स्थापना
पूजन करो जी-
श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी की, पूजन करो जी।
जिनकी पूजन करने से, अज्ञान तिमिर नश जाता है।
जिनकी दिव्य देशना से, शुभ ज्ञान हृदय बस जाता है।।
उनके श्री चरणों में, आह्वानन स्थापन करते हैं।
सन्निधिकरण विधीपूर्वक, पुष्पांजलि अर्पित करते हैं।।
पुष्पांजलि अर्पित करते हैं…….
पूजन करो जी,
श्री गणिनी ज्ञानमती माताजी की पूजन करो जी।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मातः ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मातः ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मातः! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणम्।
अष्टक
ज्ञानमती जी नाम तुम्हारा, ज्ञान सरित अवगाहन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।
मुझ अज्ञानी ने माँ जबसे, तेरी छाया पाई है।
तब से दुनिया की कोई छवि, मुझको लुभा न पाई है।।
ज्ञानामृत जल पीने हेतू, तव पद में मेरा मन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।१।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
चंदन और सुगंधित गंधों, की वसुधा पर कमी नहीं।
लेकिन तेरी ज्ञान सुगन्धी, से सुरभित है आज मही।।
उसी ज्ञान की सौरभ लेने, को आतुर मेरा मन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।२।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
जग के नश्वर वैभव से, मैंने शाश्वत सुख था चाहा।
पर तेरे उपदेशों से, वैराग्य हृदय मेरे भाया।।
अक्षय सुख के लिए मुझे, तेरा प्रवचन ही साधन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।३।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कामदेव ने निज बाणों से, जब युग को था ग्रसित किया।
तुमने अपनी कोमल काया, लघुवय में ही तपा दिया।।
इसीलिए तव पद में आकर, शान्त हुआ मेरा मन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।४।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
मानव सुन्दर पकवानों से, अपनी क्षुधा मिटाते हैं।
लेकिन उनके द्वारा भी नहिं, भूख मिटा वे पाते हैं।।
आत्मा की संतृप्ति हेतुु, तव वाणी मेरा भोजन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।५।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
विद्युत के दीपों से जग ने, गृह अंधेर मिटाया है।
ज्ञान का दीपक लेकर तुमने, अन्तरंग चमकाया है।।
घृत का दीपक लेकर माता, हम करते तव प्रणमन हैं।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।६।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्मों ने ही अब तक मुझको, यह भव भ्रमण कराया है।
तुमने उन कर्मों से लड़कर, त्याग मार्ग अपनाया है।।
धूप जलाकर तेरे सम्मुख, हम करते तव पूजन हैं।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।७।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
कितने खट्टे मीठे फल को, मैंने अब तक खाया है।
तुमने माँ जिनवाणी का, अनमोल ज्ञानफल खाया है।।
तव पूजनफल ज्ञाननिधी, मिल जावे यह मेरा मन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।८।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
पिच्छि कमण्डलुधारी माता, नमन तुम्हें हम करते हैं।
अष्ट द्रव्य का थाल सजाकर, अर्घ्य समर्पण करते हैं।।
युग की पहली ज्ञानमती के, चरणों में अभिवन्दन है।
तेरी पावन प्रतिभा लखकर, मेरा मन भी पावन है।।९।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शेरछंद
हे माँ तू ज्ञान गंग की पवित्र धार है।
तेरे समक्ष गंगा की लहरें बेकार हैं।।
उस धार की कुछ बूँदों से जलधार मैं करूँ।
वह ज्ञान नीर मैं हृदय के पात्र मेंं भरूँ।।
शांतये शांतिधारा………।।
स्याद्वाद अनेकान्त के उद्यान में माता।
बहुविध के पुष्प खिले तेरे ज्ञान में माता।।
कतिपय उन्हीं पुष्पों से मैं पुष्पांजलि करूँ।
उस ज्ञानवाटिका में ज्ञान की कली बनूँ।।
दिव्य पुष्पांजलिं क्षिपेत्…..।।
अथ प्रत्येक अर्घ्य
ॐ ज्ञानमती माताजी को है, मेरा बारम्बार नमन।
निज नाम किया साकार उन्हीं के, चरणों में शत शत वंदन।।
गंगा की निर्मलधारा से, जिनका अन्तर्मन है पावन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती! स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१।।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानमत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ अट्ठाईस मूलगुण युत, उपचार महाव्रति को वन्दन।
आर्यिका एक साटिका धारिणी, की मुद्रा को करूँ नमन।।
लज्जादिक गुण से भूषित ब्राह्मी, के पथ को कर दिया चमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२।।
ॐ ह्रीं श्री आर्यिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ छत्तिस मूलगुणों से युत, गणिनी माता को करूँ नमन।
आचार्य सदृश शिष्याओं को, दीक्षा देने में जो सक्षम।।
निज संघ बढ़ाकर वत्सलता, अनुशासन गुण का करें कथन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३।।
ॐ ह्रीं श्री गणिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ कन्या दीक्षा लेकर जगमाता बन गई उसे वन्दन।
