(श्री गौतम स्वामी प्रणीत गणधरवलय मंत्र पर आधारित)
(हिन्दी पद्य-गणिनी ज्ञानमती विरचित)
-चौबोल छंद-
‘‘णमो जिणाणं’’ घातिकर्मजित, ‘‘जिन को ’’ नमस्कार होवे।
सर्व कर्मजित सब सिद्धों को, नमस्कार भी नित होवे।।
कहें ‘‘देशजिन’’ सूरि पाठक, साधूगण इंद्रियविजयी।
रत्नत्रय से भूषित नित ये, इन सबको भी नमूं सही।।१।।
‘‘ओहिजिणाणं णमो‘‘ सदा देशावधिधारी मुनिगण को ।
सदा ‘‘णमो परमोहिजिणाणं’’ परमावधिधारी मुनि को।।
सदा ‘‘णमो सव्वोहिजिणाणं’’सर्वावधिधारी मुनि को।
नमूं भावभक्ती से अवधिज्ञान-ऋद्धियुत मुनिगण को।।२।।
‘‘णमो अणंतोहिजिणाणं’’ है अनंत अवधि जिनकी।
ऐसे अनंत अवधिधारी, जिनवर केवलज्ञानी ही।।
अंतरहित-मर्यादरहित, ज्ञानी सब ऋद्धि विभूषित हैं।
अंतातीत ज्ञान सुख हेतु, नितप्रति उनको वंदूँ मैं।।३।।
‘‘णमो कोट्ठबुद्धीणं’’ ज्यों, कोठे में धान्य प्रभिन्न रहें।
बुद्धि कोष्ठ में अगणित वर्षों, सभी ज्ञान त्यों भिन्न रहें।।
ज्ञानधारणा की वृद्धि से, कोष्ठऋद्धि प्रगटित होवे।
उन ऋद्धीयुत ऋषि को प्रणमूँ, मम बुद्धी विशुद्ध होवे।।४।।
‘‘णमो बीजबुद्धीणं’’ संख्यों, शब्द के अर्थ अनंत कहें।
तत्संबंधित अनंतलिंगरूप, भी बीजपदादि कहे।।
बीज ऋद्धियुत भावश्रुतों से, सब पदार्थ को ग्रहण करें।
ऐसे ऋद्धि सहित गणधर को, नमूँ सर्व अज्ञान हरें।।५।।
‘‘णमो पदाणुसारीणं’’ यह ऋद्धि पद का अनुसरण करे।
अनुसारी प्रतिसारी बुद्धि, उभयसारि त्रय भेद धरे।।
बीजपदों से उपरिम जानें, अधस्तनों को उभयों को।
जाने ऋद्धि पदानुसारी, वंदूँ उन ऋद्धीयुत को।।६।।
‘‘णमो संभिण्णसोदाराणं’’ मुनिवर जिससे पृथक्-पृथक्।
श्रोत्रेन्द्रिय से अक्षर अनअक्षर भाषा समझें युगपत्।।
संख्यातों भाषा युत जिनवर, दिव्यध्वनी को ग्रहण करें।
मुनि संभिन्न श्रोतृऋद्धी युत, उनको हम नित नमन करें।।७।।
‘‘णमो सयंबुद्धाणं’’ जो मुनि स्वयंबुद्ध हो साधु बनें।
‘‘णमो पत्तेयबुद्धाणं’’ प्रत्येक बुद्ध जो साधु बनें।।
सदा ‘‘णमो बोहियबुद्धाणं’’ संबोधित हो दीक्षा लें।
इन ऋद्धीयुत ऋषिगण को मैं, वंदूँ कर्म कलंक टलें।।८।।
‘‘णमो उजुमदीणं’’ ऋजुमति ऋद्धि मनःपर्ययधारक।
सरल मनोवचकाय अर्थ को, जानें उन्हें नमूँ सांप्रत।।
‘‘णमो विउलमदीणं’’ मुनि, जो विपुलमती ज्ञानधारक।
कुटिल मनो वच काय अर्थ को, जानें उन्हें नमूँ नितप्रति।।९।।
‘‘णमो दसपुव्वीणं’’ जो मुनि दशपूर्वों तक पढ़ते हैं।
विद्या के प्रलोभ से च्युति, नहिं वे अभिन्न दसपूर्वी हैं।।
सदा ‘‘णमो चउदसपुव्वीणं’’ चौदह पूर्व धरें श्रुतधर।
श्रुतकेवलि मुनि को प्रणमूं मम, ज्ञान प्रगट हो सकल विमल।।१०।।
