(पंचम_खण्ड)
समाहित विषयवस्तु
१. माताजी के व्यक्तित्व का वर्णन महा कठिन है।
२. माता पूर्णचंद्र का रूप।
३. मैना—यथा नाम तथा गुण।
४. मैना—सुंदर-सुसंस्कृत-सर्वगुणसम्पन्न-श्रेष्ठतमा
५. पुत्री के लक्षण पालने में प्रकट।
६. सम्यक्त्व गुणोपेता।
७. मिथ्यात्व तमस भंजिका।
८. देविस्वरूपा।
९. संवेदनशीला।
१०. अबला नहीं प्रबला।
११. कुमारियों की पथदर्शिका।
१२. संघर्ष विजेत्री।
१३. जन्म और दीक्षा तिथि एक-अद्भुत संयोग।
१४. बालयोगिनी, वरिष्ठतमा एवं श्रेष्ठतमा साध्वी।
१५. बीसवीं सदी की प्रथम साध्वी, ऐतिहासिक साध्वी।
१६. पदविहार में सुकुमाल की याद।
१७. संयम भागीरथी।
१८. क्षुल्लिका वीरमती एक सार्थक नाम।
१९. आत्मकल्याण की प्रबलेच्छा।
२०. वीरमती सर्वोत्तम साध्वी।
२१. ज्ञानमती ने अपने नाम को सार्थक किया। २
२. सर्वोत्तमता से शोभित आर्यिका।
२३. सर्वमंगलमय आर्यिका।
२४. लेखन प्रवचन-पठन-पाठन सभी विशेषताओं से भरपूर।
२५. शशांक-सुधाकर की अभिरूप।
२६. प्रखरबुद्धि-प्रत्युत्पन्नमति सम्पन्न।
२७. गुरुणां गुरु।
२८. आदि इतिहास की पुनरावृत्ति करने वाली।
२९. समता स्वमुखी।
३०. मद से दूर-विनयशील।
३१. तप-त्याग में अग्रणी।
३२. लेतीं कम, देतीं अधिक, सतत साधना काम।
३३. उपसर्गजयी, परिषहजयी।
३४. करुणा कलित हृदय।
३५. वज्रादपि कठोर, कसुमादपि मृदु।
३७. पूर्व संयमी नारियों का आदर्श अक्षुण्ण रखा।
३८. चतुर्थकालीन निर्दोष चर्या की पालक।
३९. चन्दा-चिट्ठा से दूर।
४०. उद्दिष्ट आहार की त्यागी साध्वी।
४१. विलक्षण प्रतिभा की धनी।
४२. वाग्देवी, श्रुतदेवी, सरस्वती, शारदा की अवतार।
४३. तीन सौ ग्रंथों की रचयित्री।
४४. प्रथम नारी लेखिका।
४५. भव-तन-भोग-विरक्ती।
४६. अयाचकवृत्तिसम्पन्ना।
४७. स्व-पर कल्याण निरत।
४८. क्षेत्रोद्धारिका।
४९. अद्भुत संकल्पशक्ति सम्पन्ना।
५०. सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप प्रदान किया।
५१. जम्बूद्वीप-तेरहद्वीप-जैन भूगोल की साकार प्रस्तुति।
५२. नर से भारी नारी।
५३. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगिनी।
५४. सर्वात्म सुखाय साहित्य रचयित्री।
५५. नूतन क्षेत्र निर्मात्री।
५६. निस्पृह साध्वी।
५७. प्रत्येक क्षण का सही उपयोग।
५८. अमर-उत्कृष्ट साहित्य की निर्मात्री।
५९. सर्वोपयोगी, सर्वस्तरीय साहित्य की लेखिका।
६०. शिविर-सम्मेलन की प्रेरिका ।
६१. सूरज एवं चंद्रमा के गुण एक साथ।
६२. सागर एवं हिमालय की महिमा-गरिमा का समन्वय।
६३. विद्वत् कल्पलता।
६४. सबसे सुलभ दर्शन देने वाली माँ।
६५. असाधारण-अनन्वय-अनुपम व्यक्तित्व की धनी।
६६. अनेक उपाधियों से अलंकृत।
६७. पदविहार कर सम्पूर्ण देश में अहिंसा-सदाचार-शाकाहार का प्रचार किया।
६८. प्रासुक लेखन और प्रासुक लेखिनी।
६९. परनिंदा और आत्मप्रशंसा से रहित।
७०. लेखन में विषय वस्तु से तद्रूपता।
७१. अनेक युगों के बाद कभी-कभी ऐसी प्रतिभा का जन्म होता है।
७२. धरा सी सहनशील/क्षमाशील, जल सी शीतल वाणी, अग्नि सी ऊर्जा सम्पन्न, वायु सी सतत कर्मशील और आकाश सी उदार हृदयसम्पन्ना।
७३. वात्सल्य मूर्ति ७४. ज्ञान-ध्यान-तपोरक्ता।
कार्य असंभव, संभव करने, मन मेरा ललचाया है।
तुंग वृक्ष के फल चखने को, वामन हाथ बढ़ाया है।।
कागज की नौका से मैंने, ठाना है सागर तरना।
होकर पंगु, सुमेरु शिखर पर, चाहूँ आरोहण करना।।१४८१।।
मंद बुद्धि, मन मार के बैठूँ, यह तो पुरुष का अर्थ नहीं।
सद् प्रयत्न, एकाग्री मन के, कभी भी जाते व्यर्थ नहीं।।
फिर जिसके शिर के ऊपर हों, श्री गुरु के वरदायी कर।
कार्य सफल होने में उसके, रहती कोई नहीं कसर।।१४८२।।
