पद्म द्रह और शिखरी पर्वत पर स्थित महापुण्डरीक द्रह से निकली हुई तीन-तीन महानदियाँ तथा शेष द्रहों से निकली हुई दो-दो नदियाँ कही गई हैं।।१४६।। गंगानदी पद्म द्रह के पूर्व तोरणद्वार से निकलकर पाँच सौ योजन प्रमाण पूर्व की ओर जाकर गंगाकूट को न पाकर अर्ध योजन पूर्व से दक्षिण की ओर मुड़ जाती है। पुनः पाँच सौ तेईस योजन और अर्ध कोश से अधिक आगे जाकर हिमवान् पर्वत के अन्त में वृषभाकार मणिमय उत्तम कूट (नालि) के मुख से प्रवेश करके सौ योजन ऊँचे से चन्द्र के समान धवल गंगानदी की धारा नीचे गिरती है।। १४७-१४९।। विशेषार्थ—यहाँ पर्वत के ऊपर दक्षिण की ओर जो गंगा नदी का ५२३-१/८ योजन प्रमाण जाना बतलाया गया है उसका कारण यह है कि गंगा नदी पर्वत के ठीक मध्य में से जाती है। अतएव पर्वत के विस्तार (१०५२-१२/१९ यो.) में से नदी के विस्तार (६-१/४ यो.) को घटाकर शेष को आधा करने पर दक्षिण की ओर जाने का उपर्युक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है—१०५२-१२/१९ – ६—१/४ ´ २ · ५२३-२९/१५२। नाली का विस्तार छह योजन एक कोश, आयाम दो कोश और इतना ही उसका बाहल्य भी जानना चाहिए।।१५०।। नाना मणियों एवं रत्नों के परिणामरूप यह नाली चूँकि सींग, मुख, कान, जिह्वा, नयन और भ्रू आदिकों से गौ के सदृश है, इस कारण उसका नाम ‘वृषभ’ है।।१५१।। इसके आगे निषध पर्वत पर्यन्त उक्त वृषभाकार नाली का विस्तारादि उत्तरोत्तर दुगुणा-दुगुणा जानना चाहिए।।१५२।। निषध पर्वत से आगे रत्नसमूह से निर्मित उक्त नालियों के विष्कम्भ, आयाम और बाहल्य का प्रमाण उत्तरोत्तर आधा-आधा हीन कहा गया है।।१५३।। गंगानदी हिमवान् पर्वत से जहाँ गिरी है वहाँ पृथ्वीतल पर सब ओर से गोल दश योजन गहरा कुण्ड है।१५४।। गंगा नदी की धारा से दशगुणे (६-१/४ ² १० · ६२-१/२ यो.) विस्तार वाले उक्त कुण्ड के ठीक बीच में रत्नों से विचित्र आठ योजन विस्तृत द्वीप है।।१५५।। धवल जल से ऊपर दो कोश उँचे उस महाद्वीप के बहुमध्य भाग में उत्तम वङ्कामय पर्वत कहा गया है।।१५६।। यह पर्वत दश योजन ऊँचा और मूल में चार योजन, मध्य में दो योजन तथा ऊपर एक योजन आयाम (विस्तार) वाला कहा गया है।।१५७।। उसके मध्य भाग में सुवर्ण व रत्नों के परिणामस्वरूप एवं मणिगणों से प्रकाशमान खम्भों से सहित गंगाकूट नामक दिव्य प्रासाद है।।१५८।। नवीन चम्पक की गन्ध से व्याप्त और सम्पूर्ण चन्द्रमा के समान किरणसमूह से सहित वह प्रासाद दो हजार धनुष ऊँचा व अढ़ाई (हजार) धनुष विस्तीर्ण है (ति. प. ४-२२५ और त्रि. सा. ५८८ में इसका विस्तार मूल में ३०००, मध्य में २००० और ऊपर १००० धनुष प्रमाण बतलाया गया है)।।१४९।। सूर्यमण्डल के सदृश उसका रत्नमय उत्तम दिव्य द्वार चालीस धनुष प्रमाण विस्तीर्ण और अस्सी धनुष उन्नत है।।१६०।। उत्तम वेदी से वेष्टित, चार गोपुरों से मण्डित और दिव्य वनखण्डों से युक्त उस अतिशय रमणीय प्रासाद में गंगादेवी निवास करती है।।१६१।। वहाँ भवन के ऊपर स्थित जिनप्रतिमा से युक्त उन्नत कूटशिखर पर वह गंगानदी की धारा पच्चीस योजन विस्तृत होकर गिरती है।।१६२।। निषधपर्वत पर्यन्त उत्तम कुण्ड, कुण्डद्वीप, कुण्डनग और विशाल कुण्डप्रासाद, ये सब दूने-दूने जानने चाहिए।।१६३।। उक्त गंगादिक कुण्डों का विस्तार क्रम से बासठ योजन दो कोश, एक सौ पच्चीस योजन, दो सौ व अर्ध सौ (अढ़ाई सौ) तथा पाँच सौ योजन प्रमाण जानना चाहिए।।१६४।। कुण्डस्थ द्वीपों का विस्तार क्रमशः आठ, सोलह, बत्तीस और चौसठ योजन; तथा उनमें स्थित शैलों की ऊँचाई क्रमशः दश, बीस, चालीस और अस्सी योजन प्रमाण है।।१६५।। उक्त शैलों का मूल विस्तार क्रम से चार, आठ, सोलह और बत्तीस योजन; तथा मध्य विस्तार दो, चार, आठ और सोलह योजन है।।१६६।। नदीकुण्डस्थ उक्त पर्वतों का विस्तार उन्नत शिखरों पर नियम से एक, दो, चार और आठ योजन प्रमाण कहा गया है।।१६७।। गंगादिक नदियों की धारा का विस्तार क्रम से पच्चीस, पचास, सौ और दो सौ योजन प्रमाण जानना चाहिए। १६८।। हिम, कुन्दपुष्प, मृणाल और शंख जैसे वर्ण वाले गंगादिक नदियों के धारापतनों की दीर्घता उत्तरोत्तर एक सौ, दो सौ और चार सौ योजन प्रमाण है।।१६९।। नदीकुण्डस्थ पर्वतोें के ऊपर स्थित सब ही प्रासाद वेदीसमूह से सहित, उत्तम तोरणों से मण्डित, अतिशय रमणीय हैं।।१७०।।