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गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज की पूजन
July 28, 2020
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गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज की पूजन
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसागरजी गुरुवर।
बालयति अरु स्याद्वाद जो,प्रज्ञा जिनकी बड़ी प्रखर।।
अपने ज्ञान ध्यान तप बल से,भव्यों का तम करे हनन।
ऐसे गुरू का अर्चन करने,आहवानन कर करें नमन।।
ॐ हूँ परम् पूज्य राष्ट्रसंत, युगप्रमुख श्रमणाचार्य,गणाचार्य श्री 108 विरागसागरजी महाराज अत्र अवतर संवौषट्आह् वाननं ।
ॐ हूँ परम् पूज्य राष्ट्रसंत, युगप्रमुख श्रमणाचार्य,गणाचार्य श्री 108 विरागसागरजी महाराज अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ:ठ:स्थापनं।
ॐ हूँ परम् पूज्य राष्ट्रसंत, युगप्रमुख श्रमणाचार्य,गणाचार्य श्री 108 विरागसागरजी महाराज अत्र मम सन्नीहितो भव भव वषट् अन्निधिकरणं।।
भव तापो से तपा हुआ हूँ, तुम चरणों में शान्ति मिले।
क्रोध लोभ मद मानअरु मत्सर,गुरु भक्ति से शीध्र धुले।।
भक्ति भाव का निर्मल जल ले,गुरू चरणों मे धार करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि,विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जग की आकुलताएँ सारी,ममता का विष पिला रही।
तृष्णा मोह क्रोध की अग्नि, अंतर मन को जला रही।।
गुरू चरणों मे विनय भाव का,चन्दन लेकर शांत करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज संसार ताप विनाशनाय चंदन निर्वपामीति स्वाहा।
जितने भी पद पाये मैंने, सबका अब तक नाश हुआ।
नही अभी तक मेरा गुरुवर, सच्चे पद में वास हुआ।।
अक्षय पद के अक्षत लेकर,गुरू महिमा का गान करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
अब तक जग में भटका गुरुवर, पर की आस वासना से।
नही कभी भी तृप्त हुये हम,अग्नि धी सम प्यास से।।
समता शील व्रतादिक लेकर,काम वासना शमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज कामबाण विध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
तीन लोक के सकल पदारथ,क्षुधा अग्नि के ग्रास बने।
क्षुधा शांत न होती फिर भी,हम आशा के दास बने।।
ले नैवेद्य आस तजने को,इच्छाओं का दमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज छुधा रोग विनाशनाय नैवेधं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान दीप बिन अब तक जग में,निज पद का नही भान हुआ।
तेरी दिव्य देशना से ही,निज शक्ति का ज्ञान हुआ।।
यशोगान का दीपक लेकर,निज कुटिया को चमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वसु विधि वश होकर गुरुवर,भव सागर में भटक रहा।
अष्ट कर्म के दहन करन को,सम्यक तप है धर्म महा।।
तुमसे संयम-मय तप पाकर,अष्ट कर्म को दहन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
जिस फल के बिन निष्फल सब कुछ, वह फल मैं भी पा जाउ।
ऐसा मोक्ष महाफल पाने,गुरू चरणों को नित ध्याउ।।
मोक्ष महाफल को पाने मैं, मोह कर्म को दमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज मोक्ष फल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ भावो का निर्मल जल है, विनय भाव का है चन्दन।
गुरू वंदन ही अक्षत है ये,भक्ति सुमन का अभिनन्दन।।
मन वच तन से आत्म समर्पण, मोह क्षोभ का शमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
ॐ हूँ प.पू.उपसर्ग विजेता, युगप्रतिक्रमणप्रवर्तक, गणाचार्य श्री १०८ विरागसागरजी महाराज अनर्घ्य पद प्राप्तये निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
