गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के क्षुल्लिका दीक्षा प्रदाता गुरु आचार्य श्री देशभूषण महाराज का परिचय
लेखिका-ब्र. कु. इन्दू जैन
(संघस्थ-गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी)
बीसवीं शताब्दी में दिगम्बर मुनि परम्परा को जीवन्त करने का श्रेय चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज को जाता है। उन महातपस्वी, युगपुरुष के सप्तऋषि के समान सात शिष्यों में से एक शिष्य मुनि पायसागर महाराज हुए, जिन्हें पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज के समय ही कतिपय समाज द्वारा आचार्यपद प्रदान किया गया था।
उन आचार्य पायसागर महाराज के शिष्य पूज्य जयकीर्ति जी महाराज थे, जिनके शिष्य आचार्यरत्न श्री देशभूषणजी महाराज हुए हैं, जिन्होंने बीसवीं शताब्दी की प्रथम बालसती, प्रथम क्वाँरी कन्या कु. मैना को सन् १९५३ में महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर क्षुल्लिका दीक्षा देकर वीरमती के रूप में जिनशासन को एक अमूल्य निधि प्रदान की।
आत्मानुसंधान में संलग्न ज्योतिपुरुष आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज का जन्म दक्षिण भारत के बेलगाँव (कोथली) कर्नाटक मार्गशीर्ष शु. २, सन् १९०५ में हुआ। सत्यवादिता, धर्मपरायणता के लिए दूर-दूर तक ख्याति प्राप्त सुप्रतिष्ठित श्रावक श्री सत्यगौड़ा पाटिल आपके पिता तथा श्रीमती अक्कादेवी आपकी माता थीं।
अपने एकमात्र पुत्र बालगौंडा को वे बालप्पा कहकर सम्बोधित करते थे किन्तु शायद बालगौंडा के भाग्य में मातृवत्सलता का संयोग नहीं था अत: तीन मास के उपरान्त ही माता अक्कादेवी ने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया। मातृस्नेह से वंचित इस बालक के लालन-पालन का भार पिता के ऊपर आ पड़ा, पुन: बालप्पा की नानी ममता से परिपूर्ण हो उन्हें अपने घर ले गईं और उन्हें इतना स्नेह दिया कि बालक को कभी भी माता के अभाव की अनुभूति नहीं हुई।
५-६ वर्ष की उम्र में पिता ने विद्याध्ययन हेतु उन्हें वहाँ से लाकर गुरु की शरण में भेज दिया और माता सरस्वती की विशेष पूजा पूर्वक बालगौड़ा के विद्यार्थी जीवन का शुभारंभ हुआ।
विद्याध्ययन के क्षेत्र में बालगौड़ा
एक मेधावी छात्र के रूप में प्रतिष्ठित हुए और अपनी विशेष साधना, श्रम प्रतिभा एवं एकाग्रता के बल पर सभी विद्याओं पर विशेषाधिकार कर लिया। अध्ययन के साथ खेलकूद में उनकी विशेष अभिरुचि थी। १२ वर्ष की अवस्था में यह पिता की एकमात्र वात्सल्य छाया और संरक्षण से भी वंचित हो गए अत: विद्या से अनुराग होते हुए भी विद्यालयीय अध्ययन नहीं कर सके, फिर भी पिता की मृत्यु के बाद कन्नड़ और मराठी भाषाओं का स्वाध्याय नियमित रखा।
