गतियों की अपेक्षा जीवों के ४ भेद हैं-नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव। यहां इनका संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है।
१. नारकी- नरक में रहने वाले जीव नारकी हैं। ये हुण्डक संस्थान वाले, नपुंसक और पंचेन्द्रिय होते हैं। इनके आर्त्त व रौद्र ध्यान होता है और अशुभ लेश्या ही होती है। अधोलोक में ७ नरक व ८४ लाख बिल हैं जिनमें ये रहते हैं। ये सभी संज्ञी होते हैं।
२. तिर्यंच- मनुष्य, देव और नारकी को छोड़ कर शेष एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय जीवों को तिर्यंच कहते हैं। ये संज्ञी और असंज्ञी दोनों प्रकार के होते हैं। बैक्टीरिया भी तिर्यंच गति के माने जाते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच जीवों के भी निम्न तीन भेद हैं-
(क) जलचर- जो जल में चलते हैं। जैसे मछली, मेंढ़क, कछुआ।
(ख) थलचर- जो पृथ्वी पर चलते हैं। जैसे गाय, शेर, कुत्ता आदि।
(ग) नभचर- जो नभ में चलते (उड़ते) हैं। जैसे चिड़िया, चील, तोता, आदि।
३. मनुष्य- मनुष्यों को मनु (कुलकर) की संतान कहा जाता है क्योंकि मनु ही मनुष्यों को आजीविका के साधन सिखाकर उनका लालन-पालन करते हैं, अतः वे मनुष्यों के पिता समान हैं। मनुष्य चार प्रकार के होते हैं – भोगभूमिज, कर्मभूमिज, अन्तर्द्वीपज और सम्मूर्च्छन जन्म वाले।
धार्मिक क्रिया कलापों के आधार पर मनुष्यों के दो भेद आर्य व म्लेच्छ हैं। इनका विवरण निम्न है-
(क) आर्य मनुष्य- जो मनुष्य धर्म-क्रियाओं से सहित हैं तथा गुणवानों द्वारा पूज्य हैं, वे आर्य कहलाते हैं। ये भी दो प्रकार के होते है-
(१) ऋद्धिप्राप्त आर्य- जिनके तप आदि से विभिन्न प्रकार की ऋद्धियां उत्पन्न हो जाती हैं, वे ऋद्धि प्राप्त आर्य कहलाते हैं। ऋद्धियां ६४ प्रकार की होती हैं।
(२) ऋद्धिरहित आर्य-जिनके कोई ऋद्धि नहीं हो वे ऋद्धि रहित आर्य कहलाते हैं।
(ख) म्लेच्छ मनुष्य- जो मनुष्य धर्म-क्रियाओं से रहित होते हैं, निंद्य आचरण करने वाले होते हैं तथा आर्य संस्कृति से हीन होते हैं, वे म्लेच्छ मनुष्य कहलाते हैं। ये भी दो प्रकार के होते हैं-
(१) अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ- लवण समुद्र और कालोदधि समुद्र में स्थित ९६ अन्तर्द्वीपों (कुभोग भूमियों) में उत्पन््ना होने वाले मनुष्य अन्तर्द्वीपज म्लेच्छ कहलाते हैं। इन्हें कुमानुष भी कहते हैं।
(२) कर्म भूमिज म्लेच्छ- भरत व ऐरावत आदि कर्म भूमियों में प्रत्येक में १ आर्य खण्ड और ५ म्लेच्छ खण्ड हैं। इन म्लेच्छ खण्डों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्म भूमिज म्लेच्छ कहलाते हैं। आर्य खण्ड में भी यवन, भील आदि कर्मभूमिज म्लेच्छ होते हैं।
कर्म भूमियों में उत्पन्न होने वाले आर्य मनुष्यों को ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है, म्लेच्छ मनुष्यों को मोक्ष प्राप्त नहीं होता है। यदि म्लेच्छ मनुष्य आर्य खण्ड में आ जावे तो भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता है, वह संयम धारण कर सकता है।
मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु ३ पल्य और जघन्य आयु एक अन्तर्मुहूर्त होती है। कर्म भूमिज मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु १ पूर्व कोटि की होती है।
४. देव- देव शब्द का उपयोग अरहन्त व सिद्ध भगवन्तों के लिये भी किया जाता है। किन्तु यहां पर देव शब्द का अर्थ देव गति में जन्म लेने वाले पंचेन्द्रिय जीवों से है। ये देव चार प्रकार के होते हैं- भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । इन चारों प्रकार के देवों के भी क्रमशः १०, ८, ५ और २ भेद हैं।
लोक-परलोक का विचार, हित-अहित का विवेक आदि कार्य ऐसे हैं जो मन के बिना नहीं हो सकते हैं। अतः मन की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की गई है। मन की अपेक्षा से जीव दो प्रकार के होते हैं-