जिनधर्म सदा इसकी महिमा का, करता है सुन्दर वर्णन।।
जिनकी दृष्टि में पुत्र सदृश, आलोकित होते हैं जन-जन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४।।
ॐ ह्रीं श्री जगन्मात्रे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ तेरह विध चारित्रचन्द्रमा, की किरणों को करूँ नमन।
शीतलता गुण से व्याप्त उन्हीं, चारित्रचन्द्रिका को वन्दन।।
इस बाह्य उपाधी से अन्तर में, जला ज्ञान का दीप प्रबल।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५।।
ॐ ह्रीं श्री चारित्रचन्द्रिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ सदी बीसवीं में पहली, युगप्रवर्तिका को करूँ नमन।
उस पथ पर चलने वाली सभी, आर्यिकाओं को भी वंदन।।
इस पदवी को सार्थक करने में, हुआ तुम्हारा सार्थक श्रम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६।।
ॐ ह्रीं श्री युगप्रवर्तिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ बाल्यावस्था से ही ब्रह्मचर्यव्रतधारी को वन्दन।
पञ्चेन्द्रिय विषय कथाओं का नहिं, किया कभी अनुभव चिन्तन।।
ये तो भव भव में मिलती हैं, ऐसा सोचा तज दिया स्वजन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७।।
ॐ ह्रीं श्री बालब्रह्मचारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ महावीर जी तीरथ पर, जो बनीं वीरमति उन्हें नमन।
क्षुल्लिका अवस्था में भी अपना, खूब बढ़ाया ज्ञानार्जन।।
चारित्रचक्रवर्ती गुरु से, शिक्षा ली उनके कर दर्शन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८।।
ॐ ह्रीं श्री वीरमत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ कंठ और कर में जिनके, जिनवाणी उनको सदा नमन।
शारद माता की प्रतीकृती, माँ सरस्वती को नित वंदन।।
स्वर की वीणा प्रभु की माला, हंसासन इनका पद्मासन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।९।।
ॐ ह्रीं श्री सरस्वत्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ तीर्थंकर की जन्मभूमियों, की उद्धारक मात नमन।
मांगीतुंगी हस्तिनापुरी, अरु तीर्थ अयोध्या हुआ चमन।।
कितने ही तीर्थों का विकास कर, उन्हें किया नवकृति अर्पण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१०।।
ॐ ह्रीं श्री तीर्थोद्धारिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ सहधर्मी के प्रति वत्सलता, गुणयुत माता को वन्दन।
गौ माता सम तुम नयनों में, दिखता है प्रेमभरा उपवन।।
इस वत्सलता की सरिता में ही, मग्न रहे संसारी जन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।११।।
ॐ ह्रीं श्री वात्सल्यमूर्तये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ बारह तप-दश धर्म आदि, छत्तिस गुणधारी को वन्दन।
आचार पाँच छह आवश्यक, त्रयगुप्ती का उपचार कथन।।
सूरी सम ये गणिनी में भी, प्रगटित होते हैं छत्तिस गुण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१२।।
ॐ ह्रीं श्री उपचारषट्त्रिंशत्मूलगुणधारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ध्यान योग से युक्त ज्ञानमति, माता को मैं करूँ नमन।
सन् उन्निस सौ पैंसठ में ध्यान में पाया, मध्यलोक उत्तम।।
प्रभु गोमटेश के चरणों में, पिण्डस्थ ध्यान को किया ग्रहण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१३।।
ॐ ह्रीं श्री पिण्डस्थध्यानसंयुक्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ चलती फिरती ज्ञान विश्वविद्यालय माता को वन्दन।
अपने अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग से, लिखे सैकड़ों ग्रन्थ प्रथम।।
ज्ञानामृत वर्षा के द्वारा, करतीं निज पर को सदा प्रसन्न।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१४।।
ॐ ह्रीं श्री अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ तीर्थ हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचाया उन्हें नमन।
जहाँ देश विदेशों के यात्री, आ श्रद्धा से करते वन्दन।।
धरती पर पहली बार जैन, भूगोल कराया दिग्दर्शन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१५।।
ॐ ह्रीं श्री जम्बूद्वीपप्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ज्ञानज्योति रथ की पावन, प्रेरिका मात को करूँ नमन।
इन्द्रागाँधी ने किया प्रवर्तन, तुम चरणों में कर वन्दन।।
भारत के कोने कोने में, ज्योती ने किया धर्मवर्तन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१६।।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानज्योतिप्रवर्तिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ विद्याओं में पारंगत, परमार्थ ज्ञानयुत तुम्हें नमन।
मुनि और आर्यिकाओं शिष्यों को, खूब पढ़ाया तुम्हें नमन।।
इस भव का विद्यादान तुम्हारा, बना सभी का ज्ञान सदन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१७।।
ॐ ह्रीं श्री विधानवाचस्पतये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ डी. लिट्. की यह पदवी युत, साहित्यवारिधी तुम्हें नमन।
जब अवध विश्वविद्यालय के, कुलपति ने किया तुम्हें अर्पण।।
वहाँ ऋषभदेव की शोधपीठ है, इसी प्रेरणा का उपवन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१८।।