‘‘णमो अट्ठंगमहाणिमित्त- कुशलाणं’’ ऋषिवर्य महान्।
अंग स्वप्न व्यंजन स्वर लक्षण, छिन्न भौम नभ आठ प्रधान।।
जो इनसे शुभ अशुभ जानते, वे निमित्तज्ञानी गुरुवर।
इस ऋद्धीयुत उन मुनिगण को, नमूँ हमें वे हों शुभकर।।११।।
‘‘णमो विउव्वइड्ढिपत्ताणं’’ विक्रिय ऋद्धि सहित संयत।
अणिमा महिमा लघिमा प्राप्ती, वशित्व अरु प्राकाम्य ईशित।।
कामरूपिता आठ भेदयुत, धरें विक्रिया ऋद्धी जो।
उनको वंदूं भक्ति भाव से, स्वात्मलाभ हो झट मुझको ।।१२।।
‘‘णमो विज्जाहराणं’’ मुनिवर, तपविद्या से भूषित हैं।
पढ़कर विद्यानुप्रवाद को, संयत भी विद्याधर हैं।।
नहिं उपयोग करें विद्या का, ऋद्धि सहित मुनिराज महान् ।
सम्यक् विद्या प्राप्ती हेतु, नितप्रति उनको करूं प्रणाम।।१३।।
‘‘णमो चारणाणं’’ चारणमुनि, जल तंतु फल पुष्प सु बीज।
इन पर चलते, जंघा, श्रेणी, नभ आलंबन करें यतीश।।
फिर भी जल आदिक जंतु को, बाधा नहिं होती किंचित्।
आठ भेद बहु भेद सहित, चारण ऋद्धीश्वर नमूं सतत।।१४।।
‘‘णमो पण्णसमणाणं’’ प्रज्ञा, चार प्रकार कहें मुनिजन।
औत्पत्तिक वैनयिक कर्मजा, स्वाभाविक बुद्धी उत्तम।।
इन चारोंं प्रज्ञायुत साधू, श्रुतपारंगत ऋद्धि सहित।
नमूँ सदा बहुभक्तिभाव से, मुझ में प्रज्ञा हो प्रगटित।।१५।।
‘‘णमो आगासगामीणं’’ जो मुनि आकाश गमन करते।
ढाईद्वीप में इच्छित स्थानों, पर तीर्थ नमन करते।।
तप बल से ये ऋद्धिधारी, मुनिगण भव संकट हरते।
अविनश्वरा ऊर्ध्वगति हेतू, आदरयुत मैं नमूँ उन्हें।।१६।।
सदा ‘‘णमो आसीविसाणं’’ विषवत् आशिष जिनकी है।
अमृतरस आशिष है फिर भी, अनुग्रह द्वेष नहीं कुछ है।।
‘‘णमो दिट्ठिविसाणं’’ दृष्टीमन, विषवत् अरु अमृतवत्।
फिर भी क्रोध हर्षविरहित उन, मुनि को वंदूँ मस्तक नत।।१७।।
‘‘णमो उग्गतवाणं’’ तप उग्रोग्र,अवस्थित द्विविध कहे।
नित उपवास वृद्धि कर -कर भी, शक्ति क्षीण नहीं किंचित् है।।
तप से प्रगट ऋद्धि तपवृद्धिंगतकारी उन ऋषिगण को।
बाह्याभ्यंतर – तप: सिद्धि, हेतू वंदूँ नित उन सबको।।१८।।
‘‘णमो दित्ततवाणं’’ तनुबल, तेज दीप्त होता जिनका।
नहिं आहार क्षुधा बिन उनके, फिर भी तेज नहीं घटता।।
बहु उपवास करें तप बल से, दीप्त तपो ऋद्धीसंयुत।
तनु की ममता नाश हेतु मैं, नमूँ भक्तियुक्त उनको नित।।१९।।
‘‘णमो तत्ततवाणं’’ तप से, मलमूत्रादि तप्त होते।
मुनि आहार ग्रहण करते, फिर भी नीहार रहित होते।।
तप्ततपस्वी ऋद्धीधारी, तप से कर्म सुखाते हैं।
उन मुनिगण को मैं नित वंदूँ , मम अघ सर्व नशाते हैं।।२०।।
‘‘णमो महातवाणं’’ जो मुनि, विक्रिय चारण ऋद्धी सहित।
