३.१ जो भगवान की दिव्य-ध्वनि को ग्रहण करने में समर्थ होते हैं और जो उस वाणी का सार जगत को श्रुत के रूप में प्रदान करते हैं, ऐसे महा मुनि को गणधर कहते हैं। ये उसी भव से मोक्ष जाते हैं। ये केवलज्ञान के अतिरिक्त शेष ६३ ऋद्धियों के धारी होते हैं और दिव्य-ध्वनि की व्याख्या करने में समर्थ होते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर के कई-कई गणधर होते हैं। आदिनाथ भगवान के ८४ और महावीर स्वामी के ११ ‘‘गणधर’’ थे। २४ तीर्थंकरों के कुल १४५२ गणधर थे। तीर्थंकर केवलियों के ही गणधर होते हैं। अन्य केवलियों के गणधर नहीं होते हैं और उनकी वाणी को ऋद्धिधारी मुनि ग्रहण करते हैं।
‘गणं धारयति इति गणधर:’
अर्थात् जो गण (संघ) का भार वहन करते हैं, वे गणधर कहलाते हैं। तीर्थंकर द्वारा अर्थरूप में कहे गये प्रवचन को धारण कर उसकी सूत्र रूप में व्याख्या करने वाले गणधर होते हैं।
(१ )श्री ऋषभदेव जी | मुख्य गणधर वृषभसेन आदि ८४ गणधर | (२) श्री अजितनाथ जी | मुख्य गणधर सिंहसेन आदि ९० गणधर |
(३) श्री संभवनाथ जी | मुख्य गणधर चारूषेण आदि १०५ गणधर | (४) श्री अभिनन्दननाथ जी | मुख्य गणधर वङ्कानाभि आदि १०३ गणधर |
(५) श्री सुमतिनाथ जी | मुख्य गणधर अमर आदि ११६ गणधर | (६) श्री पद्मप्रभ जी | मुख्य गणधर वङ्काचामर आदि १११ गणधर |
(७) श्री सुपार्श्वनाथ जी | मुख्य गणधर श्रीबल आदि ९५ गणधर | (८) श्री चन्द्रप्रभ जी | मुख्य गणधर श्रीदत्त आदि ९३ गणधर |
(९) श्री पुष्पदन्तजी | मुख्य गणधर श्रीविदर्भ आदि ८८ गणधर | (१०) श्री शीतलनाथ जी | मुख्य गणधर श्री अनगार आदि ८१ गणधर |
(११) श्री श्रेयांसनाथ जी | मुख्य गणधर श्रीकुंथुआदि ७७ गणधर | (१२) श्री वासुपूज्य जी | मुख्य गणधर श्रीधर्म आदि ६६ गणधर |
(१३) श्री विमलनाथ जी | मुख्य गणधर श्रीमंदर आदि ५५ गणधर | (१४) श्री अनन्तनाथ जी | मुख्य गणधर श्रीजय आदि ५० गणधर |
(१५) श्री धर्मनाथ जी | मुख्य अरिष्टसेन आदि ४३ गणधर | (१६) श्री शान्तिनाथ जी | मुख्य गणधर चक्रायुध आदि ३६ गणधर |
(१७) श्री कुंथुनाथ जी | मुख्य गणधर स्वयंभु आदि ३५ गणधर | (१८) श्री अरनाथ जी | मुख्य गणधर श्री कुंभार्य आदि ३० गणधर |
१९) श्री मल्लिनाथ जी | मुख्य गणधर विशाख आदि २८ गणधर | (२०) श्री मुनिसुव्रतनाथ जी | मुख्य गणधर मल्लि आदि १८ गणधर |
(२१) श्री नमिनाथ जी | मुख्य गणधर सुप्रभार्य आदि १७ गणधर | (२२) श्री नेमिनाथ जी | मुख्य गणधर वरदत्त आदि ११ गणधर |
(२३) श्री पार्श्वनाथ जी | मुख्य गणधर स्वयंभु आदि १० गणधर | (२४) श्री महावीरस्वामी जी | मुख्य गणधर इन्द्रभूति आदि ११ गणधर |
इस प्रकार वर्तमानकाल में वृषभादि महावीर पर्यंत २४ तीर्थंकरों के कुल १४५२ गणधर हुए हैं।
भगवान महावीर के निर्वाण के बाद उनके प्रमुख गणधर गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्रगट हुआ। भगवान महावीर के अन्य गणधर वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्म, मौर्य, मौन्द्रय, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेला तथा प्रभास ये दश गणधर और हुए हैं।
भगवान महावीर के मोक्ष जाने के पश्चात् से अब तक की अवधि में यद्यपि तीर्थंकर कोई नहीं हुआ, किन्तु केवली, आचार्य आदि अनेक महापुरुष हुए हैं जिन्होंने धर्म की प्रभावना को आगे बढ़ाया है। इनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है-
(१) तीन अनुबद्ध केवली (Three Anubaddh Kevalis)- गौतम स्वामी, सुधर्म स्वामी और जम्बू स्वामी तीन अनुबद्ध केवली इस पंचम काल में मोक्ष गये हैं। इनका काल ६२ वर्ष (५२७ ईसा पूर्व से ४६५ ईसा पूर्व) है।