(१) संज्ञी या सैनी (मन सहित) जीव-जिन जीवों के मन होता है और जो हित-अहित की शिक्षा, उपदेश आदि ग्रहण कर सकते हैं वे संज्ञी या सैनी जीव कहलाते हैं। नारकी, देव और मनुष्य गतियों के सभी जीव और पंचेन्द्रिय तिर्यंचो में से कुछ जीव संज्ञी होते हैं।
(२) असंज्ञी या असैनी (मन रहित) जीव-जिन जीवों के मन नहीं होता है और जो शिक्षा, उपदेश आदि ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं। एक से चार इन्द्रियों के सभी जीव असंज्ञी होते हैं और पंचेन्द्रियों में से कुछ जीव (जैसे पानी का सर्प, कोई-कोई तोता आदि) असंज्ञी होते हैं।
उपरोक्तानुसार पंचेन्द्रिय जीवों में कुछ संज्ञी होते हैं और कुछ असंज्ञी होते हैं। अतः संज्ञी-असंज्ञी का भेद केवल पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में होता है, अन्य में नहीं।
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों में उनकी पर्याय की योग्यतानुसार होते हैं। जबकि संज्ञी जीवों में मतिज्ञान व श्रुतज्ञान की विशेष योग्यता संभव है। चींटी आदि विकलेन्द्रिय जीवों में भी विचारने की शक्ति अवश्य होती है। चींटी यद्यपि देख नहीं सकती, किन्तु अग्नि की गर्मी महसूस करके वह यह विचारती होगी कि उधर जावेगी तो जल जावेगी, अतः वह उधर नहीं जाती है। इस प्रकार वह अपना हित-अहित विचार सकती है। यह विचारणा शक्ति सामान्य कही जाती है जो सामान्य रूप से जीवों में पाई जाती है। अन्य प्रकार की विशेष शक्ति शिक्षा ग्रहण करने संबंधी है जो तोता, मैना, कबूतर, कुत्ता, पशु आदि में पाई जाती है। ये प्राणी पढ़ाये जाने पर अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसी बातें सीख लेते हैं जो उनकी जाति के ही अन्य प्राणी नहीं जानते हैं। अतः यह शिक्षा ग्रहण करने की विशेष शक्ति जिन जीवों में पाई जाती है, वे संज्ञी होते हैं और जिनमें नहीं पाई जाती है, वे असंज्ञी होते हैं।
संज्ञी जीव प्रथम से बारहवें गुणस्थान तक होते हैं। केवली तेरहवें गुणस्थानवर्ती होते हैं, वे न तो संज्ञी हैं और न असंज्ञी हैं।
काय का अर्थ शरीर होता है। काय की अपेक्षा से जीवों के छः भेद हैं-५ स्थावर व १ त्रस।
५ स्थावर जीव इस प्रकार हैं-पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक तथा वनस्पतिकायिक। इन पांचों के शरीर अलग-अलग जाति के होते हैं। पृथ्वी एक ठोस पदार्थ है जो खाने के अतिरिक्त अन्य काम आती है। जल तरल पदार्थ है जिससे प्यास बुझती है। अग्नि में भस्म करने की शक्ति है। वायु से श्वास लिया जाता है और वनस्पति खाने के काम आती है। इस प्रकार इन पांचों की बनावट, स्वरूप व उपयोग अलग-अलग हैं। इस प्रकार इनकी ५ काय अलग-अलग जाति की हैं।
त्रस जीव-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस जीव कहलाते हैं। इनकी काय समान (रक्त, मांस, हड्डी आदि से) बनी होने के कारण ये चारों त्रस काय के अन्तर्गत आते हैं।
सिद्ध भगवान काय-रहित होते हैं।
(१) सूक्ष्म जीव- सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर अति सूक्ष्म होता है, यंत्रों से भी दिखाई नहीं देता है, दूसरे सूक्ष्म जीवों से रुकता नहीं है, दूसरों को रोकता भी नहीं है, दूसरे को मारता नहीं है, दूसरे से मरता भी नहीं है और बिना आधार के रहता है, वे सूक्ष्म जीव हैं। सूक्ष्म जीव अपनी आयु पूर्ण होने पर स्वयं ही मरता है अर्थात् वह किसी के द्वारा मारा नहीं जा सकता है, अतः उसकी हिंसा नहीं होती है। सूक्ष्म जीव एकेन्द्रिय ही होते हैं। सूक्ष्म जीव छः प्रकार के होते हैं – पृथ्वीकायिक सूक्ष्म, जलकायिक सूक्ष्म, अग्निकायिक सूक्ष्म, वायुकायिक सूक्ष्म, नित्यनिगोद सूक्ष्म और इतरनिगोद सूक्ष्म।