यही सोच मैंने उमंग भर, शुरू किया यह कार्य कठिन।
क्योंकि सफलता उसे ही वरती, जिसका होता निर्भय मन।।
दृढ़श्रद्धा-संकल्प साथ ले, चला भक्ति का मेरा यान।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती का, नमन सहित करता गुणगान।।१४८३।।
नील गगन में, उगते रहते, आधे-अधूरे चंद्र अनेक।
किन्तु शरद पूर्णिमासी का, पूर्णचंद्र बस होता एक।।
फिर धरती पर, ऐसे चंद्र को, देखना चाहो बन्धु अगर।
यू.पी. मंडल बाराबंकी, चलो कस्बा टिकैतनगर।।१४८४।।
टिकैतनगर चंद्रिका उतरी, रूप में अतिशय सुंदर काम।
इसीलिए सुंदरी मैना, रखा गया पुत्री का नाम।।
धर्म-आचरण रस का सिंचन, गर्भ काल ही किया गया।
विद्या-बुद्धि-समर्पण-सेवा, संस्कार पुट दिया गया।।१४८५।।
गौर वर्ण, भालपट उन्नत, मुख जैसे शारद का चंद।
लोचन सुंदर, नील कमल ज्यों, छिपकर बैठे कृष्ण मिलिन्द।।
नाक नुकीली, अधर लाल हैं, कर-पग छोटे मन मोहैं।
फूट रही शैशव की आभा, अंग-अंग अनुपम सोहैं।।१४८६।।
जैसा नाम तथा ही पुत्री, सदा बोलती मीठे बोल।
सबका मन करती थीं मोहित, रखती आँगन अमृत घोल।।
रहीं बालक्रीड़ाएँ ऐसी, मात-पिता का शंकित मन।
रुचते नहीं कभी मैना को, स्वर्णरचित गृह के बंधन।।१४८७।।
नाम न केवल सम्बोधन है, नियति बता देता है यह।
मैं-ना घर में रह पाऊँगी, मैना नाम बताता कह।।
अहंकार का है प्रतीक मैं, नहीं करेगी यह बाला।
भव कानन मेंं रहे भटकता, अहंकार करने वाला।।१४८८।।
मैना नाम सार्थक करती, वाणी सबको भाती थी।
जो भी सुनता अमृत लगता, जब मैना तुतलाती थी।।
माता यदा आरती पढ़ती, पूजा करतीं, गाती थी।
छोटी मैना साथ बैठकर, ताली खूब बजाती थी।।१४८९।।
रूप तो है, पर गुण अभाव है, ऐसा होता कभी-कहीं।
और कभी गुण सन्निधान में, होता है सौन्दर्य नहीं।।
किन्तु बालिका मैना को हम, पाते हैं सुंदर गुणखान।
ऐसे चिन्हों से होती हैं, पुण्यवंत जीव पहचान।।१४९०।।
कोई कहता यह देवी है, कहें बनेगी साध्वी महान्।
अतिशय होनहार यह कन्या, कहें मनोहर से विद्वान्।।
रहे सत्य अनुमान सभी के, देवोत्तम गुण प्रतिभा है।
साध्वीरत्न, श्रेष्ठतम विदुषी, जिसकी कोई न उपमा है।।१४९१।।
बाल्यावस्था को कहते हैं, अज्ञान अवस्था विद्वज्जन।
खाने-पीने खेल-कूद में, कट जाते अमृत के क्षण।।
किन्तु बालिका मैना ने तो, हर क्षण सद् उपयोग किया।
घर-विद्यालय-मंदिर जी में, ज्ञानार्जन उद्योग किया।।१४९२।।
पूत के लक्षण दिखे पालने, मैना में चरितार्थ कथन।
मिथ्यात्व-अभक्ष्य त्याग के द्वारा, हुआ अलंकृत था बचपन।।
नाटक-प्रहसन-इत्यादि को, समझे लोग मनोरंजन।
लेकिन ज्ञानवती मैना ने, किया उन्हीं से पाठ ग्रहण।।१४९३।।
जब मैना ने होश संभाला, छाया था मिथ्यात्व सघन।
घर में पूजें देव-बाँयना, बाहर पूजें पीपल जन।।
चेचक अगर निकल आये तो, पूजा करें शीतला माँ।
अतिशय रूप दुखी होती थीं, देख-देख इसको मैना।।१४९४।।
शांत नहीं बैठीं लख मैना, बार-बार समझाया है।
भूले-भटके मूढ़जनों को, सच्चा मार्ग दिखाया है।।
एकांतवाद की आँधी रोकी, अनेकांत का दीप जला।
आगमसम्मत उपदेशों से, घर समाज का किया भला।।१४९५।।
अकलंक और निकलंक चरित से, ब्रह्मचर्यव्रत पाया है।
संयम को धारण कर नारी, जीवन स्वर्ण बनाया है।।
ग्वालिन-घी-मृत देख चींटियाँ, मैना त्यागा घृत बाजार।
मात्र नहीं घी, सकल वस्तुएँ, जो होती बाहर तैयार।।१४९६।।
तदाकाल नारी का जीवन, अबला भरी कहानी थी।
आँचल में था दूध और, आँखों में प्रासुक पानी था।।
चारों ओर विरोधी बादल, उमड़-घुमड़ करते तर्जन।
कार्यक्षेत्र नारी का घर है, करते बाह्य क्षेत्र वर्जन।।१४९७।।