उधर पिता को मृत्यु का पूर्वाभास हो जाने से उन्होंने अपने एकमात्र पुत्र के भावी संरक्षण हेतु अपने भाई जिनगौड़ा पाटिल पर बालगौड़ा के अभिभावकीय संरक्षण का भार व निज संपत्ति सौंप दी, अग्रज भ्राता के अनुरोध को शिरोधार्य कर जिनगौड़ा ने भी बालक को अपना स्नेहपूर्ण संरक्षण प्रदान किया।
शारीरिक सुडौलता व स्वास्थ्य के प्रति सजग, ओजस्वी व्यक्तित्व वाले बालक बालगौड़ा की गाँव में एक प्रभावशाली टोली थी। प्राय: देखा जाता है कि माता-पिता के वांछित स्नेह से वंचित बालक में शरारत एवं उत्पात की प्रवृत्तियाँ सहजत: आ जाती हैं, यही बालक बालगौड़ा के साथ हुआ, उनकी स्वच्छन्दतापूर्ण प्रवृत्ति से तंग आकर उनकी बुआ उन्हें अपने गाँव ले गर्इं और लालन-पालन किया किन्तु नाटक इत्यादि में रुचि रखने वाले बालगौड़ा ने धीरे-धीरे अपनी नाटक और भजनमण्डली बनाई जो आध्यात्मिक गीतों को द्वार-द्वार पर जाकर गाया करती थी। सुरीले स्वर से सभी को आकर्षित करने वाले बालगौड़ा मनमौजी, करुणाभावी एवं सरल हृदयी थे, उनके इस भोलेपन का अनुचित लाभ उठाकर लोग उनके कर्ज लेकर कभी वापस नहीं करते थे और वे कभी दबाव भी नहीं डालते थे।
इनका शरीर बचपन से ही हुष्ट-पुष्ट एवं स्वस्थ था। वे एक लोटा घी, आधा सेर गुड़, तीन सेर दूध तथा ४ कच्चे नारियल एक साथ ग्रहण कर लेते थे। ढ़ाई मन का बोरा हो या पानी के ७ घड़े, एक साथ पीठ पर रखकर चला करते थे। शारीरिक शक्ति के साथ-साथ उनके अंदर असाधारण शौर्य एवं निर्भीकता का भाव होने से किन्हीं परिस्थितियों में कभी नहीं डरते थे, इसीलिए एक बार साथियों द्वारा शर्त लगाने पर वे रात्रि में श्मशान जाकर शर्त जीत गए थे। वास्तव में जीवन में महान कार्य करने वाले कभी किसी भी परिस्थिति में धैर्य से विचलित नहीं होते हैं।
शक्ति सम्पन्न, धनाढ्य, परोपकारी बालगौड़ा
अपने चरित्र के विकास में सदैव सावधान रहा करते थे और दूसरों का उपकार करने के बाद भी कभी प्रशंसा की वांछा नहीं रखते थे। वस्तुत: आत्मसिद्ध महापुरुष कभी भी किसी कृतज्ञता ज्ञापन एवं सराहना की अपेक्षा नहीं रखते। आचार्यश्री के चारित्र की यह जन्मजात विशेषता रही कि वे आत्मप्रशंसा के प्रति सदैव उदासीन रहे।
उनके पूर्वजों का वंश राजवंश था। क्षत्रियवंशी चतुर्थ जैन जाति में उत्पन्न बालगौड़ा का चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर महाराज के परिवार के साथ पारिवारिक संबंध रहा है। जब बालगौड़ा ६ वर्ष के थे तब चारित्रचक्री गुरुवर ने क्षुल्लकावस्था में उनके घर में आहारादि ग्रहण किया और इस होनहार बालक के विकास की मंगल कामना की थी।
चूँकि ये प्रारंभिक जीवन से ही नाटकों में अभिनय करते हुए परमहंस सन्यासी शुकदेव मुनि के अभिनय को अपने जीवन में गहराई से उतार चुके थे अत: उनका मन वैराग्य की ओर अग्रसर होने लगा और उसे वृद्धिंगत होने में एक घटना कारण बनी, वह थी उनकी नवविवाहिता रूपलावण्य से परिपूर्ण चाची की कुए में गिरकर मृत्यु का होना।