पाणिपात्र गत भोजन को, अमृत अक्षीण करें संतत।।
सब ऋद्धीज्ञानादि सहित मुनि, महातपो ऋद्धीयुत हैं।
महातपस्वी उन मुनिगण को, वंदूँ भाव भक्तियुत मैं।।२१।।
‘‘णमो घोरतवाणं’’ जो मुनि, घोर तपस्या नित करते।
सिंह सर्प उपसर्ग भयंकर, से भी किंचित् नहिं डरते।।
वृक्षमूल आतापन आदिक, तप तपतें निर्भय विचरें।
घोर तपस्वी महाप्रभावी, ऋषिगण को हम नमन करें।।२२।।
‘‘णमो घोरगुणाणं’’ जो मुनि, लक्ष चुरासी गुण संयुत।
घोरगुणी ऋद्धी भूषित, साधूगण उनको वंदूँ नित।।
‘‘णमो घोरपरक्कमाणं’’, घोरपराक्रम ऋद्धि सहित।
त्रिभुवन पलटन करन शक्तियुत, मुनिगण को मैं नमूँ सतत।।२३।।
सदा ‘‘णमो घोरगुणबंभयारीणं’’ मुनि चरित धरें।
उनकी तप महिमा से कलह, वैर वध दुर्भिक्षादि टलें।।
बिन इच्छा भी घोर गुणादिक, ब्रह्मचारि ऋद्धिबल युत।
सबके उपसर्गादि नशें उन, मुनि को प्रणमूँ भक्तीयुत।।२४।।
‘‘णमो आमोसहिपत्ताणं’’ जिनमुनि का स्पर्श महान्।
सबके महाव्याधि कष्टों को, दूर करन में कुशल प्रधान।।
इस आमर्षौषधि ऋद्धीयुत, मुनिगण को मैं नमूँ सदा।
भव व्याधी के नाश हेतु मैं, भक्ति वंदना करूं मुदा।।२५।।
‘‘णमो खेल्लोसहिपत्ताणं’’ जिन मुनि का लार कफादिक मल।
औषधिरूप हुआ भक्तों के, रोग कष्ट को हरे सकल।।
उन क्ष्वेलौषधि ऋद्धि सहित, मुनिगण को सदा नमूँ रुचि से।
भवदुःख संकट नाश करन को, नितप्रति स्तुति करूं मुद से।।२६।।
‘‘णमो जल्लोसहिपत्ताणं’’ जिन मुनि का बाह्य अंग मल सब।
स्वेद विंदुरजकण से संयुत, रोगकष्ट सब हरे सतत।।
उन जल्लौषधि ऋद्धि विभूषित, ऋषिगण को मैं सदा नमूँ।
भव भय व्याधि आर्तिपीड़ा सब, नाश करो नित विनय करूँ।।२७।।
‘‘णमो विप्पोसहिपत्ताणं’’ जिन मुनि का मल मूत्रादि सभी ।
औषधिरूप बने सब जन के, रोग दूर करता नित ही।।
ऐसे विपु्रष औषधि ऋद्धी, सहित महामुनि पुंगव को।
वंदूँ त्रिकरण शुचि करके मैं , मम सब व्याधी का क्षय हो।।२८।।
‘‘णमो सव्वोसहिपत्ताणं’’ जिन को सर्वौषधि ऋद्धि।
प्रगट हुई है तप के बल से, उन मुनि का सब मल आदी।।
संस्पर्शित वायु भी जन के, रोग कष्ट विष दूर करे।
उन सर्वौषधि ऋद्धि विभूषित, मुनि गण को हम नमन करें।।२९।।
‘‘णमो मणबलीणं’’ जो मुनि, तप बल से मन बल धारी।
द्वादशांगश्रुत एक मुहूरत, में ही मनन करें भारी।।
फिर भी खेद नहीं होता है, उन मन बल ऋद्धी संयुत।
मुनिगण को मैं नमूँ सदा ही, मेरा मनबल बढ़े सतत।।३०।।
‘‘णमो वचिबलीणं’’ जो मुनि, वचनबली ऋद्धि संयुत।
द्वादशांग श्रुत को पढ़ लेते, एक मुहूरत में ही नित।।
उच्चध्वनी से पढ़ते रहते, फिर भी श्रम नहिं हो किंचित्।
वचन बली ऋषिगण को प्रणमूँ, मम वचबल सिद्धि हो नित।।३१।।
