अथ लघुदीक्षायां सिद्ध-योगि-शान्ति-समाधिभक्ती: पठेत्। ‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं नम:’’ अनेन मंत्रेण जाप्यं वार २१ अथवा १०८ दीयते।
अन्यच्च विस्तारेण लघुदीक्षाविधि:-अथ लघुदीक्षानेतृजन: पुरुष: स्त्री वा दाता संस्थापयति। यथा-योग्यमलंकृतं कृत्वा चैत्यालये समानयेत्, देवं वंदित्वा सर्वै: सह क्षमां कृत्वा गुरोरग्रे च दीक्षां याचयित्वा तदाज्ञया सौभाग्यवतीस्त्रीविहित-स्वस्तिकोपरि श्वेतवस्त्रं प्रच्छाद्य तत्र पूर्वाभिमुख: पर्यंकासनो गुरुश्चोत्तराभिमुख: संघाष्टकं संघं च परिपृच्छ्य लोचं।
लघु दीक्षा-क्षुल्लक दीक्षा में सिद्धभक्ति, योगिभक्ति, शांतिभक्ति और समाधिभक्ति पढ़ें।
ॐ ह्रीं……..आदि मंत्र से २१ बार या १०८ बार जाप्य करें।
इस क्षुल्लक दीक्षा विधि को विस्तार से कहते हैं-
क्षुल्लक दीक्षा दिलाने वाले पुरुष अथवा स्त्री दाता सभी क्रिया कराते हैं। पूर्व के समान गणधरवलय आदि विधान कराके यथायोग्य अलंकार से अलंकृत कर चैत्यालय-मंंदिर में लावें।
अर्हंतदेव की वंदना करके सभी के साथ क्षमायाचना करके गुरु के सामने दीक्षा की याचना करके उनकी आज्ञा से सौभाग्यवती स्त्री के द्वारा बनाये गये स्वस्तिक के ऊपर श्वेतवस्त्र प्रच्छादित कर उस पर पूर्वमुख करके पर्यंकासन से बैठे, गुरु उत्तरमुख करके बैठकर चतुर्विध संघ को पूछकर मुनिदीक्षा में कही गई विधि के अनुसार सिद्धभक्ति, योगिभक्ति पढ़ें।
क्षुल्लक दीक्षा के समय केशलोंच करना आवश्यक नहीं है अत: नाई से बाल बनवा लें या वैंâची से निकाल दें तथा बीच में व चारों तरफ थोड़े-थोड़े बाल शेष रखें, दीक्षा देते समय आचार्यदेव सर्वप्रथम केशलोंच क्रिया करते हैं उस समय मंत्रपूर्वक पाँच स्थान के केशों का लोच करते हैं।
यहाँ भी पहले दीक्षार्थी श्रावक या ब्रह्मचारी से पांडाल में जिनेन्द्र प्रतिमा का पंचामृत अभिषेक कराना चाहिए।
प्रयोग विधि-
अथ क्षुल्लकदीक्षायां लोचस्वीकारक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण भावपूजा-वन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(णमोकार मंत्र, चत्तारि मंगल, अड्ढाइज्जदीव आदि सामायिक दण्डक पढ़कर, नव बार णमोकार मंत्र जपकर, थोस्सामि स्तव पढ़कर सिद्धानुद्धूत…….पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें।
पुन:-
अथ क्षुल्लकदीक्षायां लोचस्वीकारक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं योगिभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिक दण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि पढ़कर जातिजरोरुरोग…..