मृत्योपरान्त शरीर के अंदर माँस-मज्जादि घृणित पदार्थों को देखकर उनके वैरागी मन को गहरा आघात पहुँचा और तब से उन्होंने जीवनपर्यन्त साधनामय जीवन व्यतीत करने का संकल्प ले लिया। संयोगवश कोथली में परमपूज्य आचार्यश्री पायसागर जी महाराज का मंगल प्रवेश हुआ। बालगौड़ा की दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा होने के बाद भी वे अपने साथियों की शरारत के कारण महाराज के निकट न जा सके।
परन्तु उनका वैरागी मन आचार्य पायसागर जी एवं उनके प्रवचनों पर मंत्रमुग्ध हो चुका था। एक बार गाँव में मुस्लिमों द्वारा दिगम्बर मुनि के अभिनय को भ्रष्ट तरीके से प्रस्तुत किया गया, जिसे देख रोष से भरे बालगौड़ा ने गाँव के पाटिल की हैसियत से उन व्यक्तियों की प्रताड़ना कर उन्हें गाँव से निर्वासित करने का आदेश दे दिया।
इस घटना से दिगम्बर मुनियों के प्रति उनका अपनत्व भाव जागृत होता गया और वे सारे संकोच तोड़कर अपनी काकी के साथ निकटवर्ती गलतगा गाँव में आचार्यश्री पायसागर जी महाराज के दर्शन हेतु पहुँच गए। उनके चरण कमल की वंदना कर उन्होंने महाराज श्री के आदेश से सप्तव्यसनों का त्यागकर, अष्टमूल गुणों को ग्रहणकर अपने जीवन को मुक्तिमार्ग की तरफ बढ़ाने का संकल्प लिया। उस दिन उन्हें अपने जीवन में प्रथम बार अद्भुत आल्हाद एवं आत्मसंतोष की अनुभूति हुई और उनके जीवन में अद्भुत परिवर्तन आ गया।
उनका उद्धत एवं शरारती मन अब एक संस्कृति निष्ठ श्रद्धालु श्रावक के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसे देख सारा गाँव विस्मित था।
स्तवनिधि में मंगल प्रवेश
महाराज के शिष्य महामुनि श्री जयकीर्ति जी का कोथली के निकटवर्ती स्तवनिधि में मंगल प्रवेश हुआ। आत्मकल्याण की कामना से उनके दर्शनार्थ जाने वाले बालगौड़ा का संबंध महाराज से निरन्तर प्रगाढ़ होता गया और बाल्यकाल में ही उन्होंने महाराज जी से दैगम्बरी दीक्षा के लिए अनुरोध किया, उस समय महाराज ने उन्हें स्वाध्याय की प्रेरणा देकर अपने शिष्य के रूप में धर्मग्रंथों का अध्ययन कराना प्रारंभ कर दिया। बालगौड़ा ने भी एक विनीत शिष्य के रूप में अपने को पूज्य मुनि श्री जयकीर्ति जी के चरणों में निष्ठा के साथ समर्पित कर दिया और यहीं से उनके आध्यात्मिक विकास का शुभारंभ हुआ।
भगवान पार्श्वनाथ की मोक्षस्थली सम्मेदशिखर के स्वर्णभद्र कूट पर वैराग्य अनुभूतियों से अभिभूत होकर बालगौड़ा ने आचार्यश्री जयकीर्ति महाराज से मुनिदीक्षा हेतु प्रार्थना की। आचार्यश्री उनकी मनस्थिति एवं वैराग्य भाव से परिचित थे अत: उन्हें छट्ठी प्रतिमा के व्रत देकर त्याग के अभ्यास की प्रेरणा दी। बालगौड़ा का मन अब संसार से विरक्त होने लगा। साधना को विकसित करने के लिए उन्होंने अपनी आवश्यकताओं पर अंकुश लगाना प्रारंभ किया और पहनने के उत्तरीय और अधोवस्त्र रखकर अन्य वस्त्रों का आजीवन त्याग कर दिया।