‘‘णमो कायबलीणं’’ जो मुनि, काय बली ऋद्धीभूषित।
तीनलोक को अंगुलि पर ही, उठा सकें अतिशक्तीयुत।।
तपबल से तनुनिर्मम होकर, कायबली बन जाते हैं।
उस बल से कर्मारी जीतें, उन मुनिगण को प्रणमूँ मैं।।३२।।
‘‘णमो खीरसवीणं’’ जो मुनि, क्षीरस्रवी ऋद्धीयुत हैं।
अंजलिपुट की विषवत् वस्तु, दूधभाव धारे क्षण में।।
जिनके वचन क्षीरवत् पुष्टि, करते भक्त जनों को नित।
उन क्षीरस्रावी ऋद्धीयुत, मुनिगण को मैं नमूँ सतत।।३३।।
‘‘णमो सप्पिसवीणं’’ जो मुनि, घृतस्रावी ऋद्धीयुत हैं।
करपुट में रुक्षाहारादिक, घृतसम होता इक क्षण में।।
जिनके वच भी घृतवत् पौष्टिक, होते भविजन हितकारी।
उन मुनि, गणधरगण को वंदूँ, मम भव ताप हरें भारी।।३४।।
‘‘णमो महुरसवीणं’’ जो मुनि, मधुरस्रवी हैं कहलाते।
उनके करपुट में नीरस आहार, मधुर रस बन जाते।।
उनके वच भी भक्तजनों को, प्रिय हित लगें महागुणकर।
उन मधुरसस्रावी ऋद्धीयुत, मुनिगण को वंदूँ सुखकर।।३५।।
‘‘णमो अमियसवीणं’’ जो मुनि, अमृतस्रवी ऋद्धियुत हैं।
अंजलिपुट नीरस विषवत्, आहार बने अमृत सम है।।
उनके वच भी अमृतवत्, तृप्तीकर सुखप्रद सबको हैं।
उन अमृतस्रावी ऋद्धीश्वर, मुनिपुंगव को प्रणमूँ मैं।।३६।।
सदा ‘‘णमो अक्खीणमहाणसाणं’’ तपमहिमा जिनकी।
जिस घर में आकर करें मुनि, उस दिन भोजन क्षीण नहीं।।
जिस स्थान में बैठें उसमें, असंख्यात सुर नर पशु गण।
बैठ सुने वच उन अक्षीण, ऋद्धियुत मुनि को मम प्रणमन।।३७।।
‘‘णमो वड्ढमाणाणं’’ जो मुनि, वृद्धिंगत चारित धारें।
वर्धमान ऋद्धीयुत संतत, कर्म शत्रु का भय टारें।।
उन निर्दोष चरितधारी, मुनिगण गणधरगण को वंदूँ।
रत्नत्रय वृद्धिंगत हेतू, विघ्न पुंज को नित खंडूं।।३८।।
सदा ‘‘णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं’’ त्रिभुवन में।
सिद्धायतन कहें कृत्रिम अकृत्रिम जिनगृह जिनकृति हैं।।
सिद्धशिला चंपा, पावा, सम्मेदशिखर आदिक थल हैं।
सर्व निषद्या भूमि नमूं, सिद्धायतनों को वंदूं मैं।।३९।।
‘‘णमो भयवदो महदि—महावीर-वड्ढमाण-बुद्धिरिसीणं’’।
महावीर भगवान् महित जो, वर्धमान बुद्धर्षिगणं।।
उनको प्रणमूँ बार-बार मैं, वे सब ऋद्धि विभूषित हैं।
निज सर्वार्थ सिद्धि हेतू, मम वीरप्रभू को शिरनत है।।४०।।
इस विध गणधरवलय मंत्र ये, गौतमस्वामी रचित कहे।
वीरप्रभू के निकट धर्मपथ, पाया श्री गौतमगुरु ने।।
अत: वीरप्रभु को वे गणधर, बारंबार नमन करते।
वीरप्रभू को गौतमगणधर, सब गणधर को हम नमते।।४१।।
-दोहा-
इस विध गणधरवलय का, संस्तव मंत्र समेत।
पढ़े सुने सो ‘‘ज्ञानमति’’, सिद्धि लहें शिवहेतु।।४२।।