पर मैना को रोक न पार्इं, घर-समाज की हथकड़ियाँ।
और नहीं बेड़ी बन पार्इं, माँ के आँसू की लड़ियाँ।।
बाँध नहीं पाया बाँहों में, पूज्य पिता का लाड़-दुलार।
नहिं संकल्प क्षीण कर पाई, बड़े जनों की भी फटकार।।१४९८।।
आचार्यश्री देशभूषण के, जब मैना पाये दर्शन।
तब दीक्षा के भाव जगे थे, भव-विरक्त मैना के मन।।
लेकिन चारों ओर खड़ी थीं, घर-समाज की दीवारें।
नारी वैद बनी थी उनमें, सुनें न कोई चीत्कारें।।१४९९।।
अब तक नहीं किसी कन्या ने, यह साहस कर पाया था।
और न ही अन्याय रोकने, बीड़ा कोई उठाया था।।
मैना देवी ऐसी कन्या, जिसने तोड़ी यह जंजीर।
बन कुमारियों की पथ दर्शक, लिख दी सोने की तकदीर।।१५००।।
यथा रसों में मधुर इक्षुरस, सर्व श्रेष्ठता पाता है।
ताप शमन में सरित जान्हवी, नाम शीर्ष पर आता है।।
तथा बालिका मैना को हम, उत्तम पाते बीस शती।
जिसकी निर्मल कीर्ति कौमुदी, दशों दिशा अधुना छिटकी।।१५०१।।
तीर्थंकर भगवन्तों द्वारा, कली धर्म की खिलती है।
जन्म और दीक्षा तिथि उनकी, प्राय: एक ही मिलती है।।
शरद पूर्णिमा को ही मैना, ब्रह्मचर्यव्रत पाया है।
जानबूझ इतिहास ने मानों, खुद को ही दुहराया है।।१५०२।।
आचार्य प्रवर देशभूषण से, सप्तम प्रतिमा व्रत लेकर।
रहने लगीं संघ गुरुवर के, श्वेत साटिका धारण कर।।
निर्मल-धवल धार गंगा की, महावीर जी क्षेत्र बही।
आचार्यश्री से दीक्षा पाकर, हुई क्षुल्लिका वीरमती।।१५०३।।
सन् त्रेपन उन्नीस वर्ष की, सुकुमारी, माँ वीरमती।
पदविहार में कोमल पगतल, छिलें बहे तब रुधिर अति।।
पढ़कर के इतिहास आपका, आँखों झूलें मुनिसुकुमाल।
लखकर धीरज वीरमती का, हम करबद्ध नमाते भाल।।१५०४।।
असौज कृष्ण एकम् सन् त्रेपन, दिवस रहा अतिशयकारी।
बीसशती में प्रथम कुमारी, कन्या ने दीक्षा धारी।।
संयम के इस स्वर्ण क्षेत्र में, रचा गया मणिमय इतिहास।
फैलाया माँ वीरमती ने, अनुपम संयम ज्ञान प्रकाश।।१५०६।।
आचार्य प्रवर देशभूषण जी, संघ सहित जब करें विहार।
श्री क्षुल्लिका वीरमती भी, करें अनुगमन संघ अनुसार।।
कवि मन में उपमा यों आई, आगे-आगे भागीरथ।
गंगा करे अनुसरण उनका, जैसा-जैसा जाते पथ।।१५०७।।
कार्य आपने किया वीर का, रूढ़ि श्रृंखला छिन्न करी।
संसार-शरीर-भोग-अनुरक्ति, तज विरागता सुदृढ़ वरी।।
वीर प्रभू का क्षेत्र अतिशयी, वहीं क्षुल्लिका पद आया।
नाम रहा अन्वर्थ-सार्थक, वीरमती हर मन भाया।।१५०८।।
सुरभित सकल पदार्थों जैसे, चंदन होता है शिरमौर।
अथवा जैसे कमल पुष्प-सा, उत्तम सुमन न होता और।।
वैसे सकल क्षुल्लिकाओं में, अगर करें गणना का काम।
तो फिर सबसे ऊपर आता, माता वीरमती का नाम।।१५०९।।
वीरमती ने भवविरागता, ओढ़ी नहीं थी ऊपर से।
दीक्षा ली थी, सोच-समझकर, स्वेच्छापूर्वक भीतर से।।
ज्ञान-ध्यान-तप-त्याग-मार्ग में, और वृद्धि की इच्छा थी।
नारी जीवन शिखर चढूँ, धुन लगी आर्यिका दीक्षा की।।१५१०।।
कार्यार्थी बढ़ता ही जाता, जब तक होता सफल नहीं।
सूरज भी चढ़ता ही जाता, जब तक पाता शिखर नहीं।।
वीरमती जी करी प्रार्थना, श्रीगुरुवर से बारम्बार।
प्रभो! आर्यिका दीक्षा देकर, करें, करें मेरा उद्धार।।१५११।।
काललब्धि जब तक न आये, सफल नहीं होता है काम।
पर, कार्यार्थी चैन न लेता, जारी रखता यत्न तमाम।।
और एक दिन जन पुरुषार्थी, कर लेता साफल्य वरण।
वीरमती को प्राप्त हो गई, वीरनिधि की चरण शरण।।१५१२।।
गौरवर्ण, उन्नतकद विनयी, लघुवयस्क, प्रतिभा सम्पन्न।
ब्रह्मतेज मंडित मुख मंडल, मात शारदा-सी व्युत्पन्न।।
ज्ञान-ध्यान में निरत सर्वदा, हर चर्या पद के अनुरूप।
वीरमती में गुरुवर पाया, सर्वोत्तम साध्वी का रूप।।१५१३।।