ॐ ह्रीं श्री साहित्यवारिधये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ रत्नत्रय आभूषण से, भूषित माता को सदा नमन।
पंचम गुणथान के योग्य देश, रत्नत्रय युत माँ को वंदन।।
आत्मा तो स्त्री-पुरुष आदि, वेदों से विरहित सुखी परम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।१९।।
ॐ ह्रीं श्री रत्नत्रयधारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ कुन्दकुन्द की वाणी में, उपचार महाव्रति को वन्दन।
लज्जा शीलादि गुणों से युुत, आर्यिका परमपद को वन्दन।।
गणिनी सुलोचना सम तुमको भी, मिले अंग का ज्ञान सुगम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२०।।
ॐ ह्रीं श्री उपचारमहाव्रतिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ वीरप्रभू के बाद प्रथम, इतिहास रचा माँ तुम्हें नमन।
ग्रन्थों की रचना करने वाली, पहली साध्वी को वन्दन।।
फिर तो अनेक माताओं ने भी, किये ग्रन्थ के शुभ लेखन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२१।।
ॐ ह्रीं श्री प्रथमग्रंथरचनाकर्त्र्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ अष्टसहस्री का हिन्दी, अनुवाद किया माँ तुम्हें नमन।
सर्वोच्च न्याय का ग्रन्थ जिसे, कहते हैं कष्टसहस्री हम।।
सन् उन्निस सौ उनहत्तर सत्तर, में वह ग्रन्थ हुआ पूरण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२२।।
ॐ ह्रीं श्री अष्टसहस्रीअनुवादिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ज्ञान ध्यान गुण युक्त साधुगुणधारी माता को वन्दन।
उनके द्वारा उपलब्ध अनेकों, नवनिर्माणों को वन्दन।।
नारी की कोमल काया को, कर लिया तपस्या से चन्दन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२३।।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानध्यानसमन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जग के दिशाभ्रमित जीवों को, मार्ग बतातीं उन्हें नमन।
हो खानपान अरु खानदान की, शुद्धि कहें ये आर्षवचन।।
करतीं प्रभावना हैं लेकिन, आगमविरुद्धता नहीं सहन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२४।।
ॐ ह्रीं श्री सन्मार्गदर्शिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ब्राह्मी का पथ बतलाने, वाली माता को है वन्दन।
इस शान्ति सिन्धु के हीरे की, चैतन्य प्रभा को सदा नमन।।
नारी स्वतंत्रता का झण्डा, लेकर चल पड़ीं स्वयं ही तुम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२५।।
ॐ ह्रीं श्री ब्राह्मीपथप्रदर्शिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ प्रातः से संध्या तक अपनी, क्रिया करें जो उन्हें नमन।
अट्ठाइस कायोत्सर्गों में जो, सदा सजग उनको वंदन।।
सामायिक प्रतिक्रमण एवं, स्वाध्याय आदि में सदा मगन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२६।।
ॐ ह्रीं श्री आवश्यकनिरतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शिष्यों पर समुचित अनुग्रह, करने वाली माँ को वंदन।
है चुम्बकीय व्यक्तित्व तथा, वात्सल्यपूर्ण गुरु अनुशासन।।
ज्ञानामृत की घूंटी से ये, शिष्यों का करतीं सदा सृजन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२७।।
ॐ ह्रीं श्री शिष्यानुग्रहप्रवीणायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ सभी वर्ग को हित का मार्ग, बताती हैं जो उन्हें नमन।
व्यसनों का त्याग कराने वाली, ज्ञानमती माँ को वन्दन।।
इनकी यात्राओं से मानव, शाकाहारी बन गये स्वयं।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२८।।
ॐ ह्रीं श्री हितोपदेशिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ धर्ममार्ग से विचलित को, स्थिर करतीं जो उन्हें नमन।
संघर्ष झेलकर भी पतितों को, सदा बनातीं जो पावन।।
अपकार करे कोई कितना, फिर भी करतीं उनका सिंचन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।२९।।
ॐ ह्रीं श्री स्थितिकरणांगधारिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शिष्योंं के दोषों को प्रगट, न करतीं उन माँ को वन्दन।
प्रायश्चित्तादि विधी से उनकी, शुद्धि करें कह शान्त वचन।।
इस अपरिस्रावी गुण से शिष्यों, के हो जाते दोष शमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३०।।
ॐ ह्रीं श्री अपरिस्राविगुणसंयुक्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ पावन तप कौमार्य अवस्था, ब्रह्मचर्यव्रत तुम्हें नमन।
यह तप कितने संघर्षों का, क्षण में कर देता है खण्डन।।
नारी की कोमलता को तुम, दे रहीं चुनौती बन कुन्दन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३१।।
ॐ ह्रीं श्री कौमार्यतपोयुक्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ इनकी तेजप्रभा जैसी, आभा न दिखी कहिं इन्हें नमन।
देखी प्रतिभाएं कई मगर, नहिं मिला मुझे यह आकर्षण।।
उत्तर भारत की इस प्रतिभा से, आलोकित चउविध उपवन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३२।।
ॐ ह्रीं श्री अप्रतिमप्र्रतिभायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ चलती फिरती तीर्थ तुम्हारी, पादधूलि को भी वन्दन।
