्रतों की शुद्धि नहीं होती।
हे क्षपक! दीक्षाग्रहण से लेकर आज तक रत्नत्रय में लगे दोषों या अतिचारों को नि:संकोच होकर एकाग्रता से कहो और उनकी आलोचना करो। यदि कोई काँटे की तरह अपने दोष नहीं निकालता, वह माया-शल्य से विद्ध होकर अशान्त, दु:खी और भयभीत रहता है और सरलता से अपने दोषों को कह देता है वह निशल्य बन प्रायश्चित द्वारा आत्मा को निर्मल करते हैं। उनकी ही समाधि सिद्ध होती है। अत: हे क्षपक! माया शल्य से रहित होकर गुरु द्वारा दिये प्रायश्चित को करके पूर्ण भावशुद्धि के साथ सल्लेखना धारण करो। आचार्य के इस प्रकार के उपदेश से क्षपक अत्यन्त रोमांचित होकर समस्त दोषों का स्मरण करता है और आचार्य श्री के पादमूल में प्रायश्चित लेने को उद्यत होता है।
समाधि हेतु उद्यत क्षपक के लिए आचार्य उसके योग्य वसति में संथरा स्थापित करते हैं। संथरा पर्याप्त प्रकाश युक्त, स्थूल-सूक्ष्म जीवों से रहित, मजबूत दीवारों की कपाट सहित गांव के बाहर या किसी उद्यान आदि में हो जहाँ चतुर्विध संघ जा सके।
क्षपक का संस्तर – पृथ्वीमय, लकड़ी का फल या तृणों का बनाया जा सकता है। जिस पर पूर्व या उत्तर की ओर सिर रखकर क्षपक को आरोहण कराया जाता है। संस्तरारूढ़ क्षपक की परिचर्या का संपूर्ण दायित्व आचार्य श्री संघ के यतियों को सौंपते हैं। जो क्षपक के शरीर को दबाने, सहलाने, करवट दिलाने, उठने-बैठने -चलने में सहायता करते हैं। धर्मकथा सुनाकर क्षपक के चित्त को स्थिर करते हैं। भोजन-पान शोध कर क्षपक को आहार कराते हैं। वे मल-मूत्र को उठाने और वसति, संस्तर व उपकरणों को शोधन कार्य भी करते हैं।
निर्यापकाचार्य – पहले यह देखते हैं कि क्षपक के मन में किसी आहार विशेष की उत्सुकता तो नहीं है। अत: वह उत्तम भोजन पात्रों में अलग-अलग भोज्य सामग्री दिखाकर मनोज्ञ आहारा लेने के लिए पूछता है। क्षपकविरक्त होकर ये विषयानुराग बढ़ाने वाले हैं ऐसा सोचकर उनका त्याग करता है। परन्तु यदि क्षपक दिखाए हुए आहार के स्वादिष्ट रस में लुब्ध होकर किसी वस्तु को बार-बार खाने की इच्छा करता है तो आचार्य क्षपक के मन से सूक्ष्म शल्य निकालने के लिए विशेष उपदेश देकर आहार से विरक्त करवाते हैं। वे एक-एक आहार का दोष बताकर त्याग करवाते हैं। इसके बाद क्रमश: अशन, खाद्य और स्वाद्य पदार्थों का त्याग कराकर पानक आहार देते हैं। फिर क्षपक को आचाम्ल का सेवन कराया जाता है जो कफ क्षयकारक, पित्त शान्तकारक और वात से रक्षा करता है। पेट के मल की शुद्धि के लिए विरेचन और अनुवासन कराते हैं। फिर निर्यापकाचार्य क्षपक को संघ के मध्य चारों प्रकार के आहार का त्याग कराते हैं। आहार प्रत्याख्यान के बाद क्षपक आचार्य, शिष्य, साधर्मी और गण के सम्बन्ध में जो कषायें होती हैं, उन्हें निकाल देता है। धर्मानुराग प्रकट करते हुए हाथ जोड़ प्रणाम पूर्वक समस्त मुनिसंघ से मन वचन काया कृत-कारित-अनुमोदना से पूर्व में किये सब अपराधों की नि:शल्य होकर क्षमा माँगता है और स्वयं संघ को क्षमा कर उत्कृष्ट वैराग्य के साथ तप और समाधि में लीन होकर कर्मों की निर्जरा करता है।
(१) क्षपक को सम्पूर्ण सुख शीलता का त्याग कर परीषहों को सहने का भीतर से संकल्प रूप शक्ति बढ़ावे। सुखशील मुनि भोजन, उपकरण और वसति का शोधन नहीं करता।
