अक्षीणमहानसिक और अक्षीणमहालय।
अक्षीण महानसिक – जिस ऋद्धि के प्रभाव से मुनि के आहार के बाद शेष भोजनशाला में रखे हुए अन्न में से जिस किसी भी प्रियवस्तु को यदि उस दिन चक्रवर्ती का सम्पूर्ण कटक भी खावे, तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होती है।
अक्षीणमहालय – जिस ऋद्धि के प्रभाव से समचतुष्कोण चार धनुषप्रमाण क्षेत्र में असंख्यात मनुष्य-तिर्यंच समा जाते हैं, वह अक्षीणमहालय ऋद्धि है। घोराघोर तपश्चरण करने वाले मुनियों के ये ऋद्धियाँ प्रगट हो जाया करती हैं। गणधर देव के ये ऋद्धियाँ तत्क्षण ही उत्पन्न हो जाया करती हैं। ये ऋद्धियाँ भावलिंगी मुनियों के ही प्रगट होती हैं, अन्यों के नहीं हो सकती हैं।