पृ. ३२ से योगिभक्ति पढ़ें।)
पुन: शांतिमंत्र पढ़कर मस्तक पर तीन बार गंधोदक छिड़कें।
‘‘ॐ नमोऽर्हते भगवते श्रीमतेप्रक्षीणाशेषदोषकल्मषाय दिव्यतेजोमूर्तये नम: श्री शान्तिनाथाय शान्तिकराय सर्वपापप्रणाशनाय सर्वविघ्नविनाशनाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्वपर-कृतक्षुद्रोपद्रवविनाशनाय सर्वक्षामडामरविनाशनाय ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा अमुकस्य सर्वशान्तिं कुरु कुरु स्वाहा।’’
पुन: पृ. १० से वर्धमानमंत्र पढ़कर पवित्र भस्म लेकर ‘‘ॐ णमो अरिहंताणं रत्नत्रयपवित्रीकृतोत्तमांगाय ज्योतिर्मयाय मतिश्रुतावधिमन पर्ययकेवलज्ञानाय अ सि आ उ सा स्वाहा।’’
यह मंत्र पढ़कर दीक्षार्थी के मस्तक पर भस्म डालकर ‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अ सि आ उसा स्वाहा’’ मंत्र पढ़कर मस्तक के बीच का एक बार केशलोंच करें अर्थात् एक बार केश उखाड़ें।
पुन: ‘ॐ ह्रां अर्हद्भ्यो नम:’ मंत्र बोलकर बीच के मस्तक के केश निकालें।
पुन: ‘ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर शिर के आगे के केश निकालें।
पुन: ‘ॐ ह्रूँ सूरिभ्यो नम:’ मंत्र पढ़कर आचार्यदेव ही स्वयं दीक्षार्थी के मस्तक के दायें तरफ के केश उखाड़ें।
पुन: ‘ॐ ह्रौं पाठकेभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर मस्तक के पीछे के केश उखा़ड़ें।
पुन: ‘ॐ ह्र: सर्वसाधुभ्यो नम:’ मंत्र बोलकर गुरु दीक्षार्थी के मस्तक के बायीं तरफ के केश उखाड़ें।
यह पाँच स्थानों की मंत्र पढ़कर-केशलोंच क्रिया दीक्षागुरु आचार्य स्वयं अपने हाथ से करें। अनंतर यदि पहले केशलोंच या केश नहीं निकाले हैं तो दूसरे साधु या श्रावक पूरा केशलोंच कर देवेंं। पुन:-
अथ क्षुल्लकदीक्षायां लोचनिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकल-कर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् सामायिकदण्डक ९ जाप्य, थोस्सामि स्तव पढ़कर पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें।)
इसके बाद गुरू गर्म जल से शिष्य का मस्तक धो देवें, पुन: शिष्य गुरुभक्ति पढ़कर गुरु को नमस्कार करें।
अनंतर शिष्य-दीक्षार्थी उसी मंगल चौक पर ही खड़े होकर अपने वस्त्र, आभरण, यज्ञोपवीत आदि उतारकर उसी चौक पर खड़े ही रहकर गुरु से दीक्षा की याचना करें।
इसके बाद गुरु की स्वीकृति प्राप्त कर शिष्य उसी चौक पर पद्मासन से बैठ जावे।
गुरु शिष्य के मस्तक पर श्रीकार लिखें। अनंतर ‘‘ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं नम:’ मंत्र से पढ़-पढ़कर २१ बार या १०८ बार शिर पर लवंग या पीले पुष्प क्षेपण करते जावें।
अनंतर-
गुरु दीक्षार्थी के हाथ की अंजुलि बनवाकर उसमें केशर-कर्पूर श्रीखंड से श्रीकार-श्री: लिखें व उस श्री: के चारों तरफ-
रयणत्तयं च वंदे, चउवीसजिणं तहा वंदे।
पंचगुरूणं वंदे, चारणजुगलं तहा वंदे।।
गाथा पढ़कर सामने ३ का अंक लिखें, दाहिनी तरफ २४, पीछे ५ एवं बायीं तरफ २ का अंक लिखें। पुन:-
‘सम्यग्दर्शनाय नम:, सम्यग्ज्ञानाय नम:, सम्यक्चारित्राय नम:।’ मंत्र पढ़कर धुले तंदुल अंजली में भरकर ऊपर में नारियल व सुपाड़ी रख देवें और दो भक्ति पढ़कर व्रत देवें-
प्रयोग विधि-
अथ क्षुल्लकदीक्षायां व्रतदानक्रियायां सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् लघुदण्डक, ९ जाप्य व थोस्सामि पढ़कर पृ. २८ से सिद्धभक्ति पढ़ें) पुन:
अथ क्षुल्लक दीक्षायां व्रतदानक्रियायां योगिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिकदण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि पढ़कर पृ. ३२ से योगिभक्ति पढ़ें।) पुन:-
दंसणवयसामाइय-पोसहसचित्तराइभत्ते य।
बंभारंभपरिग्गह-अणुमणमुद्दिट्ठदेसविरदे दे।।