नारी की महिमा नारायण, सम भी कहते हैं विद्वज्जन।।
प्रभु भक्ति नाव से स्वपर जनों को, सदा तिरातीं तीरथ तुम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३३।।
ॐ ह्रीं श्री चैतन्यतीर्थस्वरूपायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ मुनि सुकुमाल समान काय, सुकुमारी माता तुम्हें नमन।
माता की ममता इसीलिए, रोती थी लख तुम कोमल तन।।
गर्मी सर्दी अरु क्षुधा तृषा की, फिर भी बाधा करी सहन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३४।।
ॐ ह्रीं श्री सुकुमारिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ नियमसार स्याद्वादचंद्रिका, संस्कृतटीका को वंदन।
श्री कुंदकुंद कृत ग्रंथराज के, रत्नत्रय को किया ग्रहण।।
इस कलियुग में ऐसी टीकाकर्त्री का हम करते दर्शन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३५।।
ॐ ह्रीं श्री नियमसारग्रंथस्य स्याद्वादचंद्रिकासंस्कृतटीकाकर्त्र्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ पुष्पदन्त के षट्खण्डागम, ग्रन्थ ज्ञानयुत तुम्हें नमन।
श्री भूतबली आचार्य रचित, सूत्रों पर सदा करें चिन्तन।।
श्री वीरसेन स्वामी विरचित, धवला टीका में रुची गहन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३६।।
ॐ ह्रीं श्री षट्खंडागमज्ञानसंयुक्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ षट्खण्डागम की संस्कृत, टीका रचयित्री को वन्दन।
चिन्तामणि सम फल देने वाली, यह इस युग की कृती प्रथम।।
श्री वीरसेन आचार्य सदृश, सिद्धान्त ज्ञान का भाव प्रबल।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३७।।
ॐ ह्रीं श्री सिद्धांतचिंतामणिटीकाकर्त्र्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ सैद्धान्तिक ग्रन्थों की माता, चक्रेश्वरि माँ तुम्हें नमन।
श्रुतज्ञानावरणी कर्मक्षयोपशम, से कर पाईं ज्ञानार्जन।।
है वर्तमान गौरवशाली, पाकर ज्ञानी माता सा धन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३८।।
ॐ ह्रीं श्री सिद्धान्तचक्रेश्वर्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ चउ शत ग्रन्थों की रचनाकर्त्री माता को शत वन्दन।
प्रारंभ हुआ प्रभु सहस्रनाम, मंत्रों से जिनका शुभ लेखन।।
बालक विद्वान युवा नारी, सबको जिनकी कृतियाँ अनुपम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।३९।।
ॐ ह्रीं श्री चतु:शतग्रन्थरचनाकर्त्र्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शरदपूर्णिमा की संपूर्ण, कला संयुत माँ तुम्हें नमन।
ज्ञानामृत से परिपूर्ण ज्ञान की, अमिट चाँदनी तुम्हें नमन।।
माँ मोहिनि ने कन्या पाकर, अपना मातृत्व किया था धन्य।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४०।।
ॐ ह्रीं श्री पूर्णशशिकलायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ वर्तमान में अंगज्ञान नहिं, अंशज्ञानयुत मात नमन।
चारों अनुयोगों में निबद्ध, जिनवाणी का करतीं चिन्तन।।
वह द्वादशांग का अंश आज, साकार कर रही हो माँ तुम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४१।।
ॐ ह्रीं श्री अंगांशश्रुतधारिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ वीरसिन्धु की परम्परा, रक्षण करतीं माँ तुम्हें नमन।
अपने गुरुवर की शिक्षा का, जीवन में सदा किया पालन।।
यह पावन परम्परा हम सबके, जीवन को भी करे चमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४२।।
ॐ ह्रीं श्री गुरुपरम्परारक्षिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ पाठक उपाध्याय सम हे, माता पाठिका तुम्हेंं वन्दन।
शिष्यों को पढ़ा पढ़ा करके, स्वयमेव कर लिया ज्ञानार्जन।।
इस युग की सरस्वती कहते, जिनको इस युग के विद्वज्जन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४३।।
ॐ ह्रीं श्री पाठिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ भव्यों का अज्ञान तिमिर, हरने वाली माँ तुम्हें नमन।
अपने प्रवचन के माध्यम से, करती हो सबका मन पावन।।
स्याद्वाद सूर्य से आलोकित, मस्तिष्क ज्ञान का है उपवन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४४।।
ॐ ह्रीं श्री अज्ञानतिमिरविनाशकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ धरती माता के समान, हो क्षमाशालिनी तुम्हें नमन।
पूजक निंदक दोनों के प्रति, समताधारी माँ तुम्हें नमन।।
इनके प्रयत्न से जगह-जगह, संघर्ष प्रेममय बनते मन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४५।।
ॐ ह्रीं श्री क्षमाशालिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शुभ कार्यों में दृढ़संकल्पी, ज्ञानमूर्ति माँ तुम्हें नमन।
संघर्षों में भी नहीं डिगीं, मेरू सम अचल रहीं हरदम।।
मानो उस दृढ़ता का प्रतीक, साकार सुमेरू नन्दन वन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४६।।
ॐ ह्रीं श्री दृढ़संकल्पिन्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शुक्लभावयुत श्वेतवस्त्र, धारण करतीं माँ तुम्हें नमन।
बस एक वस्त्र के द्वारा मूल-गुणों का करती हो पालन।।
देवी सी मनमोहक मुद्रा, दिखता चेहरे पर तेज प्रबल।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४७।।