तब आचार्यश्री ने उन्हें रामटेक में मुनि दीक्षा प्रदान करने की बात कही, तब विद्युत्गति से चारों ओर गए समाचार से उस समय हजारों की भीड़ एकत्रित हो गई क्योंकि उस समय मुनिदीक्षा का होना विरली बात थी। उस समय ब्र. बालगौड़ा की अल्पायु जान समाज के प्रतिनिधियों ने आचार्यश्री से इतनी छोटी अवस्था में मुनिदीक्षा न देने का निवेदन किया।
समाज के प्रतिनिधियों की भावना को देखते हुए आचार्यश्री जयकीर्ति जी ने उन्हें चतुर्विध संघ के समक्ष समारोहपूर्वक ऐलक दीक्षा दे दी और आध्यात्मिक नामकरण ‘देशभूषण’ कर दिया।
कुंथलगिरि में मुनि दीक्षा
श्री देशभूषण महाराज ने अपने साधनामय जीवन को उज्ज्वल बनाने के लिए मुनियों के कठोर व्रतों का आचरण एवं अभ्यास प्रारंभ कर दिया। वस्तुत: मुनिदीक्षा ग्रहण से पूर्व ही उन्होंने अपनी साधना एवं आचरण से वैराग्य की ऊँचाइयों का स्पर्श कर लिया था, इसीलिए आचार्यश्री जयकीर्ति जी जैसे विलक्षण तपस्वी एवं साधक ने इन्हें फाल्गुन शु. १५, ८ मार्च १९३६ को कुंथलगिरि में मुनि दीक्षा प्रदान करके जैन धर्मानुयायियों को एक गतिशील धर्मचक्र प्रदान कर दिया।
आचार्यरूप में श्री देशभूषण जी के कुशल नेतृत्व से प्रभावित होकर महानगरी दिल्ली की जैन समाज ने आपको आचार्यरत्न की गौरवपूर्ण पदवी से समलंकृत किया तथा सन् १९८१ में भगवान बाहुबली सहस्राब्दि समारोह के अवसर पर उन्हें दिगम्बर मुनि संतों एवं लाखों श्रावक-श्राविकाओं के सम्मुख ‘सम्यक्त्व चूड़ामणि’ की उपाधि से विभूषित किया गया।
उत्तर भारत के चातुर्मासों में आचार्यश्री का अधिकांश समय साहित्य समाराधना, पदयात्रा, भव्य एवं विशाल मंदिरों की रूपरेखा के निर्धारण धर्मदेशना, लोककल्याण की योजनाओं को दिशा देना, समाज सुधार एवं लोकल्याण के कार्यों में व्यतीत हुआ। एक धर्माचार्य के रूप में आपने ५१ वर्षीय धर्मसाधना में भारतवर्ष के अधिकांश भाग की पदयात्रा करके धर्म का जो अलख जगाया है, वह अविस्मरणीय है।
आपने अपने वरदहस्त से लगभग १०० कल्याणकारी दीक्षाएँ दीं, जिसमें से सन् १९५३ में श्री महावीर जी अतिशय क्षेत्र पर ब्र.कु मैना को क्षुल्लिका दीक्षा देकर ‘‘वीरमती’’ नाम प्रदान किया। इसके बाद क्षुल्लिका वीरमती जी ने सन् १९५५ में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की आज्ञा से एवं श्री देशभूषण जी महाराज से भी आज्ञा लेकर सन् १९५६ में पूज्य आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।
आचार्यश्री जयकीर्ति महाराज ने आपकी वैराग्यवृत्ति एवं धर्माचरण से संतुष्ट होकर आपको पृथक् संघ बनाकर धर्मप्रभावना की अनुमति दी और स्वयं सम्मेदशिखर की ओर विहार किया, उस समय मुनि देशभूषण जी ने श्रवणबेलगोला को अपनी साधनास्थली बना लिया।
इन्हीं दिनों गुरु की समाधि का समाचार सुनकर उन्होंने गुरु के दिव्य गुणों का स्मरण कर उनके द्वारा की गई धर्मप्रभावना को अपना आदर्श मानकर दक्षिण व निकटवर्ती प्रदेशों में पदयात्राएँ आरंभ कीं। युवावस्था में मुनि धर्म का निर्दोष पालन करते देख समाज में एक वैचारिक क्रान्ति प्रारंभ हो गई।
