तीर्थोद्धारक, संस्कृति उन्नायक परम पूज्य गणिनी शिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी प्रखर विदुषी, वात्सल्यमयी, अपरिमित गुणयुक्त स्वनामधन्य, जैसे ईश्वर में श्वर, ज्ञानमती में ज्ञान वैसे ही चंदनामती में चंदन समाहित है। चंदनामती माताजी का व्यक्तित्व, सत्य ही जिनके जीवन का आधार है ऐसे सज्जन गुण से निम्न पंक्तियों को चरितार्थ करते हुये विभूषित हैं
सज्जन तो होते हैं चंदन, महक न निज कम कर सकते।
अंग विभेदक मुख कुठार का, निज सुंगध से भर सकते।।
जिनके वक्तव्य में प्रभाव, स्वभाव में सरलता, वाणी में मिठास की झलक है। वहीं सृजन की भी प्रभावनात्मक पावर है। आपकी लेखनी से पूज्य गणिनीप्रमुख ज्ञानमती माताजी के प्रति लिखी गयी ‘‘गणिनी ज्ञानमती महापूजा’’ गुरु के चरणों में सर्मिपत एक तथ्यात्मक काव्य है।
संसार में प्राणी आता है रंग मंच की तरह जीवन का अभिनय करता है चला जाता है। कोई-कोई मनुष्य परोपकार, संस्कृति संवर्धन, सम्यक मार्ग प्रवर्धन, जनसेवा के मार्ग को अपनाकर परमात्मा की तरह अपने आपको प्रगट कर स्वयं ही पूज्य हो जाता है। यही कारण है कि जगत में इंसान की तरह उत्पन्न होने वाले साधारण मनुष्य भी पूजे जाते हैं, विभिन्न नामधारी मंदिर इस बात के जीवंत प्रमाण हैं।
गणिनी ज्ञानमती माताजी का जीवन उनके द्वारा की गई संस्कृति सेवा, साहित्यिक योगदान, तीर्थोद्धार, शिष्यों को सम्यक् चर्या के माध्यम से आत्मकल्याण के प्रति प्रेरणा इत्यादिक सत्कर्म, उन्हें ही अन्य सामान्यजनों द्वारा पूज्य बना दें, तो इसमें गुणाराधना कर्तव्य होने के कारण कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये। किशोर अवस्था से अब तक चंदनामती माताजी ने उन्हें पल-पल देखा है, गणिनी ज्ञानमती महापूजा में-उनकी अपनी भावनाएँ गुण संप्रेरित रूप से काव्यात्मक रूप में समाहित है, जो उचित ही है।
भक्तों को पूज्य ज्ञानमती माताजी की एक मुस्कान ही, उनके हृदय से उठते आशीर्वाद का परिचायक है जो भक्तों के हृदय में अपूर्व उल्लासमयी आनन्द को प्रगट करते हुये रक्तवर्धन का परिचय देता है, इस रूप में महापूजा में माताजी का गुणानुवाद उचित ही है भक्तों के मुख का उल्लास इसका प्रमाण है। ‘‘गणिनी ज्ञानमती महापूजा’’ में मंगलाचरण में ही पूज्य चंदनामती माताजी ने गणिनी ज्ञानमती माताजी के बहुआयामी व्यक्तित्व का हवाला देते हुए, ग्रहण करने योग्य गुणों का वर्णन अपनी लेखनी से किया है वह तर्वâ संगत और प्रशंसनीय है।
पूज्य माताजी के ७५ वर्ष पूर्ण होने पर ७५ भक्ति काव्यों में चन्दनामती माताजी ने जो गुणाराधना की है, सो भी उचित ही है। जिसकी मति अर्थात् बुद्धि ज्ञानमयी है अर्थात् जो संसार से पार हो गये या संसार से पार जाने के लिए प्रयत्नशील हैं जहाँ केवल ज्ञान ही शेष रह जाता है ऐसी बुद्धि जो संसार की व्यवस्था के नेटवर्क को जानती है, सो ज्ञानमती नाम सार्थक है। पहले पद में ही तर्क संगत गुणाघ्र्य अर्पित किया है, सो भी तर्कपूर्ण है। चतुर्थ पद में जगतमाता कह के अघ्र्य र्अिपत किया है, सो भी ठीक है, क्योंकि इस संसार में दो, चार, पाँच, दस की माता बनना तो ठीक लगता है लेकिन जगतमाता हो जाना स्वाभाविक नहीं, कुमारकाल में ही दीक्षित होकर जगतमाता कहलाई अतः इस रूप र्अिपत गुणाघ्र्य उचित ही है।