(२) क्षपक को ऋषि रस और सात गारव को नष्ट करके, राग-द्वेष का मर्दन करके आलोचना से आत्म-शुद्धि करें।
(३) आचार्य के समक्ष अपने अपराध का निवेदन कर प्रायश्चित के लिए कहे। क्योंकि प्रायश्चित से चित्त की शुद्धि होती है। जैसे निपुण वैद्य रोगी होने पर दूसरे वैद्य से इलाज करवाता है उसी प्रकार प्रायश्चित विधि को जानकर भी अपनी विशुद्धि के लिए पर की साक्षी पूर्वक प्रायश्चित लेता है।
(४) क्षपक को मिथ्यादर्शन शल्य, माया शल्य, निदान शल्य अथवा भाव व द्रव्य शल्य को गुरु की साक्षी में निकाल देना चाहिए। जो मुनि शल्य सहित मरण करते हैं, वे दुर्गति में जाते हैं।
(५) जैसे बालक कार्य हो या अकार्य हो सरल भाव से कह देता है, कुछ छिपाता नहीं है। वैसे ही क्षपक मनोगत कुटिलता और वचनगत झूठ को त्यागकर अपना अपराध स्वीकार कर लेता है। निर्यापकाचार्य का क्षपक को अंतिम उपदेश (कर्ण जाप) — निर्यापकाचार्य संस्तरारूढ़ क्षपक को संसार से भय और वैराग्य उत्पन्न करने वाली शिक्षा उसके कान में देते हैं-
i मिथ्यात्व का त्याग करो। श्रुतज्ञान में सदा उपयोग लगाओ। क्रोधादि कषायों का निग्रह करो।
ii ज्ञान के बिना चित्त निग्रह नहीं होता। अत: हे क्षपक तुम ज्ञानोपयोग में चित्त को लगाओ। गुप्तियाँ पापों को रोकतीं हैं अत: तुम निरन्तर ध्यान-स्वाध्याय में रहकर त्रियोग में सावधान रहो।
iii अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह महाव्रतों की पाँच-पाँच भावनाओं को निरन्तर स्मरण करते हुए इनकी भावना भाते रहो जिससे व्रतों में दोष न लगने पावे।
iv घोर तपस्वी भी भोगों का निदान करके, अपना मुनिपद नष्ट कर संसार बढ़ता है। जैसे केले के तने में कुछ सार नहीं है ऐसे ही ये भोग है। अत: भोगों का निदान छोड़ो।
v निद्रा पर विजय प्राप्त करो।
vi सुख और शरीर में आसक्त मत होओ। तप तपो, थोड़ा भी तप वट-बीज की तरह बहुत फल देता है। उक्त शिक्षा से क्षपक का मन शान्त होकर प्रसन्नता से खिल उठता है।
क्षपक के कर्मोदय से, यदि तीव्र वेदना होवे, वह व्याकुल होकर कुछ भी बकने लगे, संयम से च्युत हो असंयम में भी भोजन पान मााँगने लगे, तो आचार्य पहिले उपचार कर वेदना दूर करने का उपाय करता है, पसीना लाना, एनिमा, लेप लगाना, मालिश, अंगमर्दन या जलसेवन आदि उपायों से वेदना शान्त करे। असंयम च्युत होते देख उसे पिछली बातों क स्मरण कराना चाहिए ताकि उसका यर्थाथ ज्ञान लौट आवे। आचार्य वात्सल्य भाव से अनुकूल उपदेश देता रहे। अतीत में तुमने परवश होकर बहुत वेदनाएँ सही तो इस समय धर्म मानकर अपनी इच्छाशक्ति से इनको सहन करो। हे क्षपक! तुमने अर्हन्तदेव की साक्षीपूर्वक व्रत लिए हैं, उन्हें भंग करना ठीक नहीं है। शरीर से ममत्त्व त्यागो। वह समभावी बने रहने के लिए बराबर प्रियवचन कहता रहे। समाधिमरण करने वाला क्षपक- प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और सामयिक (कायोत्सर्ग) करता हुआ, देह व आत्मा को पृथक-पृथक अनुभव करे। तथा क्रमश: काय व कषाय, को क्षीण करता हुआ यह विचार करे कि–
भीतर बैठे आत्मदेव हैं, काया तो मंदिर है। सामयिक में शेष रह गया, केवल अजर-अमर है।
प्राचार्य पं. निहालचंद्र जैन निदेशक, वीर सेवा मंदिर, २१ दरियागंज,
नई दिल्ली-११०००२ अनेकान्त जुलाई -सित्म. २०१३