यह गाथा पढ़कर ११ प्रतिमा का संक्षिप्त लक्षण बतलाकर आगे लिखा पाठ पढ़कर ११ प्रतिमा के व्रत देवें-
‘‘अरहंत सिद्ध आइरिय उवज्झायसव्वसाहुसक्खियं सम्मत्तपुव्वगं सुव्वदं दिढव्वदं समारोहियं ते भवदु।’
इस पाठ को तीन बार बोलकर ११ प्रतिमा के व्रत प्रदान करें। पुन: शांतिभक्ति पढ़ें।
अथ क्षुल्लकदीक्षायां व्रतदानक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं शांतिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिकदण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि करके पृ. ३४ से शांतिभक्ति पढ़ें।)
अनंतर-
श्रीशांतिरस्तु शिवमस्तु जयोऽस्तु नित्य-
मारोग्यमस्तु तव पुष्टिसमृद्धिरस्तु।।
कल्याणमस्त्वभिमतस्तव वृद्धिरस्तु।
दीर्घायुरस्तु कुलगोत्रधनं सदास्तु।।
यह आशीर्वाद श्लोक पढ़कर दाता या यजमान या लोकव्यवहार में जिन्हें माता-पिता बनाया है, उन्हें यह दीक्षार्थी के हाथ के नारियल, सुपाड़ी, तंदुल आदि सामान दिला देवें।
गुर्वावली-‘‘अथाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे भारतदेशे……..प्रदेशे……… नगरे………….ग्रामे…………तीर्थक्षेत्रे श्रीवीरनिर्वाणसंवत्सरे २५३५ तमे……….. मासोत्तममासे……………..पक्षे………..तिथौ………..वासरे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यपरंपरायां प्रथमाचार्यश्रीशांतिसागरस्तस्य पट्टाचार्य: श्रीवीरसागरस्तस्य पट्टाचार्य: तस्य श्ष्यिोऽहं…… इत्यादि रूप से अपनी-अपनी गुर्वावली बोलें। मम अमुकनामधेयस्त्वं शिष्योऽसि।’’
पुन: गुरु अपने हाथ से ही क्षुल्लक को पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु देवें। यदि बोली होकर या पहले से निर्धारित हों जो पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु देने वाले हों, वे गुरु के हाथ में ही देवें। दीक्षादाता गुरु ही सर्वप्रथम शिष्य को पिच्छी, शास्त्र, कमण्डलु देते हैं। अनंतर क्षुल्लक को कभी भी पिच्छी परिवर्तन आदि के समय कोई भी श्रावक दे सकते हैं व उनके हाथ की पुरानी पिच्छी ले लेते हैं। यह बात बहुत ही ध्यान देने की है कि प्रथम पिच्छी, शास्त्र व कमण्डलु गुरु ही देते हैं।
पिच्छी देने का मंत्र-
ॐ णमो अरहंताणं भो: क्षुल्लक! (आर्य!, ऐलक! या क्षुल्लिके!१) षड्जीवनिकायरक्षणाय मार्दवादिगुणोपेतमिदं पिच्छोपकरणं गृहाण गृहाणेति।
ऐसा बोलकर गुरु शिष्य को दोनों हाथों में पिच्छिका देवें।
पुन: ग्रंथ प्रदान करें-
ॐ णमो अरहंताणं भो: क्षुल्लक! मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलज्ञानाय द्वादशांगश्रुताय नम:। इदं ज्ञानोपकरणं गृहाण गृहाणेति।
पुन: बाएं हाथ से गुरु शिष्य को कमण्डलु देवें-
ॐ णमो अरहंताणं भो: क्षुल्लक! रत्नत्रयपवित्रीकरणांगाय बाह्याभ्यंतरमल-शुद्धाय नम:, इदं शौचोपकरणं गृहाण गृहाणेति।
इसके बाद समाधिभक्ति पढ़ें-
अथ क्षुल्लकदीक्षाक्रियानिष्ठापनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावन्दनास्तवसमेतं सिद्धभक्त्यादिकं कृत्वा तद्धीनाधिकदोषविशुद्ध्यर्थं आत्मपवित्रीकरणार्थं समाधिभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहम्।
(पूर्ववत् सामायिकदण्डक, ९ जाप्य, थोस्सामि पढ़कर पृ. ३८ से समाधिभक्ति पढ़ें।)
अनंतर नवदीक्षित क्षुल्लक दीक्षा चौक से उठकर पहले पिच्छी लेकर गवासन से बैठकर आचार्यदेव-दीक्षागुरु को नमोऽस्तु करें पुन: सभी मुनि-आर्यिका आदि को यथायोग्य नमोऽस्तु, वंदामि करके क्षुल्लकों को इच्छामि करें।इसके बाद अगले दिन आहार से पूर्व जैसे मुनिदीक्षा में मुखशुद्धि बताई गई है उसी विधि से आचार्य मुखशुद्धि कराकर आहार करावें।अनंतर उसी पक्ष या अगले पक्ष में व्रतारोपिणी क्रिया में ‘श्री गौतम गणधर देवकृत’ श्रावक प्रतिक्रमण पढ़कर व्रतारोपण विधि करके नवदीक्षित क्षुल्लक को कोई न कोई बृहत्पल्य या जिनगुणसंपत्ति आदि व्रत देवें।