ॐ ह्रीं श्री श्वेतवस्त्रधारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ संयम का उपकरण मोर, पिच्छीधारी माँ तुम्हें नमन।
बिन पिच्छी के निर्वाण नहीं, श्री कुन्दकुन्द के यही वचन।।
इस भव में स्त्रीलिंग छिदेगा, अगले भव हो मोक्ष गमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४८।।
ॐ ह्रीं श्री मयूरपिच्छिकासहितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जिनवर वाणी से चिन्हित, ग्रन्थों को पढ़तीं तुम्हें नमन।
जो सदा पढ़ें या लिखें उन्हें ही, कहें ज्ञानमति श्रावकजन।।
ग्रन्थों के सागर से चुन चुन कर, देती हो मोती अनुपम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।४९।।
ॐ ह्रीं श्री जिनवाणीचिन्हितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ज्ञानकीर्ति का दिग्दर्शक, ध्वजचिन्ह सहित माँ तुम्हें नमन।
करतल की रेखाओं में वह ध्वज, बना हुआ है सुन्दरतम।।
निज अगणित कार्यकलापों से, पाती हो दुनियाँ में वन्दन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५०।।
ॐ ह्रीं श्री ध्वजचिन्हसमन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जन्मकुंडली राजयोग, गुण दर्शाती माँ तुम्हें नमन।
राजाओं को भी धर्मनीति, सिखलातीं माता तुम्हें नमन।।
तुमसे लें आशीर्वाद केन्द्र एवं प्रादेशिक नेतागण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५१।।
ॐ ह्रीं श्री राज्ायोगगुणसमन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ सभी आर्यिका माताओं में, शिरोमणी माँ तुम्हें नमन।
अपनी आगमचर्या से तुम, करती हो सबका निर्देशन।।
संगोष्ठी शिविर विधान आदि से, करवाती हो ज्ञानार्जन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५२।।
ॐ ह्रीं श्री आर्यिकाशिरोमणये नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ न्यायप्रभाकर पदवी युत, हे ज्ञानमती माँ तुम्हें नमन।
वर अष्टसहस्री न्यायसार, आदिक ग्र्रन्थों का किया सृजन।।
अन्यायमयी कलियुग में तुमने, किया न्याय रवि का प्रगटन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५३।।
ॐ ह्रीं श्री न्यायप्रभाकरपदव्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शान्तहृदययुत परमशांत, मुद्राधारी माँ तुम्हें नमन।
है मन्द मन्द मुस्कान तुम्हारी, मुद्रा का अति आकर्षण।।
वे शान्तमयी परमाणु जगत में, पैâलाते हैं शांति परम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५४।।
ॐ ह्रीं श्री शांतमुद्राधारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ परमसाधिका की भावी, पर्याय सिद्ध को करूँ नमन।
इक दिन तो सिद्ध बनेंगी ही, जब आज मिला सम्यग्दर्शन।।
है शक्तिरूप से सब जीवों की, आत्मा सिद्धस्वरूप शिवम्।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५५।।
ॐ ह्रीं श्री परंपरापर्यायसिद्धसमन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ आत्मा के भव्यत्व स्वगुण से, सहित मात को नित वन्दन।
सम्मेदशिखर के वन्दन से, हो गई परीक्षा सर्वोत्तम।।
यह भाव पारिणामिक आत्मा में, होता है साकार स्वयम्।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५६।।
ॐ ह्रीं श्री भव्यत्वगुणसहितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ हे श्रुतज्ञानदिवाकर तेरी, ज्ञानप्रभा को करूँ नमन।
नहिं आज कोई विद्वान् जगत में, दिखता है हे माँ! तुम सम।।
आगम के दर्पण में हर शंका, का उत्तर मिलता प्रतिक्षण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५७।।
ॐ ह्रीं श्री श्रुतज्ञानदिवाकरप्रभायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ प्रथम पट्ट आचार्य वीरसागर शिष्या को करूँ नमन।
चारित्रचक्रवर्ती शान्तीसागर की आज्ञा का प्रतिफल।।
इन प्रथम बालसति के गुरुवर को, शत-शत बार करूँ वन्दन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५८।।
ॐ ह्रीं श्री वीरसागराचार्यस्य शिष्यायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ इतिहासों की निर्मात्री, युगप्रमुख मात तुमको वन्दन।
हे माँ तेरे उपकारों को, जगती न चुकाने में सक्षम।।
युग के सूरज चन्दा तारे, तेरी छवि देख रहे स्वर्णिम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।५९।।
ॐ ह्रीं श्री युगप्रमुखायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ निज महिमा से सर्वविघ्न, हरने वाली माँ तुम्हें नमन।
भक्तों के तुम वन्दन से भी, होते परोक्ष में विघ्न शमन।।
मानो कोई दैवी शक्ती, भक्तों के करती रोग हरण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६०।।
ॐ ह्रीं श्री विघ्नसंहारिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ आर्षमार्ग जिनवरप्रणीत, बतलातीं माता तुम्हें नमन।
उसका न उलंघन किया कभी, ज्ञानी का यह लक्षण अनुपम।।
अपनी वंशावलि में तुमने, शास्त्रीय मार्ग ही किया चमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६१।।
ॐ ह्रीं श्री आर्षमार्गसंवाहिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शीघ्र ग्रहण करने वाली, हे सरस्वती माँ तुम्हें नमन।
