(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से एक आगम वार्ता)
( श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
चन्दनामती- पूज्य माताजी! वंदामि, आज मैं आपसे गतियों के बारे में कुछ पूछना चाहती हूँ?
श्री ज्ञानमती माताजी- पूछो, क्या पूछना चाहती हो।
चन्दनामती- ज्ञानावरण आदि ८ कर्मों में ‘गति’ कौन से कर्म का भेद है?
श्री ज्ञानमती माताजी- नामकर्म की ९३ प्रकृतियों में गति नामकर्म की ४ प्रकृतियाँ बताई हैं।
नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति।
चन्दनामती- गति का लक्षण क्या है?
श्री ज्ञानमती माताजी- जिस कर्म के उदय से जीव एक पर्याय से दूसरी पर्याय में गमन करता है उसे गति नामकर्म कहते हैं। धवला की प्रथम पुस्तक में भी है-‘भवाद्भवसंक्रान्तिर्वागति:’ अर्थात् एक भव से दूसरे भव में जाने को गति कहते हैं। प्राकृतपंचसंग्रह में गति का लक्षण निम्न प्रकार है-
गइ-कम्म-विणिव्वत्ता जा चेट्ठा सा गई मुणेयव्वा। जीवा हु चाउरंगं गच्छंति त्ति य गई होइ।।
इसका अर्थ यह है कि गति नामा नामकर्म के उदय से जो जीव की चेष्टा विशेष उत्पन्न होेती है उसे गति कहते हैं अथवा जिसके निमित्त से जीव चतुर्गति में जाते हैं उसे गति कहते हैं।
चन्दनामती-क्या इन गतियों के कुछ अवान्तर भेद भी होते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, यूं तो चारों गतियों में नाना जीवो की अपेक्षा से नाना भेद हो सकते हैं, फिर भी नरकगति के ७ नरक पृथ्वियों की अपेक्षा ७ भेद हैं-
रत्नप्रभा
शर्कराप्रभा
बालुकाप्रभा
पंकप्रभा
धूमप्रभा
तम:प्रभा
महातम:प्रभा
इन नरकों में घोर यातनाओं को सहन करने वाले नारकी निवास करते हैं। उसके तीन भाग हैं-
खरभाग, पंकभाग, अब्बहुलभाग।
खरभाग में राक्षसों के सिवाय सभी व्यंतरदेव एवं असुरकुमार के सिवाय सभी भवनवासी देवों के निवास हैं तथा पंकभाग में राक्षस और असुरकुमार देव रहते हैं।
आगे अब्बहुल भाग में नारकी रहते हैं पुन: दूसरे से लेकर सातवें नरक तक पृथ्वियों में केवल नारकी ही रहते हैं। इसी प्रकार तिर्यंचों के १४ जीवसमासों की अपेक्षा १४ भेद होते हैं, जो इस प्रकार हैं
एकेन्द्रिय के बादर, सूक्ष्म ये दो भेद, विकलत्रय के दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय ये तीन भेद, पंचेन्द्रिय के संज्ञी-असंज्ञी दो भेद मिलकर सात हुए, इन सातों में पर्याप्त-अपर्याप्त दोनों भेद होते हैं अत: ७*२=१४ जीवसमास के भेद से तिर्यंचों के भी १४ भेद हो जाते हैं।
चन्दनामती- क्या एकेन्द्रिय आदि जीव भी तिर्यंच गति में आते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, एक इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों की एक तिर्यंच गति ही होती है तथा संज्ञी पंचेन्द्रियों के मनुष्य, तिर्यंच आदि सभी गतियाँ हो सकती हैं।
अथवा यूं समझ लो कि देव, नारकी, मनुष्य तो संज्ञी पंचेन्द्रिय ही होते हैं और पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में संज्ञी और असंज्ञी दोनों होते हैं। जैसे-पानी में रहने वाले कोई-कोई सर्प एवं कुछ तोते असंज्ञी होते हैं।
चन्दनामती- तब तो अग्नि, घास, वृक्ष आदि की भी तिर्यंच गति माननी पड़ेगी?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, और वनस्पतिकायिक इन पांचों एकेन्द्रिय स्थावरकायिकों की भी तिर्यंचगति होती है।
चन्दनामती- क्या इसी प्रकार मनुष्यगति में भी कुछ भेद हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- हाँ, सबसे पहले तो आर्य और म्लेच्छ की अपेक्षा दो भेद हैं। जैसे भरतक्षेत्र में पाँच म्लेच्छ खंडों में म्लेच्छ मनुष्य पैदा होते हैं और एक आर्यखंड में जो मनुष्य रहते हैं उन्हें आर्य कहा जाता है। इन आर्य और म्लेच्छों के भी क्षेत्र और कर्म की अपेक्षा भेद हो जाते हैं।