(२) पाँच श्रुतकेवली (Five Shrut Kevalis)- द्वादशांग रूप समस्त श्रुत के जानने वाले महामुनि को श्रुतकेवली कहते हैं। विष्णुकुमार, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु नामक पाँच श्रुतकेवली हुए हैं। इनका काल १०० वर्ष (४६५ वर्ष से ३६५ ईसा पूर्व) है। इनके पश्चात् पंचम काल में अन्य कोई श्रुतकेवली नहीं हुए हैं। यहाँ तक सम्पूर्ण ज्ञान-प्रवाह अनवरत चलता रहा और इसके पश्चात् आचार्यों की स्मृति क्षीण होने लगी।
(३) ११ अंग-दशपूर्वधारी (Eleven Angas and Ten Purvadharees)- विशाखाचार्य, प्रोष्ठिलाचार्य, क्षत्रिय, जयसेन, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिलिंग, गंगदेव और धर्मसेन नाम के ग्यारह आचार्य ग्यारह अंग और दसपूर्व के धारी हुए हैं। इनका काल १८३ वर्ष (३६५ ईसा पूर्व से १८२ ईसा पूर्व) है।
(४) पाँच ग्यारह-अंगधारी (Five Eleven-Angadharees)- नक्षत्र, जयपाल, पांडु, ध्रुवसेन और कंसाचार्य नाम के पाँच मुनि हुए हैं, जिन्हें ग्यारह अंग का ज्ञान था। इनका काल २२० वर्ष (१८२ ईसा पूर्व से ईसवी सन् ३८) है।
(५) चार आचारांगधारी (Four Aacharangdharees)- सुभद्राचार्य, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य नामक चार आचार्य एक अंग (आचारांग) के धारी हुए हैं। इनका काल ११८ वर्ष (ईसवी सन् ३८ से १५६) है।
इनके अलावा जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में और कोई भी आचार्य अंग-पूर्व के धारक नहीं हुए हैं। उनके अंशों को जानने वाले अवश्य हुए हैं। इस प्रकार महावीर स्वामी के पश्चात् ६८३ वर्षों तक अंगों का ज्ञान रहा। लोहाचार्य के पश्चात् गुणधर, विनयदत्त, श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हदत्त, अर्हद्बलि, माघनन्दी और धरसेन आदि आचार्य हुए, जो क्षीण अंग के धारी थे। इस अवधि तक कोई भी शास्त्र लिपिबद्ध नहीं था। आचार्य धरसेन ने सोचा कि मुनियों की स्मृति क्षीण होने लगी है और इस प्रकार श्रुत का लोप हो जावेगा। अत: उन्होंने महिमानगर (महाराष्ट्र) में हो रहे साधु सम्मेलन से दो योग्य साधुओं को बुलाया। उनकी परीक्षा लेने पर आचार्य धरसेन को यह विश्वास हो गया कि दोनों शिष्य ज्ञानी हैं अत: उन्होंने दोनों को शिक्षा दी और उनके नाम पुष्पदंत और भूतबलि प्रसिद्ध हुए। दोनों शिष्यों ने मिलकर जैन आगम के महान् सिद्धान्त ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ की रचना की और ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन चतुर्विध संघ एवं देवों ने इसकी पूजा की। इसी कारण से यह तिथि जैनों में ‘श्रुत-पंचमी’ के नाम से प्रसिद्ध हुई।
भगवान महावीर के पश्चात् कितने ही प्रसिद्ध-प्रसिद्ध आचार्य और ग्रंथकार हुए हैं जिन्होंने अपने सदाचार और सद्विचारों से न केवल जैनधर्म को अनुप्राणित किया किन्तु अपनी अमर लेखनी के द्वारा भारतीय वाङ्गमय को भी समृद्ध बनाया। नीचे कुछ ऐसे प्रसिद्ध आचार्यों और ग्रंथों का परिचय संक्षेप में कराया जाता है।
आचार्य धरसेन (वि. सं. की दूसरी शती) (Acharya Dharsen, 2nd century of Vikram Samvat)-
आचार्य धरसेन अंगों और पूर्वों के एकदेश के ज्ञाता थे और सौराष्ट्र देश के गिरनार पर्वत की गुफा में ध्यान करते थे। उन्हें इस बात की चिन्ता हुई कि उनके पश्चात् श्रुतज्ञान का लोप हो जायेगा अत: उन्होंने महिमानगरी के मुनि सम्मेलन को पत्र लिखा। वहाँ से दो मुनि उनके पास पहुँचे। आचार्य ने उनकी बुद्धि की परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्त की शिक्षा दी।