जग को पहचान न पातीं पर, निज को पहचान रही हो तुम।।
इक बार ग्रन्थ यदि देख लिया, तो धारण कर लेतीं निजमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६२।।
ॐ ह्रीं श्री उत्तमधारणाशक्तिसमन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ द्वादशांग सिद्धान्त कहा है, कल्पवृक्ष सुंदर उपवन।
उसकी ही एक कली बनकर, प्रगटाती हो तुम ज्ञान विमल।।
उस ज्ञानप्रभा के द्वारा तुम, करतीं सैद्धान्तिक ग्रंथ सृजन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६३।।
ॐ ह्रीं श्री सिद्धान्तकल्पतरुकलिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ऋषभदेव के समवसरण का, श्रीविहार करवाया तुम।
आशीर्वाद लेकर प्रधानमंत्री ने किया प्रवर्तन रथ।।
हुआ भारतभ्रमण पुनः प्रयाग, तीरथ पर उसका स्थापन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६४।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवसमवसरणश्रीविहार प्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ऋषभदेव दीक्षाभूमी, तीरथ प्रयाग को किया चमन।
वटवृक्ष तले ध्यानस्थ जहाँ, प्रभु खड्गासन प्रतिमा अनुपम।।
प्रभु समवसरण एवं वैâलाशगिरी को वंदन करूँ प्रथम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६५।।
ॐ ह्रीं श्री तीर्थंकरऋषभदेवदीक्षास्थलीप्रयागतीर्थप्रणेत्र्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ऋषभदेव निर्वाण महोत्सव, की प्रेरिका तुम्हें वंदन।
सन् दो हजार में प्रधानमंत्री, द्वारा हुआ था उद्घाटन।।
तब देश विदेशों में पैâला, प्राचीन अनादी जिनशासन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६६।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवस्यअन्तर्राष्ट्रीयनिर्वाणमहोत्सव सम्प्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ महावीर ज्योती रथ की, पावन प्रेरिका तुम्हें वंदन।
प्रभु वीर जन्मभूमी कुण्डलपुर, का संदेश दिया सुंदर।।
हर नगर गली में गूंज उठी, प्रभु वर्धमान की जय जय ध्वनि।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६७।।
ॐ ह्रीं श्री भगवानमहावीरज्योतिरथप्रवर्तन सम्प्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ कुण्डलपुर तीरथ विकास की, सम्प्रेरिका तुम्हें वंदन।
प्रभु के छब्बिससौवें जन्मोत्सव, को सार्थक कर दिया नमन।।
मंदिर के संग संग बना जहाँ, इक सुंदर नंद्यावर्त महल।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६८।।
ॐ ह्रीं श्री भगवानमहावीरजन्मभूमि कुण्डलपुर विकासिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ चौबिस तीर्थंकर की सोलह, जन्मभूमियों को वंदन।
उन सब तीर्थों का हो विकास, उपदेश करें यह मात नमन।।
कितनी ही जन्मभूमियों को, करवाया तुमने स्वयं चमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।६९।।
ॐ ह्रीं श्री चतुर्विंशति तीर्थंकरजन्मभूमिविकास सम्प्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ऋषभगिरि मांगीतुंगी के, ऋषभदेव को करूँ नमन।
इक सौ अठ फिट प्रतिमा जी की, निर्माण प्रेरणा है अनुपम।।
ये सब निधियाँ मिलतीं जग को, तुम ध्यान प्रेरणा के कारण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७०।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभगिरि मांगीतुंगीसिद्धक्षेत्रे शताष्टफुटोन्नतऋषभदेवप्रतिमानिर्माण सम्प्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ शिष्याओं को दीक्षा देने, वाली गणिनी तुम्हें नमन।
उनमें से इक चन्दनामती, शिष्या ने पाया सम्बोधन।।
कितनी शिष्याओं को गुरु से, दीक्षाएं दिलवाईं अनुपम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७१।।
ॐ ह्रीं श्री दीक्षाप्रदायिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ अखिल विश्व में जिनसंस्कृति, पैâलाती हो माँ! तुम्हें नमन।
दिल्लीवासी भक्तों ने विश्व-विभूती कह कर किया नमन।।
ऐसी विभूतियाँ कभी-कभी, लेती हैं इस धरती पे जनम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७२।।
ॐ ह्रीं श्री विश्वविभूतिपदवीसमन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ऐसी तपस्विनी माता से, राष्ट्र सदा होता पावन।
भौतिकता में आध्यात्मिकता का, जिनसे मिलता आस्वादन।।
इसलिए राष्ट्रगौरव उपाधि दे, महाराष्ट्र ने किया नमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७३।।
ॐ ह्रीं श्री राष्ट्रगौरवअभिनंदनयुक्तायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ कलियुग की शारदमाता, हे ज्ञानमती माँ! तुम्हें नमन।
आरा समाज के भक्तों ने, कर लिया निधी का मूल्यांकन।।
वाग्देवी पद से अभिनन्दन कर, किया मातपद में वन्दन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७४।।
ॐ ह्रीं श्री वाग्देवीपदवीअलंकृतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माँ, मैं तुम चरणों में करूँ नमन।
धरती अम्बर सूरज तारे, कर रहे तुम्हारा अभिनन्दन।।
युग युग तक तुम जीवन्त रहो, इस साधुजगत की आभूषण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७५।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुखश्रीज्ञानमती मात्रे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ सूरत नगरी के श्रावकगण, करके बारम्बार नमन।