युगादि में तीर्थंकर ऋषभदेव की पुत्री ने दीक्षित होकर जो सन्मार्ग प्रर्वितत किया था, उसी का पुनः दिग्दर्शन किया अतएव तात्कालिक स्थिति में ‘‘ब्राह्मीपथप्रदर्शिकायै, इस नाम से अघ्र्य युक्तिसंगत प्रतीत होता है। लोक में लौकिक ज्ञान हासिल करने के बाद व्यक्ति डिग्री को प्राप्त कर पाता है, लौकिक ज्ञान लौकिक सुख-दुःख में, संसाधनयुक्त जीवन में कारण है लेकिन आध्यात्मिक ज्ञान पारलौकिक रूप से जब तक जीव संसार भ्रमण से मुक्त नहीं हो जाता तब तक कार्यकारी है और यह भी स्वयं में टेलेन्ट अर्थात् सामथ्र्यमय होने पर संभव है।
माताजी ने अपने आध्यात्मिक और बुद्धिबल पर लौकिक डिग्रीधारी लोगों से भी अधिकाधिक सृजन क्षमता का परिचय तीर्थोद्धार और सन्मार्ग प्रेरणा, शिष्यों को दीक्षा के प्रति उन्मुख करके दिया, संस्थाओं, विश्वविद्यालयों ने उच्चतम डी. लिट. आदि डिग्री प्रदान करके माताजी के अंदर व्याप्त ईश्वरीय अंश का सम्मान किया, सो ये डिग्रियाँ भी गणिनी ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व के सामने लघु प्रतीत होती हैं। तथापि यह गुणानुवाद उचित ही है। जिनमार्ग पर अटूट श्रद्धा को पैदा करने वाले तथ्य को आधार मानकर, भगवान का गंधोदक सर्व रोग हरण करने में समर्थ है।
महासती मैनासुन्दरी की इस दृढ़भावना को आत्मसात कर गंधोदक के द्वारा ही बचपन में ही रोग (चेचक रोग) को दूर कर दिया जिससे मिथ्यात्व का शमन एवं सम्यक्त्व का पोषण हुआ, सो ऐसी आस्था भी पूजने योग्य है ही क्योंकि इससे भक्तों के हृदय में भी, ऐसी जीवंत प्रस्तुति से आस्था जनित भाव पैदा होता है। सो इस रूप की गई गुणाराधना भी उचित और अनुकरणीय है। कोई भी वस्तु अपने स्रोत से ही प्राप्त होती है, जैसे ‘‘कुयें से जल’’ ठीक उसी तरह आपके ग्रह योग भी जैसे सूर्य और बुध का केबिनेट में होना राजयोग के रूप में आपके वास्तविक जीवन में दिग्दर्शित है आपके प्रति विनयवान, श्रद्धावान होने पर भक्तों के जीवन की कुण्डली में श्रोतरूप होने के कारण आने लगता है।
स्वयं के जीवन को समुन्नत बनाने में कारणभूत इस रूप की गई गुणाराधना भी तर्क संगत और उचित प्रतीत होती है। प्रत्येक भक्ति काव्य में चंदनामती माताजी ने अपने बुद्धि कौशल का परिचय दिया है, बहुआयामी इस गुणानुवाद पुस्तिका को पढ़ने से जहाँ गुरु के प्रति आस्था पैदा होती है वहीं चित्त में सरलता आने से पुण्यार्जन भी होता है। अनुकरण, सम्यक मार्ग अनुगमन की भावना पैदा होती है। चित्त में एक अजीब सा चुम्बकीय आकर्षण और शुभ अनुराग पैदा होता है। सम्यक मार्ग में रुचि वृद्धिंगत करने में इस कृति का योगदान प्रतीत होता है।
भगवंतों की वाणी को आचार्य कुन्दकुन्द के आश्रय से ग्रहण करके जो समीचीन सैैद्धान्तिक प्रतिपादन गुरु गुणाराधना के रूप में किया है, वह सरल सुबोध और आकर्षक शैली में होने के कारण सराहनीय है। सम्पूर्ण कृति ही व्यापक विशेषताओं से युक्त है।
पूज्य चंदनामती माताजी के प्रति विनयवान होते हुये मैं यह लिखता हूँ कि आपने इस कृति का सृजन करके भक्तों को श्रद्धा, विश्वास, दृढ़ता, गुरुभक्ति के प्रति, जिनमार्ग के प्रति, अपने गुरु के प्रति, गुरु के बहुआयामी व्यक्तित्व के प्रति समर्पित होने का जो पुरुषार्थ किया है, वह वंदनीय है। अतएव हम आपके स्वस्थ और दीर्घ जीवन की कामना करते हुये विनयावनत होते हुये आपके सानिध्य को प्राप्त कर अपने को धन्य मानते हैं।