‘स्तोत्र’ शब्द की निष्पत्ति गुणसंकीर्तन अर्थ में प्रयुक्त अदादिगण की उभयपदी ‘स्तु’ धातु से हुई है। स्तुति शब्द स्तोत्र का पर्यायवाची है। स्तुति शब्द स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होता है, जबकि स्तोत्र शब्द का प्रयोग नपुंसक लिङ्ग में होता है। गुणों की संकीर्तना आराधक द्वारा की गई आराध्य की भक्ति का एक माध्यम है, जो अभीष्ट सिद्धि की प्रदायक तो है ही, विशुद्ध होने पर संसार—परिभ्रमण का अन्त करने वाली भी बन जाती है। श्री वादीभिंसह सूरि ने भक्ति को मुक्तिरूपी कन्या से पाणिग्रहण में शुल्क रूप कहा है। उनका कहना है कि विशुद्ध भक्ति मुक्ति को भी प्राप्त करा सकती है, तो वह अन्य क्या—क्या क्षुद्र कार्य सिद्ध नहीं कर सकती है। वे छत्रचूड़ामणि में लिखते हैं—
‘श्रीपतिर्भगवान् पुष्याद् भक्तानां व: समीहितम्।
यद्भक्ति: शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे।।
‘सती भक्ति: भवति मुक्त्यै क्षुद्रं कि वा न साधयेत्।
त्रिलोकीमूल्यरत्नेन दुर्लभ: कि तुषोत्कर:।।
अत: स्पष्ट है कि भक्ति अमंगलनाश एवं त्वरित आनन्द की प्राप्ति के साथ मुक्ति की भी साधिका है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी भी कहते हैं—
‘एकापि समर्थेयं जिनभक्तिर्दुर्गिंत निवारयितुम्।
पुण्याणि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिन:।।’
अर्थात् अकेली जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति ही दुर्गति का निवारण करने में समर्थ है, पुण्य को पूर्ण करने में सक्षम है तथा मुक्तिरूपी लक्ष्मी को प्रदान करने में समर्थ है। यद्यपि स्तुति या स्तोत्र शब्द का प्रयोग प्राय: अतिप्रशंसा में होता है, किन्तु जैन परम्परा में स्तुति या स्तोत्र शब्द का प्रयोग अति प्रशंसा में नहीं अपितु आंशिक गुणानुवाद में हुआ है। श्री समन्तभद्राचार्य ने जिनेन्द्र भगवान् की स्तुति करते हुए स्वयंभू स्तोत्र में कहा है—
‘गुणस्तोकं समुल्लंघ्य तद्बहुत्वकथा स्तुति:।
आनन्त्यास्ते गुणा: वक्तुमशक्यास्त्वयि सा कथम्।।
अर्थात् थोड़े गुणों को पारकर उन्हें बढ़ा—चढ़ाकर कहना स्तुति कही जाती है, परन्तु हे भगवन्! तुम्हारे तो अनन्त गुण हैं, जिनका वर्णन करना असंभव है। अत: तुम्हारे विषय में स्तुति का यह अर्थ संगत वैâसे हो सकता है ? गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने अनन्तचतुष्टय के धारी वीरप्रभु की स्तुति करते हुए भुजंगप्रयात छन्द में जो श्लोक लिखा है, वह भक्तहृदयावर्जक है। यथा—
‘‘महाशुक्लसद्ध्यानवैश्वानरेऽस्मिन्, प्रदग्धं समस्ताष्टकर्मारिकक्षम्।
श्रितोऽनन्तदृग्ज्ञानवीर्यस्वसौख्यं, स्तुवे केवलज्ञानभानुं जिनं तम्।।२३।।
इसका पद्यानुवाद दृष्टव्य है—
‘महाशुक्ल सद्ध्यान अग्नि में, अष्टकर्म वन भस्म किया।
अनन्त दर्शन ज्ञान वीर्य सुख, मय अनन्त गुण प्राप्त किया।।
केवलज्ञान सूर्य! हे भगवन्! जगत् चराचर देख लिया।
त्रिभुवनस्वामी अन्तर्यामी, नमूँ भक्ति से खोल हिया।।
भारतीय मनीषियों के अनुसार काव्य का प्रयोजन मात्र ऐहिक या प्रेय न होकर आमुष्मिक एवं श्रेय भी है। श्री महावीर स्तोत्र में रचयित्री एवं टीकाकत्र्री दोनों के उभयविध प्रयोजन दृष्टिगोचर होते हैं। काव्यसरणि पर आश्रित होने से, गेयता की दृष्टि से सशक्त होने से तथा कष्टनिवारण में समर्थ होने से जहाँ यह प्रेय है वहाँ आराध्यगुणों की प्राप्ति का साधन होने से यह श्रेय भी है।
काव्यात्मक वैभव एवं भक्ति के गौरव के कारण जहाँ मूल श्री महावीरस्तोत्र प्रथम श्रेणी का है, वहाँ इसका पद्यानुवाद भी हिन्दी के श्रेष्ठ पद्यानुवादों में परिगण्य है। स्तोत्र की रचयित्री गणिनी आर्यिका ज्ञानमती माताजी ने पदे—पदे इसका प्रयोजन तद्गुणलब्धि र्विणत किया है। इस सन्दर्भ में कतिपय उदाहरण अवधेय हैं—