कहकर तुमको युुगश्रेष्ठ गुरु माँ, पुन: कर लिया अभिवंदन।।
देकर गुरुमाता को उपाधि, वे समझें निज जीवन को धन्य।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७६।।
ॐ ह्रीं श्रीयुगश्रेष्ठगुरुमात्रे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ हे माँ! तुम प्राचीन मूर्ति सम, अतिशय पूजा योग्य कहीं।
नहिं आज कोई हैं संत-साध्वी, इतने वर्षों के दीक्षित।।
तेरी तप-त्याग साधना को हम, करते बारम्बार नमन।।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७७।।
ॐ ह्रीं प्राचीनप्रतिमासमअतिशयकारिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ तीर्थ हस्तिनापुर में तेरहद्वीप जिनालय है सुन्दर।
उस स्वर्णमयी रचना को लखकर, आनन्दित होता हर मन।।
वहाँ राजित इक्किस सौ सत्ताइस प्रतिमाओं को करूँ नमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७८।।
ॐ ह्रीं हस्तिनापुरतीर्थे स्वर्णिम तेरहद्वीपरचनानिर्माणप्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ महाराष्ट्र की रजधानी, मुम्बई नगरी में माता ने।
इतिहास बनाया करके वर्षायोग, सभी के आग्रह से।।
संगोष्ठी-शिविर-विधान और भी हुए अनेकों आयोजन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७९।।
ॐ ह्रीं सातिशयप्रभावनात्मक इतिहास निर्मात्र्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ तीर्थ हस्तिनापुर में तेरहद्वीप जिनालय है सुन्दर।
उस स्वर्णमयी रचना को लखकर, आनन्दित होता हर मन।।
वहाँ राजित इक्किस सौ सत्ताइस प्रतिमाओं को करूँ नमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७८।।
ॐ ह्रीं हस्तिनापुरतीर्थे स्वर्णिम तेरहद्वीपरचनानिर्माणप्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ महाराष्ट्र की रजधानी, मुम्बई नगरी में माता ने।
इतिहास बनाया करके वर्षायोग, सभी के आग्रह से।।
संगोष्ठी-शिविर-विधान और भी हुए अनेकों आयोजन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।७९।।
ॐ ह्रीं सातिशयप्रभावनात्मक इतिहास निर्मात्र्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ वृषभेश्वर प्रभु की सर्वोच्च, मूर्ति दुनिया में हुई प्रसिद्ध।
हुआ पहली बार जैनमूर्ति का, नाम विश्वरिकॉर्ड में दर्ज।।
इक अखण्ड पाषाणखण्ड में, मूर्ति बनी है सर्वप्रथम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८०।।
ॐ ह्रीं विश्वकीर्तिमान निर्मापिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ज्ञानमती माताजी की, हर इच्छा पूरी होती है।
क्योंकी इनके चिन्तन अरु वचनों में इक अद्भुत शक्ती है।।
उन दिव्यशक्ति माँ ज्ञानमती को मेरा शत-शत बार नमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८१।।
ॐ ह्रीं दिव्यशक्ति पदवी समन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ माता तुम अमृतनिर्झरिणी, ज्ञानामृत बरसाती हो।
निज ज्ञानरश्मियों के द्वारा, जग में प्रकाश पैâलाती हो।।
उस ज्ञानसूर्य से हम भी कर लें, निज अन्तर्मन अवलोकन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८२।।
ॐ ह्रीं अमृतनिर्झरिण्यै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ ज्ञानमती माताजी ने, निज अगणित कार्यकलापों से।
भारत का गौरव खूब बढ़ाया है धार्मिक संस्कारों से।।
इसलिए ब्रिटिश पार्लियामेंट ने, ‘भारतगौरव’ कह किया नमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८३।।
ॐ ह्रीं भारतगौरव पदवीधारिका गणिनीश्रीज्ञानमतीमात्रे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ टी.एम.यू.१ उत्तरप्रदेश के, जिला मुरादाबाद में है।
वहाँ के कुलाधिपति ने श्रद्धा से, डी.लिट्. की पदवी दी है।।
इन प्रथम डबल डी.लिट्. डॉक्टर साध्वी को हम करते वन्दन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८४।।
ॐ ह्रीं जैनशासन परम्परायां प्रथम डबल डी.लिट्. डॉक्टर पदवी समन्वित श्री ज्ञानमतीमात्रे नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ हे माता! तव रूप में होते, सरस्वती माँ के दर्शन।
इसलिए ‘शारदे माँ’ कहकर, मुम्बई वालों ने किया नमन।।
हमको भी मिल जावे माता, तेरे श्रुतज्ञान का सुखद चमन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८५।।
ॐ ह्रीं ‘शारदे माँ’ उपाधिनालंकृतायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ तन तो है प्राचीन मगर, इनका है नया अनूठा मन।
कहती हैं धर्मप्रभावन में उपयोग करो नवसंसाधन।।
बन गया जैन इन्साइक्लोपीडिया, इंटरनेट पे सर्वप्रथम
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८६।।
ॐ ह्रीं इंटरनेटमाध्यमेन जैनइनसाइक्लोपीडिया निर्माणप्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में, तीनलोक रचना सुन्दर।
उसमें निगोद से लेकर सिद्धशिला तक का सम्यक् वर्णन।।
नरकों के दु:ख स्वर्गों के सुख लख, करें कर्म फल का चिन्तन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८७।।