आचार्य श्री शांतिसागर जी, बीस सदी के प्रथमाचार्य।
लुप्तप्राय मुनि परम्परा का, किया पुनर्जीवन उपकार।।
उनके शिष्य वीरसागर जी, प्रथम पट्ट आचार्य यती।
सन् छप्पन में दीक्षा पाकर, हुई आर्यिका ज्ञानमती।।१५१४।।
जैसे तारों बीच चंद्रमा, शोभित होता नील गगन।
यथा श्रेष्ठता को पाता है, सकल वनों में नंदनवन।।
तथा ज्ञान-शील की सागर, बालयोगिनी बीसशती।
उत्तमता से शोभित होतीं, पूज्य आर्यिका ज्ञानमती।।१५१५।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, स्वयं ज्ञान की मूरत हैं।
दर्शन अतिशय मंगलकारी, साध्वी महामुहूरत हैं।।
कार्य शुरू करने के पहले, नाम मात्र लेना पर्याप्त।
विघ्न पलायन कर जाते हैं, कार्य सिद्ध हों अपने-आप।।१५१६।।
महा असंभव एक व्यक्ति में, हर विशेषता हो भरपूर।
कोई लेखन कर सकता है, पर प्रवचन से कोसों दूर।।
पायी जाती किसी व्यक्ति में, प्रवचन की उत्कृष्ट कला।
किन्तु बात जब लेखन की हो, अनुभव होती बुरी बला।।१५१७।।
पढ़ लेना बस, एक बात है, उसे समझ लेना है अन्य।
आप समझ पर समझा देना, कार्य महत्तम-श्रेष्ठ-अनन्य।।
जिसने मिश्री चखी नहीं है, उसे करा दे मिश्री स्वाद।
यह तो वह ही कर सकता है, जिसने स्वयं लिया है स्वाद।।१५१८।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती में, हर गुण विद्यमान भरपूर।
उत्तम वक्ता, सुष्ठु लेखिका, सम्प्रेषण विद्या में शूर।।
जिनवच गूढ़ गुत्थियों को माँ, खोल-खोल कर सुलझातीं।
हर्ष विभोर विद्वानों द्वारा, श्रुतकेवलि संज्ञा पाती।।१५१९।।
गौरवर्णतन, श्वेतसाटिका, पिछी-कमण्डलु धारें कर।
लगती हैं माताजी जैसे, उतरा हो शशांक भू-पर।।
माताजी का श्रीमुखमंडल, रहा सुधाकर से उत्तम।
अमृत-हितकर-मधुर निकलते, पूज्याश्री मुख से प्रवचन।।१५२०।।
व्यक्ति एवं व्यक्तित्व बहुत से, सभी अनन्य असाधारण।
बालब्रह्मचारिणी मैना, सम्यक् अष्ट अंग धारण।।
महाप्रबल मिथ्यात्व शत्रु से, निज परिवार बचाया है।
वीरमती-फिर-ज्ञानमती ने, जग शिवमार्ग दिखाया है।।१५२१।।
अकलंक और निकलंक सदृश है, माताजी की बुद्धिप्रखर।
एक बार के श्रवणमात्र से, पाठ याद लेती थीं कर।।
संस्कृत की कातंत्र व्याकरण, दो-क माह में कर ली पूर्ण।
पचा गई वे अल्पकाल ही, लौह चनों को करके चूर्ण।।१५२२।।
सब ग्रंथों की नींव व्याकरण, उससे बढ़ता ज्ञान महल।
आत्मसात् कर लिए ग्रंथ बहु, स्वाध्याय श्रमसाध्य सकल।।
दीक्षित हो आचार्य संघ में, रहीं पढ़ाये शिष्य अनेक।
नित परिमार्जन किया ज्ञान का, आत्म उतारी गहरी रेख।।१५२३।।
संघ पढ़ाये मुनि-आर्यिका, गौरवमंडित गुरु का पद।
लेकिन श्रीमाताजी मन को, छू न सका गुरुता का मद।।
कांजी सीकर कर न सकने, क्षीर सिंधु में कोई विकार।
लघुता से नर ऊपर उठता, दबता है गुरुता के भार।।१५२४।।
मौन साधनारत माताजी, करतीं कुछ प्रतिवाद नहीं।
स्तुति-निंदा समता रखतीं, करतीं हर्ष-विषाद नहीं।।
माना चित्त उदधि सम गहरा, अनेकानेक सुगुण भंडार।
माताजी जग में रहती हैं, किन्तु न जग उनको स्वीकार।।१५२५।।
पिछी-कमण्डलु धारण करके, जब माताजी गमन करें।
मात-चंदना प्रज्ञाश्रमणी, माता संग अनुगमन करें।।
लगतीं जैसे ब्राह्मी-सुंदरी, पुरा आर्यिका मन भाई।
इस धरती को पावन करने, एक बार फिर से आई।।१५२६।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, त्यागवृत्ति में आगे हैं।
मीठा-नमक-तेल-दधि त्यागे, इनके भाग न जागे हैं।।
अन्न एक-दो ग्रहण करें बस, लेती नीरस अल्पाहार।
लेकिन देतीं जगज्जनों को, धर्मामृत उत्तम उपहार।।१५२७।।
मात्र हथेली भर लेती माँ, लौटा देतीं दरिया भर।
एक बार करतीं अहार हैं, पर स्वाध्याय करें दिन भर।।