आचार्यपद
आचार्य देशभूषण महाराज पूज्य आचार्य श्री शांतिसागर महाराज, दादा धर्मगुरु पायसागर महाराज एवं दादागुरु के साथ दीक्षित अन्य मुनियों को अपना आदर्श पुरुष मानते थे। आचार्यश्री शांतिसागर जी ने दिगम्बर जैनधर्म एवं संस्कृति की रक्षा के लिए जब आजन्म अन्नाहार का त्याग कर दिया था उस समय देशभूषण महाराज ने जनजागरण एवं आचार्य महाराज के महान संकल्प के प्रति रचनात्मक श्रद्धांजलि देने की भावना से स्वयं भी एक सुदीर्घ अवधि तक अन्नाहार का त्याग कर दिया था।
इस संबंध में विशेषरूप से यह स्मरणीय है कि श्री देशभूषण जी ने सन् १९४८ में ‘आचार्यपद’ के गुरुतर दायित्व को ग्रहण करने से पूर्व सूरत (गुज.) की जैन समाज से स्पष्टरूप में कह दिया था कि मैं अपने दादा धर्मगुरु श्री पायसागर जी की अनुमति एवं आशीर्वाद के बिना कभी भी इस दायित्व को ग्रहण नहीं करूँगा। उनके दृढ़ संकल्प के सम्मुख नतमस्तक होकर सूरत की जैन समाज ने आचार्यश्री से सहर्ष अनुमति लाकर उन्हें आचार्यपद पर अभिषिक्त किया था।
भगवान महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव की परिकल्पना उनके मन में ३० वर्ष पूर्व जागृत हुई और इसे भव्य एवं विराट रूप देने के लिए उद्यत आचार्यश्री ने श्वेताम्बर समाज की आदारांजलि को हर्ष के साथ ग्रहण किया और चारों सम्प्रदायों की संयुक्त बैठक से महोत्सव की रूपरेखा निर्धारित की।
उस समय २५००वाँ निर्वाण महोत्सव आशातीत सफलता के साथ सम्पन्न हुआ। ८ दिसम्बर सन् १९७४ में जैन बालाश्रम, दरियागंज में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज एवं आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के तृतीय पट्टाचार्य आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज के सानिध्य में मुनि दीक्षा का भव्य आयोजन हुआ, उस समय आचार्य देशभूषण महाराज ने आर्यिका ज्ञानमती माताजी की आगमोक्त चर्या, अनुपमेय व्यक्तित्व एवं कृतित्व को देखते हुए उन्हें ‘‘आर्यिकारत्न’’ एवं ‘‘न्याय प्रभाकर’’ के गौरव से अलंकृत किया।
आचार्यश्री की पावन प्रेरणा से शाश्वत तीर्थ अयोध्या के कटरा मंदिर में सन् १९५२ मेें श्री आदिनाथ, भरत, बाहुबली की प्रतिमाओं का पंचकल्याणक सम्पन्न हुआ। पूज्य आचार्य श्री की प्रेरणा से रायगंज स्थित दि. जैन मंदिर में विराजमान भगवान ऋषभदेव की ३१ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा आज जैनत्व की शान है। जैन संस्कृति के संरक्षक, भारतगौरव दिगम्बराचार्य आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज ने ८८ वर्ष की अवस्था में ज्येष्ठ शु. १, २८ मई १९८७, गुरुवार को शांतिगिरि कोथली (चिकोड़ी-कर्नाटक) में अत्यन्त शांतिपूर्वक समाधिमरण को प्राप्त किया और एक दिव्यात्मा अपनी दिव्यप्रभा को आलोकित करती हुई मोक्षपथ में आगे बढ़ चली। ऐसे महान गुरुवर को कोटिश: वंदन।