आचार्य पुष्पदन्त और भूतबली (Acharya Pushpdant and Bhootbali)-
ये दोनों मुनि पुष्पदंत और भूतबली थे। आषाढ़ शुक्ला एकादशी को अध्ययन पूरा होते ही धरसेनाचार्य ने उन्हें विदा कर दिया। दोनों शिष्य वहाँ से चलकर अंकलेश्वर में आये और वहीं चातुर्मास किया। पुष्पदंत मुनि अंकलेश्वर से चलकर बनवास देश में आये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने जिनपालित को दीक्षा दी और ‘वीसदि सूत्रों’ की रचना करके उन्हें पढ़ाया। फिर उन्हें भूतबलि के पास भेज दिया। इस तरह पुष्पदंत को अल्पायु जानकर आगे की ग्रंथ रचना की। इस तरह पुष्पदंत और भूतबलि ने षट्खण्डागम नाम के सिद्धान्त ग्रंथ की रचना की। फिर भूतबलि ने षट्खण्डागम को लिपिबद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी के दिन उसकी पूजा की। इसी से यह तिथि जैनों में श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुई।
आचार्य गुणधर (वि. सं. की दूसरी शती)(Acharya Gundhar, 2nd century of Vikram Samvat)-
आचार्य गुणधर भी लगभग इसी समय में हुए। वे ज्ञानप्रवाद नामक पाँचवें पूर्व के दसवें वस्तु अधिकार के अंतर्गत कसायपाहुड़रूपी श्रुत समुद्र के पारगामी थे। उन्होंने भी श्रुत का विनाश हो जाने के भय से कसायपाहुड़ नाम का महत्वपूर्ण सिद्धान्त ग्रंथ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध किया।
आचार्य कुन्दकुन्द (वि. सं. की दूसरी शती) (Acharya Kundkund, 2nd century of Vikram Samvat)-
आचार्य कुन्दकुन्द जैनधर्म के महान् प्रभावक आचार्य थे। इनके विषय में प्रसिद्ध है कि विदेह क्षेत्र में जाकर सीमंधर स्वामी की दिव्यध्वनि सुनने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त हुआ था। इनका प्रथम नाम पद्मनन्दि था। कोण्डकुन्दपुर के रहने वाले होने से बाद में वे कोण्डकुन्दाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। उसी का श्रुतिमधुर रूप ‘कुन्दकुन्दाचार्य’ बन गया। इनके प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और समयसार नाम के ग्रंथ अति प्रसिद्ध हैं जो नाटकत्रयी कहलाती हैं। इनके सिवाय इन्होंने अनेक प्राभृतों की रचना की है। जिनमें से आठ प्राभृत उपलब्ध हैं। बोधप्राभृत के अंत की एक गाथा में इन्होंने अपने को श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य बतलाया है। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में इनकी बड़ी कीर्ति बतलायी गयी है।
आचार्य उमास्वामी (वि. सं. की तीसरी शती) Acharya Umaswami, 3rd century of Vikram Samvat)-
यह आचार्य कुन्दकुन्द के शिष्य थे। इन्होंने जैन सिद्धान्त को संस्कृत सूत्रों में निबद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामक सूत्र ग्रंथ की रचना की। इनको गृद्धपिच्छाचार्य भी कहते थे। श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं. १०८ में लिखा है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य के पवित्र वंश में उमास्वामी मुनि हुए जो सम्पूर्ण पदार्थों के जानने वाले थे, मुनियों में श्रेष्ठ थे। उन्होंने जिनदेव प्रणीत समस्त शास्त्रों के अर्थ को सूत्ररूप में निबद्ध किया। वे प्राणियों की रक्षा में बड़े सावधान थे। एक बार उन्होंने पीछी न होने पर गृद्ध के परों को पीछी के रूप में धारण किया था, तभी से विद्वान् उनको गृद्धपिच्छाचार्य कहने लगे। साधारणतया दिगम्बर जैन मुनि जीवरक्षा के लिए मयूर के पंखों की पीछी रखते हैं।