जैसे-म्लेच्छ खंडों में जन्में मनुष्य क्षेत्र से म्लेच्छ होते हैं वे सभी कर्म से म्लेच्छ हों यह आवश्यक नहीं है, इसी तरह आर्यखंड में उत्पन्न होने वाले मनुष्य क्षेत्रार्य होते हैं किन्तु जाति और क्रिया से म्लेच्छ भी होते हैं। आर्यों में से यदि कोई आर्य अनार्य सरीखे हीन और बुरे कार्य करने लगते हैं, तो वे जाति और क्षेत्र से आर्य होते हुए भी कर्म से म्लेच्छ हो जाते हैं।
यह तो हुई आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों की बात, पुन: भोगभूमि और कर्मभूमि की अपेक्षा भी मनुष्य के दो भेद हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों में भोगभूमि और कर्मभूमि दोनों तरह की व्यवस्थाएं कालपरिवर्तन के अनुसार होती हैं। विदेहक्षेत्र में शाश्वत कर्मभूमि रहती है और शेष चार क्षेत्रों में (हैमवत, हरि, रम्यक्, हैरण्यवत) शाश्वत भोगभूमि रहती है।
जहां के मनुष्य कल्पवृक्षों से प्राप्त भोगोपभोग वस्तुओं के बल पर जीवनयापन करते हैं उन क्षेत्रों को भोगभूमि कहते हैं एवं जहाँ पर मनुष्य असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, और शिल्प इन षट्क्रियाओं को करके आजीविका चलाते हैं, वे स्थान कर्मभूमि कहलाते हैं।
चन्दनामती- देवगति के कितने भेद हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- सामान्य से तो देवगति एक ही है पुन: ‘‘देवाश्चतुर्णिकाय:’’ अर्थात् देव ४ प्रकार के हैं-
भवनवासी, व्यन्तरवासी, ज्योतिर्वासी और कल्पवासी।
भवनवासी और व्यन्तरवासी मध्यलोक में भी रहते हैं
जैसे-जम्बूद्वीप आदि द्वीपो के कुलाचल, वक्षार, विजयार्ध आदि पर्वतों पर पूर्व दिशा में एक-एक सिद्धकूट के अतिरिक्त भवनवासी और व्यंतरवासी देव-देवियों के भवन बने हुए हैं, जिनमें वे देव परिवार सहित निवास करते हैं।
भगवान की माता की सेवा करने हेतु जो श्री आदि देवियाँ आती हैं, वे भी उन्हीं में से होती हैं। यहाँ (हस्तिनापुर में) बनी जम्बूद्वीप रचना में भी इन देवों के कुछ भवन दर्शाये गये हैं, जिनमें गृह चैत्यालय भी हैं।
चन्दनामती- व्यंतर देव यहाँ मध्यलोक में कहाँ और कैसे रहते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी- किसी भी वृक्ष, पर्वत, नदी, मंदिर, मकान आदि स्थानों में व्यंतर देवों के निवास हो सकते हैं, जो कि उस स्थान वे अप्रत्यक्ष रूप से अधिष्ठाता कहे जाते हैं।
जैसे-तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में कहा है कि जम्बूद्वीप का अधिष्ठाता ‘‘अनावृत’’ नाम का यक्ष है और लवण समुद्र के जल को वेलन्धर नामक देव संभालते हैं। ये व्यंतर जाति के देव अपनी इच्छानुसार रूप बदलकर अदृश्य रूप में यत्र-तत्र क्रीड़ा भी करते हैं।
अपने पूर्व जन्म के हितैषी का उपकार एवं शत्रु का अपकार भी करते हुए देखे जाते हैं। ज्योतिर्वासी देवों के सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक और तारा आदि भेद हैं। इनमें भी कोई मिथ्यादृष्टि देव अपने शत्रु पर उपसर्ग करते देखे जाते हैं।
जैसे-संबर नामक ज्योतिष देव ने भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर उपसर्ग किया था, जिसका पूर्व जन्म का नाम कमठ था। ऊर्ध्वलोक में सोलह स्वर्गों में रहने वाले देव, इन्द्र आदि कल्पवासी देव कहलाते हैं।
ये सभी चारों निकाय के देव तीर्थंकर के पंचकल्याणक में एकत्रित होकर महोत्सव मनाने मध्यलोक में आते हैं। इस प्रकार कल्पवासियों के सोलह स्वर्गों की अपेक्षा १६ भेद हो जाते हैं-
सौधर्म
ईशान
सानत्कुमार
माहेन्द्र
ब्रह्म
ब्रह्मोत्तर
लांतव
कापिष्ठ
शुक्र
महाशुक्र
शतार
सहस्रार
आनत
प्राणत
आरण
अच्युत
इनसे ऊपर नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पांच अनुत्तर ये कल्पातीत कहलाते हैं इन्हें वैमानिक देव भी कहते हैं। ये चार गतियों के कुछ भेद-प्रभेद मैंने बताए हैं इन्हें विशेष रूप से जानने के लिए करणानुयोग ग्रंथ
जैसे-तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, त्रिलोकभास्कर आदि का अध्ययन करना चाहिए।
चन्दनामती-आपके श्रीचरणों में नमन करते हुए आज की लेखनी को यहीं विराम देती हूँ।