-छप्पय छंद-
अंग क्षमा जिन धर्म तनों दृढ़ मूल बखानो।
सम्यक रतन संभाल हृदय में निश्चय जानो।।
तज मिथ्या विष मूल और चित निर्मल ठानो।
जिनधर्मी सों प्रीति करो सब पातक भानो।।
रत्नत्रय गह भविक जन, जिन आज्ञा सम चालिए।
निश्चय कर आराधना, कर्म राशि को जालिए।।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयाय नम:! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयाय नम:! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रयाय नम:! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
-अथाष्टकम्-
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।टेक।।
नीर सुगंध सुहावनो, पद्म द्रह को लाय।
जन्म रोग निरवारिये, सम्यक् रत्न लहाय।।क्षमा.।।१।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: जलं निर्वपामीति स्वाहा।
केसर चन्दन लीजिए, सग कपूर घसाय।
अलि पंकति आवत घनी, बास सुगंध सुहाय।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।२।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शालि अखंडित लीजिए, कंचन थाल भराय।
जिनपद पूजों भावसों, अक्षयपद को पाय।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।३।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगंध गुलाब।
श्रीजिन चरण सरोज वूँâ, पूज हरष चित चाव।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।४।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
शक्कर घृत सुरभी तनों, व्यंजन षट्रस स्वाद।
जिनके निकट चढ़ाय कर, हिरदे धरि आह्लाद।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।५।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हाटकमय दीपक रचो, बाति कपूर सुधार।
शोधक घृतकर पूजिये, मोह तिमिर निरवार।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।६।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागर करपूर हो, अथवा दश विध जान।
जिन चरणां ढिग खेइये, अष्ट करम की हान।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।७।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
केला अम्ब अनार हो, नारिकेल ले दाख।
अग्र धरों जिन पद तने, मोक्ष होय जिन भाख।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।८।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आदि मिलाइके, अरघ करो हरषाय।
दु:ख, जलांजलि दीजिए, श्रीजिन होय सहाय।।
क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवर वचन गहाय।।९।।
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शन-अष्टांगसम्यग्ज्ञान-त्रयोदशविधसम्यक्चारित्रेभ्य: नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
उनतिस अंग की आरती, सुनो भविक चित लाय।
मन वच तन सरधा करो, उत्तम नर भव पाय।।१।।
-चौपाई-
जैनधर्म में शंक न आनै, सो नि:शंकित गुण चित ठानै।
जप तप कर फल वांछे नाहीं, नि:कांक्षित गुण हो जिस माहीं।।२।।
परको देखि गिलान न आने, सो तीजा सम्यक् गुण ठाने।
आन देवको रंच न माने, सो निर्मूढता गुण पहिचाने।।३।।
परको औगुण देख जु ढाके, सो उपगूहन श्रीजिन भाखे।
जैनधर्म तें डिगता देखे, थापे बहुरि थिति कर लेखे।।४।।
जिनधर्मी सो प्रीति निवहिये, गऊ बच्छावत् वच्छल कहिये।
ज्यों त्यों जैन उद्योत बढ़ावे, सो प्रभावना अंग कहावे।।५।।
अष्ट अंग यह पाले जोई, सम्यग्दृष्टि कहिये सोई।
अब गुण आठ ज्ञान के कहिये, भाखे श्रीजिन मन में गहिये।।६।।
व्यंजन अक्षर सहित पढ़ीजे, व्यंजन व्यंजित अंग कहीजे।
अर्थ सहित शुध शब्द उचारे, दूजा अर्थ समग्रह धारे।।७।।
तदुभय तीजा अंग लखीजे, अक्षर अर्थ सहित जु पढ़ीजे।
चौथा कालाध्ययन विचारै, काल समय लखि सुमरण धारे।।८।।
पंचम अंग उपधान बतावै, पाठ सहित तब बहु फल पावे।
षष्टम विनय सुलब्धि सुनीजै, वानी विनय युक्त पढ़ लीजे।।९।।
जापै पढ़ै न लौपै जाई, सप्तमअंग गुरुवाद कहाई।
गुरुकीबहुतविनयजु करीजे, सो अष्टम अंग धर सुख लीजे।।१०।।
यह आठों अंग ज्ञान बढ़ावें, ज्ञाता मन वच तन कर ध्यावें।
अब आगे चारित्र सुनीजे, तेरह विध धर शिव सुख लीजे।।११।।
छहों कायकी रक्षा कर है, सोई अहिंसाव्रत चित धर है।
हितमितसत्य वचन मुख कहिये, सो सतवादी केवल लहिये।।१२।।
मन वच काय न चोरी करिये, सोई अचौर्यव्रत चित धरिये।
मन्मथ भय मन रंच न आने, सो मुनि ब्रह्मचर्य व्रत ठाने।।१३।।
परिग्रह देख न मूर्च्छित होई, पंच महाव्रत धारक सोई।
ये पाँचों महाव्रत सु खरे हैं, सब तीर्थंकर इनको करे हैं।।१४।।
मन में विकलप रंच न होई, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई।
वचन अलीक रंच नहिं भाखें, वचनगुप्तिसो मुनिवर राखें।।१५।।
कायोत्सर्ग परीषह सहि हैं, ता मुनि कायगुप्ति जिन कहि हैं।
पंच समिति अब सुनिए भाई, अर्थ सहित भाषे जिनराई।।१६।।
हाथ चार जब भूमि निहारे, तब मुनि ईर्या मग पद धारे।
मिष्ट वचन मुख बोलें सोई, भाषा समिति तास मुनि होई।।१७।।
भोजन छ्यालिस दूषण टारे, सो मुनि एषण शुद्धि विचारे।
देखके पीछी ले अरु धरि हैं, सो आदान निक्षेपन वरि हैं।।१८।।
मल मूत्र एकान्त जु डारें, परतिष्ठापन समिति संभारे।
यह सब अंग उनतीस कहे हैं, श्रीजिन भाखे गणेश गहे हैं।।१९।।
आठ आठ तेरह विध जानों, दर्शन ज्ञान चारित्र सुठानो।
तातें शिवपुर पहुँचो जाई, रत्नत्रय की यह विधि भाई।।२०।।
रत्नत्रय पूरण जब होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई।
चैत माघ भादों त्रय वारा, क्षमा क्षमा हम उरमें धारा।।२१।।
-दोहा-
क्षमावणी यह आरती, पढ़े सुने जो कोय।
कहे ‘मल्ल’ सरधा करो, मुक्ति श्रीफल होय।।२२।।
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शन, अष्टांग सम्यग्ज्ञान, त्रयोदशविध सम्यक्चारित्रेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सोरठा-
दोष न गहिये कोय, गुण गण गहिये भावसों।
भूल चूक जो होय, अर्थ विचारि जु शोधिये।।
।। इत्याशीर्वाद:।।