माताजी प्रासुक जल पीतीं, प्रासुक ही वे कहें वचन।
प्रासुक मसि-लेखनि माँ की, करती हैं प्रासुक लेखन।।१५२८।।
करुणाकलित हृदय माता का, जग जीवों पर भाव दया।
जो भी दर्शन करने आया, कोई नहीं निराश गया।।
सम्मुख आये भक्तजनों को, शुभाशीष देतीं भरपूर।
सन्तों के सब हैं कुटुम्ब के, नहीं किसी से रिश्ता दूर।।१५२९।।
श्वेतसाटिका धारे माता, लगतीं सभा बीच ऐसे।
मानों कोई ज्योतिपुंज ही, उतरा हो भू-पर जैसे।।
पिच्छी कर में लेकर माता, जब प्रारंभ करें प्रवचन।
लगतीं मानों बोल रही है, सुंदर केकी चंदन वन।।१५३०।।
माताजी का हृदय वङ्का-सम, मोह शत्रु को दिया पछार।
मात-पिता प्रति ममता त्यागी, भाई-बहन का छोड़ा प्यार।।
किन्तु कुसुम-सी कोमलता भी, माता मन में रहती है।
सबके प्रति करुणा की धारा, वात्सल्य बन बहती है।।१५३१।।
ब्राह्मी-सुंदरी आदिकाल में, जो प्रस्तुत आदर्श किया।
अनन्तमती-चंदनबाला ने, जिसको आगे बढ़ा दिया।।
उसी महत्तम संयमपथ को, माता जीवित किया पुन:।
फलस्वरूप मिल रहीं देखने, व्रती-साधिकाएँ अधुना।।१५३२।।
आदिनाथ संयोग प्राप्त कर, संयम धारा घर परिवार।
ब्राह्मी-सुंदरी-बाहुबली ने, समझ लिया संसार असार।।
इस युग में विरले मानव ही, विषयभोग से हुए उदास।
ज्ञानमती जी के कुटुम्ब ने, भी दुहराया यह इतिहास।।१५३३।।
निर्माणकार्य, भोजनचर्या को, चंदा-चिट्ठा उचित नहीं।
इन प्रसंगवश, मेरे संयम, बाधा आये उचित नहीं।।
अगर आप अपने बलबूते, कर सके, करें कोई निर्माण।
पर, मम संयम दोष न आवे, इसका रखना पूरा ध्यान।।१५३४।।
माताजी की चर्या सुनकर, अथवा उनकी चर्या देख।
किसके मन उत्पन्न न होता, आदर-श्रद्धा-हर्ष अतिरेक।।
आचार्य प्रवर श्री हेमचंद्र का, है यह अति उपयुक्त कथन।
वीतराग पथ संदर्शक का, सुकरणीय शतश: वन्दन।।१५३५।।
असामान्य होती है प्रतिभा, तथा न प्रतिभावान अनेक।
महाविलक्षण प्रतिभाधारी, ज्ञानमती माताजी एक।।
ज्ञान-ध्यान-तप करने वाली, बीस शती अन्यत्र नहीं।
साहित्य-तीर्थ सर्जना संगम, मिला न ऐसा मेल कहीं।।१५३६।।
फिर बचपन से ही हों जिसके, जगत् विरागी शुभ परिणाम।
अंगुलियों के प्रथम पोर पर, आ जाता है उनका नाम।।
गणिनी ज्ञानमती माताजी, उन अत्यल्पों में से एक।
जिनके मन जागी विरागता, जगत् काय भोगों को देख।।१५३७।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती ने, घुट्टी में पाये संस्कार।
इन्द्रिय सुख संसार विरक्ति, सकल जगत् के दृश्य असार।।
पद्मनंदिपंचविंशतिका, ग्रंथ महत्तम-सुंदरतम।
जग ज्वर शीघ्र नशाने वाली, उत्तम घुट्टी कहते हम।।१५३८।।
माताजी के पावन कर में, सुष्ठु लेखिनी शोभित है।
जैसे सरस्वती के कर में, वीणा मन को मोहित है।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, जिनवाणी को कर में धार।
लगतीं जैसे सरस्वती ने, माता रूप लिया अवतार।।१५३९।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, जब करती हैं धर्मोपदेश।
लगतीं मानों गंगा झरती, हिम अद्रि के उच्च प्रदेश।।
गौरवर्ण श्री माताजी के, श्वेत साटिका शोेभै तन।
शारद पूनमचंद्र चन्द्रिका, लिपटी मानों चंद्र बदन।।१५४०।।
गणिनी प्रमुख आर्यिका शिरोमणि, परमपूज्य माँ ज्ञानमती।
चारों ओर विराजित श्रोता, मंच सुशोभित माताजी।।
उपमा मन को सुंदर लगती, जैसे बीचों-बीच कमल।
सघनरूप से उसको घेरे, खिले हुए हैं नलिनी दल।।१५४१।।
साधक वही सराहा जाता, जिसकी वृत्ति अयाचक है।
निज आहार हेतु नहिं कहता, कभी भी सच्चा साधक है।।
परम पूज्य श्री माताजी की, मोक्षसाधना अतिनिर्दोष।
दान प्राप्त संस्था धन का, करतीं नहिं आहार सदोष।।१५४२।।