आचार्य समन्तभद्र (वि. सं. की तीसरी-चौथी शती) Acharya Samantbhadra, 3rd-4th century of Vikram Samvat)-
जैन संस्कृति के प्रभावक आचार्यों में स्वामी समन्तभद्र का स्थान बहुत ऊँचा हैं। इन्हें जैन शासन का प्रणेता और भावी तीर्थंकर तक बतलाया है। अकलंकदेव ने अष्टशती में, विद्यानंद ने अष्टसहस्री में, आचार्य जिनसेन ने आदिपुराण में, जिनसेन सूरि ने हरिवंशपुराण में, वादिराजसूरि ने न्यायविनिश्चय विवरण और पार्श्वनाथ चरित में, वीरनन्दि ने चन्द्रप्रभचरित में, हस्तिमल्ल ने विक्रान्तकौरव नाटक में तथा अन्य अनेक ग्रंथकारों ने भी अपने-अपने ग्रंथ के प्रारंभ में इनका बहुत ही आदरपूर्वक स्मरण किया है। मुनि जीवन में इन्हें भस्मक व्याधि हो गयी थे, जो खाते थे वह तत्काल जीर्ण हो जाता था। उसे दूर करने के लिए इन्हें कांची या काशी के राजकीय शिवालय में पुजारी बनना पड़ा और वहाँ देवार्पित नैवेद्य का भक्षण करके अपना रोग दूर किया। जब कलई खुली तो स्वयंभू-स्तोत्र रचकर जैन शासन का प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट किया।
इनके रचे हुए आप्तमीमांसा, बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, जिनस्तुतिशतक तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार नामक ग्रंथ उपलब्ध हैं तथा गंधहस्ति भाष्य जीवसिद्धि आदि कुछ ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। ये प्रखर तार्किक और कुशलवादी थे। अनेक देशों में घूम-घूमकर इन्होंने विपक्षियों को शास्त्रार्थ में परास्त किया।
आचार्य सिद्धसेन (वि. सं. की पांचवीं शती) Acharya Siddhsen, 5th century of Vikram Samvat)-
आचार्य उमास्वामी की तरह सिद्धसेन की मान्यता भी दोनों सम्प्रदायों में पायी जाती है। दोनों ही सम्प्रदाय उन्हें अपना गुरु मानते हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय के आचार्य जिनसेन प्रथम व द्वितीय ने बहुत ही आदर के साथ उनका स्मरण किया है। उनकी सूक्तियों को भगवान ऋषभदेव की सूक्तियों के समकक्ष बतलाया है और प्रतिवादीरूपी हाथियों के समूह के लिए उन्हें विकल्परूपी नखोंयुक्त सिंह बतलाया है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ‘दिवाकर’ विशेषण के साथ इनकी प्रसिद्धि है। इनका सन्मतितर्कग्रंथ अति प्रसिद्ध और बहुमान्य है। यह प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। दूसरे ग्रंथ न्यायावतार तथा द्वात्रिंशतिकाएं संस्कृत में हैं। सभी ग्रंथ गहन दार्शनिक चर्चाओं से परिपूर्ण हैं। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं. जुगलकिशोर मुख्तार ने गहरे अध्ययन और खोज के बार यह सिद्ध किया है कि उक्त सब कृतियाँ एक ही सिद्धसेन की नहीं हैं, सिद्धसेन नाम के कोई दूसरे विद्वान् भी हुए हैं।
आचार्य अकलंक देव (ई. ६२० से ६८०) (Acharya Aklankdev, 620-680 A.D.)-
यह जैन न्याय के प्रतिष्ठाता थे। प्रकाण्ड पण्डित, धुरन्धर शास्त्रार्थी और उत्कृष्ट विचारक थे। जैन न्याय को इन्होंने जो रूप दिया उसे ही उत्तरकालीन जैन ग्रंथकारों ने अपनाया। बौद्धों के साथ इनका खूब संघर्ष रहा। स्वामी समंतभद्र के यह सुयोग्य उत्तराधिकारी थे। इन्होंने उनके आप्तमीमांसा ग्रंथ पर ‘अष्टशती’ नामक भाष्य की रचना की। इनकी रचनाएँ दुरूह और गंभीर हैं। अब तक इनके अष्टशती, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय, सिद्धिविनिश्चय और तत्त्वार्थराजवार्तिक, नामक ग्रंथ प्रकाश में आ चुके हैं।