‘‘श्री सन्मर्तििवतनुतात् किल सन्मतिं मे।’
‘धिनुतान्मम कर्मरज:कलिलम्।’
‘नमोऽस्तु मृतिहानये।’
‘भवामि नियतं मुनीन्द्र! परमात्मरूप: स्वत:।’
स्तोत्र का पाठकनिष्ठ प्रयोजन भी अर्हंत भगवान् की गुणलक्ष्मी को प्राप्त करना ही है। अन्तिम श्लोक में स्पष्टतया कहा गया है—
‘‘यो जिनवीरस्तोत्रं पठति समाहितमनास्त्रिसंध्यं भक्त्या।
सकलज्ञानमिंत सोऽर्हद्गुणलक्ष्मीं ध्रुवं लभते।।’
इसका पद्यानुवाद भी भावाभिव्यक्ति में सर्वथा समर्थ है—
‘‘इस विधि श्री जिन वीर स्तुति को जो एकाग्रमना होकर, नित्य त्रिसंध्या में पढ़ते हैं, भक्ति से र्हिषत होकर।
वे भाक्तिक जन स्वयं शीघ्र ही, घाती कर्म नशाते हैं, केवल ‘‘ज्ञानमती’’ अर्हन्त प्रभु की लक्ष्मी पाते हैं।।
टीकाकत्र्री के रूप में आर्यिका चन्दनामती माताजी का एक अन्य प्रयोजन भी प्रतीत होता है। वे श्री महावीर स्तोत्र की टीका के ब्याज से भगवान् महावीर की जन्मस्थली एवं निर्वाणस्थली का भी विस्तृत विवेचन करती हैं। जन्मस्थली के रूप में कुण्डलपुर जिला (नालन्दा) और कुण्डग्राम वैशाली जिला मुजफ्फरपुर ये दो मान्यतायें अधुना प्रचलित हैं। इनमें माताजी ने कुण्डलपुर (नालन्दा) के पक्ष में अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं। गुणानुवाद का मूल उद्देश्य तद्गुणप्राप्ति और तज्जन्य सुखप्राप्ति है। मनोविज्ञान का यह शाश्वत नियम है कि संसार में प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है और दु:ख से डरता है। पण्डितप्रवर दौलतराम जी छहढाला में लिखते हैं—
‘‘जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतैं भयवन्त।
किन्तु सुखप्राप्ति के उपाय के विषय में विषमता दृष्टिगोचर होती है। जहाँ जड़वादी भौतिक सामग्री को सुख का साधन मानते हैं, वहाँ अध्यात्मवादी एवं कतिपय मनोविज्ञानवेत्ता इच्छाओं के शमन या अभाव को वास्तविक सुख स्वीकार करते हैं। सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने सुखप्राप्ति का एक सूत्र बताया है—
Achievement (लाभ)Satisfaction (संतुष्टि) Expectation (चाह) अर्थात् लाभ अधिक हो और आशा कम हो तो सुख की प्राप्ति होती है और आशा अधिक हो और लाभ कम हो तो दु:ख की प्राप्ति होती है। जब आशायें शून्य हो जाती हैं तब परमानन्द की प्राप्ति होती है।
यत: श्री महावीर स्तोत्र की रचयित्री एवं टीकाकत्र्री दोनों साध्वी आर्यिकायें हैं। अत: मूल एवं टीका उभयत्र दोनों में गुणानुवाद का मूल उद्देश्य की समाहिति विद्यमान है।
आर्यिका चन्दनामती कृत संस्कृत टीका पदखण्डनारूप है। इसकी भाषा में सुबोधता, सहृदयहृदयावर्जकता एवं सर्वजनसंवेद्यता है, जिससे यह गणिनी आर्यिका ज्ञानमतीकृत श्री महावीरस्तोत्र के हार्द को अभिव्यक्त करने में सर्वथा समर्थ है।
‘यावज्जीवं’ विहितशुभदं’ इत्यादि पद्य की टीका करते हुए माताजी लिखती हैं—‘यावज्जीवं आबाल्यादद्यावधिपर्यंतं मया यद्देवपूजादिकार्य—गृहस्थोचितषट्कत्र्तव्य कृतम्। विहितशुभदं—शुभं ददाति इति शुभद: तत् शुभदं, विहितं च तत् शुभदं विहितशुभदं तै: देवपूजादिकार्यै: इन्द्रचक्रवत्र्यादिसुखं प्राप्नुवन्ति नरा:।
’ संस्कृत—हिन्दी टीका की सूक्ष्म परीष्टि से यह सर्वथा सुस्पष्ट हो जाता है कि टीकाकत्र्री माताजी विदुषी कवियित्री एवं भावयित्री हैं।
उनकी दीक्षा के पच्चीसवें वर्ष में प्रवेश के अवसर पर मैं उनके पादपद्मों में सविनय वन्दामि निवेदन करता हूँ तथा रत्नत्रय वृद्धि की मंगल कामना करता हूूँ।