धर्म-क्षेत्र साहित्य सुरक्षा, जैसे उत्तम कार्य अनेक।
साधु प्रेरणा से सम्पन्ने, इतिहास पृष्ठ हम सकते देख।।
श्रीधरसेनाचार्य प्रवर से, श्रुत संरक्षण किया गया।
आचार्य श्री शांतिनिधि द्वारा, रूप स्थायी दिया गया।।१५४३।।
विमलसिंधु-विद्यासागर भी, इसके हैं जीवंत प्रमाण।
क्षेत्र सुरक्षा हेतु आपके, कार्य बने उत्तम वरदान।।
संकल्प शक्ति अद्भुत माँ गणिनी, जो भी मन में लेतीं ठान।।
उसे पूर्ण करके दम लेतीं, प्रथम न लेतीं अल्प विराम।।१५४४।।
जम्बूद्वीप धार्मिक रचना, ज्योतिर्लोक आदि साहित्य।
माताजी के शुभाशीष से, प्रकट हुए जैसे आदित्य।।
जो केवल सिद्धांत रूप थे, उन्हें व्यवहारिक बना दिया।
जो केवल नभ में दिखते थे, उन्हे सिद्धांत का रूप किया।।१५४५।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, जल में जैसे भिन्न कमल।
जग में रहतीं जग से ऊपर, मन-विचार अति हैं निर्मल।।
आदहिदं कादव्वं कारण, पूज्याश्री गृहत्याग किया।
स्त्रीपर्याय छेद करने को, दीक्षा धारी वृत्त लिया।।१५४६।।
स्वाध्याय साहित्य सर्जना, महापुण्य का कारण है।
आत्मा में पवित्रता आती, मन चांचल्य निवारण है।।
यही रहा उद्देश्य पूज्य श्री, भरा सरस्वती का भंडार।
अढ़ाई शतक से अधिक ग्रंथ रच, किया जगत का महदुपकार।।१५४७।।
शिष्यों का निर्माण किया माँ, रहा स्व-पर कल्याणक भाव।
सम्यग्दर्शन गुण अभिवृद्धि, मोक्ष गमन-सह कर्म अभाव।।
कमल जिनालय, जम्बूद्वीप का, हुआ यहाँ उत्तम निर्माण।
यहाँ बैठकर करें भक्तगण, कर्म क्षपण हित पिण्डस्थ ध्यान।।१५४८।।
परम पूज्य श्री माताजी ने, किए महत्तम कार्य अनेक।
रचना जम्बूद्वीप अमर है, आगन्तुक कहता प्रत्येक।।
इतना सुंदर कहीं न देखा, जैनागम का नक्श विशाल।
नर ऐसा कुछ कर ना पाये, नारी ने कर दिया कमाल।।१५४९।।
इतना सब कुछ होने पर भी, माताजी की प्रकृति अनाम।
कहतीं मेरा कुछ ना इसमें, यह तो है जनता का काम।।
माताजी कहतीं मुस्काकर, हम तो साधु अकिंचन हैं।
मात्र बताई आगम रचना, किया नक्श दिग्दर्शन है।।१५५०।।
माता की दैनिक चर्या का, करें अगर हम अवलोकन।
अर्द्धभाग बीतता प्रतिदिन, करने में साहित्य सृजन।।
सृजन नहीं हो जाता ऐसे, घण्टों करतीं खूब मनन।
तदनंतर लेखन के द्वारा, लेता है साहित्य जनम।।१५५१।।
चतुर्थभाग बीतता माँ का, नित्य क्रियाओं में भाई।
तन रक्षा को देना पड़ता, मजबूरीवश चौथाई।।
लेतीं मात्र हथेली भर है, लौटा देतीं दरिया भर।
पूजा-विधान-सैद्धांतिक लेखन, तथा सामयिक प्रवचन कर।।१५५२।।
माताजी का निस्पृह जीवन, जैसे पूरी खुली किताब।
पढ़े साथ में रहकर कोई, दोषमुक्त जैसे आफताब।।
फ्रांस की महिला एन.शान्ता ने, किया अहर्निश अवलोकन।
आहार-विहार-स्वाध्याय-प्रतिक्रमण, जैन साध्विका रात्रि शयन।।१५५३।।
उसने खाया माताजी का, बिना नमक-घी-मीठा अन्न।
लिखा शोध में नीरस खाकर, माता रहतीं सदा प्रसन्न।।
माताजी की चर्या पूरी, है जैनागम के अनुकूल।
लिख सकती सब नहीं लेखिनी, अर्पित हैं श्रद्धा के फूल।।१५५४।।
माताजी की साध्वी चर्या, करें सूक्ष्मतम अवलोकन।
शिथिलाचार कहीं भी उसमें, नाममात्र नहिं पाते हम।।
आत्महितंकर उनकी चर्या, करती है पर का उपकार।
माताजी हैं इस कलियुग में, मानों ब्राह्मी का अवतार।।१५५५।।
सन् तिरेपन में पहला-पहला, चातुर्मास टिकैतनगर।
दो हजार आठ सन् आया, उपकृत होगा कोई नगर।।
छप्पन चातुर्मास किये माँ, ज्ञान-ध्यान-तप-त्याग लिए।
पूजा-विधान-शिविर इत्यादिक, अनेक महत्तम कार्य किए।।१५५६।।
सूरज और चंद्रमा दोनों, नहीं एक थल रह सकते।
लेकिन माता ज्ञानमती में, एकमेक होकर रहते।।