आचार्य विद्यानन्दि (ई. नौवीं शती) (Acharya Vidyanandi, 9th century A.D.)-
विद्यानन्दि अपने समय के बहुत ही समर्थ विद्वान् थे। इन्होंने अकलंकदेव की अष्टशती पर ‘अष्टसहस्री’ नाम का महान् ग्रंथ लिखा है, जिसे समझने में अच्छे-अच्छे विद्वानों को कष्टसहस्री का अनुभव होता है। ये सभी दर्शनों के पारगामी विद्वान् थे। इन्होंने आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और युक्त्यनुशासन-टीका नाम के ग्रंथ रचे हैं। सभी बहुत प्रौढ़ दार्शनिक ग्रंथ हैं।
आचार्य माणिक्यनंदि (ई. नौवीं शती) (Acharya Manikyanandi, 9th century A.D.)-
इन्होंने अकलंकदेव के वचनों का अवगाहन करके परीक्षामुख नाम के सूत्रग्रंथ की रचना की है, जिसमें प्रमाण और प्रमाणाभास का सूत्रबद्ध विवेचन किया है। सूत्र संक्षिप्त स्पष्ट और सरस हैं।
आचार्य वीरसेन (ई. ७९०-८२५) (Acharya Veersen, 790-825 A.D.)-
आचार्य वीरसेन प्रसिद्ध सिद्धांतग्रंथ षट्खण्डागम और कसायपाहुड़ के मर्मज्ञ थे। इन्होंने प्रथम ग्रंथ पर ६२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत संस्कृत मिश्रित धवला नाम की टीका लिखी है और कसायपाहुड़ पर २० हजार श्लोक प्रमाण जयधवला टीका लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। ये टीकाएं जैन सिद्धान्त की गहन चर्चाओं से परिपूर्ण हैं। धवला की प्रशस्ति में उन्हें वैयाकरणों का अधिपति, तार्किक चक्रवर्ती और ‘प्रवादीरूपी गजों के लिए सिंह’ समान बतलाया है।
आचार्य जिनसेन (ई. ८००-८८०) (Acharya Jinsen, 800-880 A.D.)-
यह वीरसेन के शिष्य थे। इन्होंने गुरु के स्वर्गवासी हो जाने पर जयधवला टीका को पूरा किया। इन्होंने अपने को ‘अविद्धकर्ण’ बतलाया है, जिससे प्रतीत होता है कि यह बालवय में ही दीक्षित हो गये थे। यह बड़े कवि थे। इन्होंने अपने नवयौवन काल में ही कालिदास के मेघदूत को लेकर पार्श्वाभ्युदय नाम का सुंदर काव्य रचा था। मेघदूत में जितने भी पद्म हैं, उनके अंतिम चरण तथा अन्य चरणों में से भी एक-एक, दो-दो करके इसके प्रत्येक पद्य में समाविष्ट कर लिये गये हैं। इनका एक दूसरा ग्रंथ महापुराण है। इन्होंने तिरेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र लिखने की इच्छा से महापुराण लिखना प्रारंभ किया किन्तु इनका भी बीच में ही स्वर्गवास हो गया अत: उन्हें इनके शिष्य गुणभद्राचार्य ने पूर्ण किया। राजा अमोघवर्ष इनके शिष्य थे और इन्हें बहुत मानते था।
आचार्य प्रभाचंद्र (ई. सन् की ग्यारहवीं शती) (Acharya Prabhachandra, 11th century A.D.)-
आचार्य प्रभाचंद्र एक बहुश्रुत दार्शनिक विद्वान् थे। सभी दर्शनों के प्राय: सभी मौलिक ग्रंथों का उन्होंने अभ्यास किया था। यह बात उनके रचे हुए न्यायकुमुदचंद्र और प्रमेय-कमल-मार्तण्ड नामक दार्शनिक ग्रंथों के अवलोकन से स्पष्ट हो जाती है इनमें से पहला ग्रंथ अकलंकदेव के लघीयस्त्रय का व्याख्यान है और दूसरा आचार्य माणिक्यनन्दि के परीक्षामुख नामक सूत्र ग्रंथ का। श्रवणबेलगोला शिलालेख नं. ४० (६४) में इन्हें शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथित तर्क ग्रंथकार बतलाया है। इन्होंने शाकटायन व्याकरण पर एक विस्तृत न्यास ग्रंथ भी रचा था, जिसका कुछ भाग उपलब्ध है। इनके गुरु का नाम पद्मनन्दि सैद्धान्तिक था।