सर्वार्थसिद्धि अध्याय ९ के सूत्र ऩ ६ में कहा है- शरीरस्थिति हेतुमार्गणार्थं परकुलान्युपगच्छतो भिक्षोर्दुष्टजनाक्रोश-प्रहसनावज्ञा ताडनशरीर व्यापादनादीनां सन्निधानेकालुष्यानुत्पत्ति: क्षमा । शरीर की स्थिति का हेतु जो आहार उसके खोजने के लिए अर्थात आहार के लिए निकले हुए साधु परघरों में जा रहे है उस समय नग्न देखकर दुष्टजन उन्हें गाली देते है, उपहास-तिरस्कार करते है, मारते पीटते है और शरीर को पीड़ित करते , नष्ट करते है तो भी उस किसी प्रसंग में अपने परिणामों में कलुषता की उत्पत्ति न होना क्षमा है।
इस प्रकार से साधु तो पूर्ण रूप से क्षमा आदि धर्मो का पालन करते है। किन्तु श्रावक भी एकदेशरूप से इन क्षमा आदि दश धर्मों का पालन करते हैं।ये धर्म तो सभी सम्प्रदायों में मान्य हैं किसी भी सम्प्रदाय वालों को इनमें विवाद नहीं है। आचार्यों ने क्रोध को अग्नि की उपमा दी है उसे शान्त करने के लिए क्षमा जल ही समर्थ है । क्षमा में भगवान पाश्र्वनाथ का विशेष उदाहरण मिलता है जिन्होंने लगातार दस भवों तक कमठ का उपसर्ग सहकर क्षमा को नहीं छोड़ा और भगवान बन गए। जो क्षमादेवी की उपासना करके हमेशा सभी कुछ सहन कर लेता है वह उपसर्गों और परीषहों को जीतकर पाश्र्वनाथ तीर्थंकर से सदृश महान हो जाता है ।