वचन प्रकृति है शशि-सी शीतल, ज्ञान आपका सूर्य प्रकाश।
दोनों रहते साथ-साथ हैं, माता के जीवन आकाश।।१५५७।।
है व्यक्तित्व विलक्षण माँ का, हैं असंख्य गुण की भंडार।
इसीलिए तो विद्वज्जन को, माँ सान्निध्य सदा स्वीकार।।
दर्शन-ज्ञान-चरित्र-क्षमादिक, माँ जीवन्त समाये हैं।
श्रेय-नरेन्दर-जय-शिव-शेखर, लाल चरण में आये हैं।।१५५८।।
विद्वज्जन रखते हैं अतिशय, माताजी चरणों अनुराग।
वात्सल्य पाकर माता का, अपने को मानें बड़भाग।।
सन्तों के संतान न होती, उनकी सन्तति शिष्य अवदान।
अत: सतत संतति को माता, देती रहतीं अमृत ज्ञान।।१५५९।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती मन, राग-द्वेष से है ऊपर।
मित्र-शत्रु, स्तुति-निन्दा का, उन पर होता नहीं असर।।
सुनी-सुनाई बात नहीं यह, अनुभव की सम्पत्ति है।
धैर्य-परीक्षा होती जब ही, आती कोई विपत्ति है।।१५६०।।
एक ओर तो माँ के चरणों, शीश नमाता हर विद्वान्।
उधर पूज्यश्री माताजी भी, उनका रखतीं पल-पल ध्यान।।
श्रीमाताजी विद्वानों को, कल्पलता से बढ़कर हैं।
उनकी शुभ आशीष छाँव में, पाते सब श्रेयस्कर हैं।।१५६१।।
परम पूज्य श्री माताजी का, है व्यक्तित्व असाधारण।
अतुलनीय-अनन्वय-अनुपम, निज-पर हेतु तरण-तारण।।
युगों-युगों में ऐसी प्रतिभा, इस भूतल को करे पवित्र।
जिसके मंगल सन्निधान में, सुख-शांति फैले सर्वत्र।।१५६२।।
माताजी उपसर्गजयी हैं, वीर – सहिष्णु – धीरमती।
आने वाले व्यवधानों में, रहतीं अचल-अडोल अती।।
ज्ञान-ध्यान आई बाधाएँ, माँ ने उनका शमन किया।
मन-वच-काय विकार न आया, पंचेन्द्रिय का जयन किया।।१५६३।।
ज्ञान-ध्यान-तप-त्याग आदि हित, करती हैं माँ परिषह जय।
स्वाध्याय लेखनरत रहकर, करतीं माता कर्मक्षय।।
गर्मी-सर्दी भूख प्यास में, माता समता भाव रखें।
शत्रु-मित्र, स्तुति-निंदक को, माता एकहि भाव लखें।।।१५६४।।
चौबीस परिग्रह बाहर-भीतर, का माताजी त्याग किया।
पिछी-कमण्डलु जिनमुद्रा को, श्रीमाता स्वीकार किया।।
श्वेतसाटिका तन पै धारैं, पाणिपात्र करें आहार।
करें पंचमहाव्रत पालन, अष्टबीस मूलगुण धार।।१५६५।।
न्याय प्रभाकर-सिद्धांतवाचस्पति, आर्यिकारत्न माँ ज्ञानमती।
चिंतक-विदुषी-साध्वी हैं ही, हैं विख्यात लेखिका भी।।
यथानाम तथागुण वेष्टित, ज्ञान-आचरण तीर्थ महान।
आतमहित कर्तव्य के सह, करतीं माँ जग का कल्याण।।१५६६।।
लौकिक शिक्षा मात्र तीसरी, संचित अमित ज्ञान भंडार।
महाविलक्षण प्रतिभाधारी, मातृ सरस्वती की अवतार।।
तीन शतक ग्रंथों की रचना, किया स्थापित कीर्तिमान।
अवध विश्वविद्यालय मेरठ, दिया आप डी.लिट्. सम्मान।।१५६७।।
है व्यक्तित्व प्रभावक अतिशय, पूज्य आर्यिका ज्ञानमती।
जो भी दर्शन करने आता, पड़ता है प्रभाव अति।।
स्वत: हाथ जुड़ते दर्शक के, श्रद्धासागर उमड़े मन।
मस्तक झुक जाता चरणों में, करता बारम्बार नमन।।१५६८।।
त्याग-तपस्या तेज सुशोभित, माताजी के मुख मंडल।
श्रद्धालु माँ के दर्शन कर, पा जाते हैं उत्तम फल।।
व्यसनमुक्त जीवन हो जाता, सदाचार पाते सम्मान।
जो आता है माँ के चरणों, हो जाता उसका कल्याण।।१५६९।।
लुंचन केश जैन साधु का, प्रमुख मूलगुण बतलाया।
उत्तम-मध्यम-जघन्य रूप से, तीन भेद आगम गाया।।
दीर्घ संयमित माँ जीवन में, लुुंचन केश किया कई बार।
रहा सहारा आगम का ही, होवें स्वस्थ या कि बीमार।।१५७०।।
माताश्री स्पष्ट कथन है, तन मिलता है भव-भव में।
लेकिन संयम रत्न का मिलना, महा कठिन है जीवन में।।
यह तन-जीवन रहे न रहे, पर संयम को छोड़ें ना।
नश्वर तन रक्षा के पीछे, संयम से मुख मोड़ें ना।।१५७१।।
पूज्य आर्यिका ज्ञानमती जी, क्षण-क्षण का करतीं उपयोग।
