सब कुछ अपराध सहन करके, भावों से पूर्ण क्षमा करिये।
यह उत्तम क्षमा जगन्माता, इसकी नितप्रति अर्चा करिये।
कमठासुर ने भव भव में भी, उपसर्ग अनेकों बार किया।
पर पाश्र्वप्रभू ने सहन किया, शान्ति का ही उपचार किया।।१।।
क्या बैर से बैर मिटा सकते, क्या रज से रज धुल सकता है?
क्या क्रोध से भी शान्ति मिलती, क्या क्रोध सुखी कर सकता है?
यदि अपकारी पर क्रोध करो, तो क्रोध महा अपकारी है।
इस क्रोध पे क्रोध करो बंधु, यह शत्रु महा दुखकारी है।।२।।
यह क्रोध महा अग्नि क्षण में, संयम उपवन को भस्म करे।
यह क्रोध महा चांडाल सदृश, आत्मा की शुचि अपहरण करे।।
पांडव आदि मुनियों ने भी, इस क्षमा को मन में धारा था।
मुनिगण ने सर्वंसह असि से, इस क्रोध शत्रु को मारा था।।३।।
यह क्रोध अनंत अनुबंधी, अगणित भव तक संस्कार रहे।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, छह महीने ऊपर नहीं रहे।।
यह प्रत्याख्यानावरण क्रोध, पन्द्रह दिन तक रह सकता है।
संज्वलन क्रोध अंतर्मुहूर्त, से अधिक नहीं टिक सकता है।।४।।
उदयागत क्रोध द्रव्य पुद्गल, इसको भी निज से भिन्न करूँ।
फिर निज में ही स्थिर होकर, सब भाव क्रोध को छिन्न करूँ।।
निज उत्तम क्षमा स्वभावमयी, निज को निज में पा जाऊँ मैं।
पर से सम्बन्ध पृथक् करके, निज पूर्ण सौख्य प्रगटाऊँ मैं।।५।।