दोहा:-
माँ श्यामा के लाड़ले,कपूरचंद के लाल।
विराग सिन्धु आचार्य की,अब वरणू जयमाला।।
सम्यक श्रद्धा निज गुण का है, जिससे मैं नित दूर रह।
मिथ्या भाव छोड़ नही पाया,दुखो से भरपूर रहा।।
ऐसी सम्यक निज निधि पाकर,निज का मैं उद्धार करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
सम्यक बोध नही मैं पाया,जो शिव सुख का साधन है।
ऐसे बोध अगम्य पुंज तुम,अतः तुम्हें अभिवादन है।।
तुमसे सत्य बोध को पाकर,शिव मारग में गमन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
सम्यक चारित्र बिन सब सूना, ज्यो बिना गंध के पुष्प कहा।
ऐसे सत्य चरण बिन गुरुवर, जग में अब तक भटक रहा।।
तुमसे चरण निधि मैं पाकर,शिव रमणी का वरण करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
सम्यक तप ही इक साधन हैं, जो कर्म भस्म कर देता है।
सारे दुःख अशान्ति जगत की,आप स्वयं हर लेता है।।
धोर तपोनिधि को पा करके, क्यो न मैं अनुशरण करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
निज शक्ति को नही छिपाकर, धोर तपस्या करते हो।
उपसर्ग परिषह के सहने में, नही कभी तुम डरते हो।।
ऐसा वीर्याचार पालते,उसका मैं अनुशरण करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव सत्य शौच और संयम है।
उत्तम तप और त्याग,आकिंचन, ब्रह्मचर्य विमलतम है।।
दश धर्मो की अगम सिन्धु पा,मैं भी नित स्नान करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
अशरण अनित्य संसार भावना,अशुचि एकत्व और अन्यत्व।
आस्रव संवर निर्जरा लोक हि ,दुर्लभ बोधि धर्म है तत्व।।
इनको तुम भाते हो निश दिन ,मै भी इनका मनन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
निश्चित श्रद्धा ज्ञान चरित्र को,निर्विकल्प बनाया है।
अभेद रत्नत्रय को पाने, मैंने शीश झुकाया है।।
अप्रमत्त दशा को पाने,मुनि बन निज में मनन करूँ।
परम् पूज्य आचार्य शिरोमणि, विरागसिन्धु को नमन करूँ।।
दोहा। :
सप्तम पूजा भक्त ने,लिखी भक्ति के हेतु।
भक्ति भाव से भक्ति कर,बाँधू भव का सेतु।।
तुम चरणों का दास मैं, करता हूँ अरदास ।
नाश पाश भव का करो,दीजे चरण निवास।।
ॐ हूँ प.पू.चर्या चूड़ामणि बुंदेलखंड के प्रथमाचार्य,आचार्य रत्न, आचार्य गौरव,सिद्धांत चक्रवर्ती, समता मूर्ति,गणाचार्य श्री 108 विराग सागरजी महाराज यतिवरेभ्यो जयमाला पुर्ण अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा:
भूल चूक सब माफ हो,मैं हूँ निपट अजान।
एक भावना बस यही,हो सबका कल्याण।।
पुष्पांजलि क्षेपेत
।। इत्याशीर्वाद:, पुष्पांजलि: ।।
आरती
हे गुरुवर तेरे चरणों में,हम वंदन करने आये है।
हम वंदन करने आये है, हम आरती करने आये है।
तुम काम,क्रोध, मद,लोभ छोड़,निज आतम को पहिचाना है।
धर कुटुम्ब छोड़कर निकल पड़े, धर लिया दिगम्बर बाना है।
हे…1 छोटी सी आयु में स्वामी,विषयो से मन अकुलाया है।
तप,संयम,शील,साधना में, दृढ़ अपने मन को पाया है।
हे…2 कितना भीषण संताप पड़े,हो क्षुधा-तृषा की बाधाये।
सिथर मन से सब सहते हो,बाधाएँ कितनी आ जाये।
हे…3 नही ब्याह किया धर बार तजा, समता के दीप जलाये है।
हे महाव्रती संयमधारी,चरणों मे सेवक आये है।
हे….4 तुम जैन धर्म के सूरज हो, तप -त्याग की अदभुत मूरत हो।
है धन्य-धन्य महिमा तेरी,तम हरने वाले सूरज हो।
हे…5 शिवपुर पथ के अनुगामी का,अभिवंदन करने आये है।
हे गुरुवर तेरे चरणों मे, हम वंदन करने आये है। हे…6
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