व्यर्थ नहीं जाने देती हैं, प्राप्त हुआ जो दुर्लभ योग।।
समय स्वर्ण है, समय महाधन, इसको खोना व्यर्थ नहीं।
नहीं समय की कीमत जानी, जीने का कोई अर्थ नहीं।।१५७२।।
तीन शतक ग्रंथों की रचना, समय बचाने का फल है।
महाव्रती की सकल क्रियाएँ, निशदिन चलतीं अविरल हैं।।
हों अस्वस्थ भले माताजी, कलम न रुकने पाती है।
और न ही संयम चर्या में, लेश शिथिलता आती है।।१५७३।।
प्रासुक-शुद्ध लेखिनी माँ की, कई अर्थों में पाते हैं।
हर रचना निर्दोष पूर्ण, आचार्य कथन ही आते हैं।।
नहीं मिलावट कुछ भी अपनी, नहीं नयों का असंतुलन।
कल-कल शब्द सुनाई देता, जिन गंगा का अनुगुंजन।।१५७४।।
डाल कमंडलु का प्रासुकजल, उसमें सूखी टिकिया घोल।
पैन डुबोकर लिखतीं माता, शब्द-शब्द मुक्ता अनमोल।।
अवधि पूर्व चौबिस घण्टे में, धो लेतीं निब-कलम-दवात।
अष्टसहस्री की नौ कॉपी, लिखी पैन्सिल से ही मात।।१५७५।।
परपीड़ा या परनिन्दा को, माता करतीं कभी नहीं।
आत्मप्रशंसा करने वाले, मिलें न खोजे शब्द कहीं।।
अपने दोष प्रकट करने में, संत नहीं करते संकोच।
अन्य दोष दर्शन करने का, कभी न उनका होता सोच।।१५७६।।
जब माताजी लेखन करतीं, हो जातीं तन्मय-तद्रूप।
मन को विचलित कर ना पातीं, गर्मी-सर्दी अथवा धूप।।
आते-जाते भक्तजनों का, उन्हें नहीं हो पाता भान।
फिर उनको आशिष देने का, कैसे रहे आपश्री ध्यान।।१५७७।।
पुस्तक कर में चित्त चंदेरी, स्वाध्याय यह रीति नहीं।
जब दीपक लौ हिलती रहती, करती अधिक प्रकाश नहीं।।
स्वर्णकार फुकनी से केन्द्रित, होकर दीपक अल्प किरण।
कठिन धातु को पिघला देती, अत: जरूरी स्थिर मन।।१५७८।।
माताजी जो लेखन करतीं, रखती हैं उसका ही ध्यान।
सिद्धचक्र मंडल विधान में, रमतीं सिद्धचक्र गुणगान।।
समवसरण में जा विराजतीं, जब रचतीं हैं उक्त विधान।
इसीलिए माँ की रचनाएँ, जीवित हैं, रखतीं हैं प्राण।।१५७९।।
शती बीसवीं प्रथम योगिनी, बालब्रह्मचारित्र धनी।
लेतीं जन्म अनेक युगों में, ऐसी प्रतिभा महागुणी।।
जैन समाज सर्वोच्च साधिका, वरिष्ठतमा आर्यिका आप।
दर्शन-ज्ञान-चरित्र त्रिवेणी, हरते वचन जगत् संताप।।१५८०।।
आर्यिका शिरोमणि, रत्न आर्यिका, गणिनीप्रमुख-ज्ञानवारिधि।
न्याय प्रभाकर-विश्वविभूति, जैनजगत की महानिधि।।
अप्रमत्त चर्या की पालक, कालजयी व्यक्तित्व महान्।
राष्ट्र की गौरव, युग प्रवर्तिका, चारित्रचंद्रिका-ज्ञान निधान।।१५८१।।
वाग्देवी-सिद्धान्त वाचस्पति, श्रुतदेवी-वाचस्पति विधान।
नारीशक्ति प्रतीक-वत्सला, तीर्थोद्धारिका, दयानिधान।।
अभीक्ष्ण ज्ञानयोगिनी माता, उत्तम वक्ता, प्रवचनकार।
मौलिक लेखन, टीकाकर्त्री, कर्त्री जिन शासन प्रसार।।१५८२।।
अनेकानेक उपाधि अलंकृत, माताजी व्यक्तित्व महान्।
मैं अल्पज्ञ, मंदमति बालक, कर न सका तुतला गुणगान।।
लेकिन जैसे कमल पुष्प से, दर्दुर पाया स्वर्ग विमान।
वैसे मैं भी माताजी के, चरण कमल पाऊँ स्थान।।१५८३।।
है विशाल व्यक्तित्व आपका, है विराट कर्तृत्व अपार।
मैं अशक्त, बाहों का छोटा, कर ना सका उदधि को पार।।
आपश्री तो गुण समुद्र हैं, मुझे नहीं गणना का ज्ञान।
अपने अल्प बुद्धि बालक को, कीजे माता क्षमा प्रदान।।१५८४।।
देह देवालय, मनोवेदिका, में माता को बैठाकर।
पल-पल अर्घ्र्य चढ़ाया मैंने, श्रद्धापूर्वक गुण गाकर।।
जब से मैंने माताजी के, पाये पावन चरणकमल।
तब से अब तक, मेरी श्रद्धा, दूध से धोई, महाधवल।।१५८५।।
रहें कहीं पर भी माताजी, चरण तो मेरे मन में ही।
मेरी देह कहीं भी रहती, मन माता के चरणों में।।
माताजी का सन्निधान पा, मेरा जीवन धन्य हुआ।
गुण गा पुण्य कमाया इतना, भाग्यवन्त न अन्य हुआ।।१५८६।।