ॐ ह्रीं हस्तिनापुरतीर्थ जम्बूद्वीपतीर्थपरिसरे तीनलोक रचना निर्माणप्रेरिकायै नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ जम्बूद्वीप हस्तिनापुर में शांतिनाथ का समवसरण।
धरती से बहत्तर फुट ऊपर रचना का अद्भुत आकर्षण।।
अन्दर देखो तो लगता है सचमुच का ही है समवसरण।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८८।।
ॐ ह्रीं जम्बूद्वीपतीर्थपरिसरे भगवत: शांतिनाथस्य आगमोक्तसमवसरण रचनानिर्माणप्रेरिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ महावीर के प्रथम शिष्य, श्री गौतम स्वामी जी हैं।
वह गौतमगणधर की वाणी का, जन-जन को ज्ञान कराती हैं।।
ग्रन्थों व पुराणों के रहस्य को, कर देती हैं मक्खन सम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।८९।।
ॐ ह्रीं श्रीगौतमगणधरवाणीप्रकाशिकायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ॐ हे वात्सल्यप्रभाकर माता, करें तुम्हें शत बार नमन।
ऐसा निश्छल वात्सल्य नहीं मिलता माँ धरती पर तुम सम।।
इक बार करे दर्शन जो नहिं, जाना चाहे वापस घर मन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो यह अर्घ्य सुमन।।९०।।
ॐ ह्रीं वात्सल्यप्रभाकर पदवीसमन्वितायै नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
–पूर्णार्घ्य-
ॐ ज्ञानमती से श्री वात्सल्यप्रभाकर तक सार्थक जीवन।
हे माधोराजपुरा में दीक्षित, युगनायिका तुम्हें वन्दन।।
संयम के सत्तर वर्ष, पार कर किये कार्य हैं अमृत सम।
हे गणिनी माता ज्ञानमती, स्वीकार करो पूर्णार्घ्य सुमन।।१।।
ॐ जैनधर्म की श्रीप्रभावना में माता तुम सर्वोत्तम।
भारत के चार िराष्ट्रपतियों ने आ तुम पद में किया नमन।।
तब धर्मनीति और राजनीति दोनों में खिला धर्म उपवन।
हे गणिनी माता ज्ञानमती स्वीकार करो जग का वन्दन।।२।।
ॐ ह्रीं श्री ज्ञानमत्यादिवात्सल्यप्रभाकरपर्यन्तविशेषणसमलंकृतायै
पूज्य युगनायिकागणिनीप्रमुखआर्यिकाशिरोमणिश्रीज्ञानमतीमात्रे पूर्णार्घ्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानप्राप्तये गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे नमः।
(सुगंधित पुष्प, लवंग या पीले चावल से पुष्पांजलि करें।)
दोहा
ज्ञानमती को नित नमूँ, ज्ञान कली खिल जाय।
ज्ञानज्योति की चमक में, जीवन मम मिल जाय।।
धुन-नागिन-मेरा मन डोले…..।
हे बालसती, माँ ज्ञानमती, हम आए तेरे द्वार पे,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।
शरद पूर्णिमा दिन था सुन्दर, तुम धरती पर आईंं।
सन् उन्निस सौ चौंतिस में माँ, मोहिनि जी हर्षाईं।। माता…।।
थे पिता धन्य, नगरी भी धन्य, मैना के इस अवतार पे,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।१।।
बाल्यकाल से ही मैना के, मन वैराग्य समाया।
तोड़ जगत के बंधन सारे,छोड़ी ममता माया।। माता….।।
गुरु संग मिला, अवलम्ब मिला, पग बढ़े मुक्ति के द्वार पे,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।२।।
शान्तिसिन्धु की प्रथम शिष्यता, वीरसिन्धु ने पाई।
उनकी शिष्या ज्ञानमती जी ने ,ज्ञान की ज्योति जलाई।। माता….।।
शिवरागी की, वैरागी की, ले दीप सुमन का थाल रे,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।३।।
माता तुम आशीर्वाद से, जम्बूद्वीप बना है।
हस्तिनापुर की पुण्यधरा पर, वैâसा अलख जगा है।। माता….।।
ज्ञान ज्योति चली, जग भ्रमण करी, तेरे ही ज्ञान आधार पे,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।४।।
तीर्थ अयोध्या-मांगीतुंगी, का विकास करवाया।
फिर प्रयाग में तपस्थली का, नूतन तीर्थ बनाया।। माता…..।।
प्रभु समवसरण, रथ हुआ भ्रमण, श्री ऋषभदेव के नाम का,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।५।।
कुण्डलपुर तीरथ विकास की, नई प्रेरणा आई।
महावीर की जन्मभूमि में, अगणित खुशियाँ छाईं।। माता…।।
महावीर ज्योति, रथ से उद्योत, कर दिया पुनः संसार को,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।६।।
तीर्थंकर की जन्मभूमियों, का विकास करवाया।
पार्श्वनाथ के उत्सव का फिर, तुमने बिगुल बजाया।। माता…….।।
संदेश दिया, उपदेश दिया, भावना हुई साकार है,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।७।।
यथा नाम गुण भी हैं वैसे, तुम हो ज्ञान की दाता।
तुम चरणोें में आकर के हर, जनमानस हर्षाता।।माता….।।
साहित्य सृजन, श्रुत में ही रमण, कर चलीं स्वात्म विश्राम पे,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।८।।
गणिनी माता के चरणों में, यही याचना करते ।
कहे ‘‘चन्दनामती’’ ज्ञान की , सरिता मुझमें भर दे।।माता…..।।
ज्ञानदाता की, जगमाता की, वन्दना करूँ शतबार मैं,
शुभ अर्घ्य संजोकर लाए हैं।।९।।
-दोहा-
लोहे को सोना करे, पारस जग विख्यात।
तुम जग को पारस करो, स्वयं ज्ञानमति मात।।१०।।
ॐ ह्रीं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती मात्रे जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
-शंभुछंद-
जो गणिनी ज्ञानमती माता की, करें महापूजा रुचि से।
वे ज्ञानामृत से निज मन को, पावन कर अभिसिंचित करते।।
इस शरदपूर्णिमा के चन्दा की, ज्ञानरश्मियाँ बढ़ें सदा।
‘‘चन्दनामती’’ युग युग तक यह, आलोक जगत को मिले सदा।।
।।इत्याशीर्वादः, पुष्पांजलिः।।