ये जीव सम्पूर्ण लोक (वातवलयों सहित) में ठसाठस भरे हुए हैं, जैसे घड़े में घी भरा रहता है। लोकाकाश का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव नहीं हों। सिद्ध लोक में भी ये होते हैं।
(२) बादर (स्थूल) जीव- बादर नाम कर्म के उदय से जिनका शरीर दूसरे को रोकता है, दूसरे के द्वारा रोके जाने पर स्वयं रुकता है, आधार के बिना नहीं रहता है और दिखाई भी देता है, वह बादर जीव हैं। ये स्थूल जीव भी कहलाते हैं। बादर जीव भी छः प्रकार के होते हैं-पृथ्वीकायिक बादर, जलकायिक बादर, अग्निकायिक बादर, वायुकायिक बादर, नित्यनिगोद बादर और इतरनिगोद बादर।
त्रस जीव सभी बादर होते हैं। स्थावर जीवों में प्रत्येक वनस्पति (सप्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित) भी केवल बादर ही होते हैं। प्रत्येक वनस्पति के अतिरिक्त शेष स्थावर (पृथ्वीकायिक, अग्निकायिक, जलकायिक, वायुकायिक तथा साधारण वनस्पतिकायिक) जीव सूक्ष्म व बादर दोनों प्रकार के होते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म व बादर का भेद केवल एकेन्द्रिय जीवों में ही होता है।
अवगाहना की अपेक्षा से सूक्ष्म व बादर का भेद नहीं है क्योंकि सूक्ष्म जीवों की अवगाहना बादर जीवों की अवगाहना से भी कदाचित् अधिक देखी जाती है। सूक्ष्म जीवों का औदारिक शरीर (स्थूल) होते हुए भी इनमें सूक्ष्मता, सूक्ष्म नाम कर्म के उदय से होती है।
आहारक व वैक्रियिक शरीर सूक्ष्म होते हुए भी बादर ही हैं क्योंकि आहारक शरीर ढाई द्वीप से बाहर नहीं जा सकता है और वैक्रियिक शरीर त्रस नाली से बाहर नहीं जा सकता है।
बादर जीव एक स्थान पर बहुत से नहीं रह सकते हैं। लेकिन जितने स्थान में एक निगोदिया जीव रहता है उतने स्थान में सूक्ष्म जीव साधारण काय के रूप में अनन्तानन्त रह सकते हैं क्योंकि ये सूक्ष्म जीव न तो किसी से रुकते हैं और न किसी को रोकते हैं।
(क) भव्य जीव-जिसमें सम्यक् दर्शन प्राप्त करने की योग्यता होती है, वह भव्य जीव है। इस प्रकार के जीव मोक्ष जाने योग्य होते हैं। काल की अपेक्षा से ये तीन प्रकार के होते हैं-
आसन्न भव्य-जो थोडे भव धारण कर मोक्ष जावेगा, वह आसन्न भव्य है। इसे निकट भव्य भी कहते हैं।
दूर भव्य- जो बहुत काल में मुक्त होंगे, वे दूर भव्य हैं।
अभव्यसम भव्य- जो जीव मुक्त होने की योग्यता तो रखता है, किन्तु वह कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकेगा, उसे दूरान्दूर भव्य या अभव्य सम भव्य कहते हैं। जैसे एक स्त्री पुत्रवती होने की योग्यता तो रखती है, मगर विधवा हो जाने के कारण अब सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती है।
(ख) अभव्य जीव- जिन जीवों में सम्यक् दर्शन प्राप्त करने की योग्यता नहीं हो। ये कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं। जैसे बांझ स्त्री कभी भी सन्तान उत्पन्न नहीं कर सकती है। इसी प्रकार ठर्रा कोरड़ू) मूंग को कितना भी उबालो वह पकता (सीझता) ही नहीं है।
(क) सकलेन्द्रिय जीव- जिनके सकल अर्थात् सम्पूर्ण पांच इन्द्रियाँ होती हैं; वे सकलेन्द्रिय जीव हैं। इस प्रकार पंचेन्द्रिय जीव ही सकलेन्द्रिय जीव हैं।
(ख) विकलेन्द्रिय (विकलत्रय) जीव- जिन त्रस जीवों के विकल अर्थात् कम इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें विकलेन्िद्रय जीव कहते हैं। इन जीवों के २ अथवा ३ अथवा ४ इन्द्रियाँ होती हैं। इन्हें विकलत्रय जीव भी कहते हैं।
जो एक शरीर में अनन्त जीव निवास करते हैं उनको निगोदिया जीव कहते हैं। आशय यह है कि एक ही साधारण शरीर में जहां अनन्तों जीव निवास करते हैं, वह निगोद है। निगोदिया जीव का शरीर अंगुल का असंख्यातवां भाग है और यह जीव की सूक्ष्मतम पर्याय है। ऐसे सूक्ष्म शरीर में भी अनन्त जीव रहते हैं। इन जीवों में एक ही शरीर के अनन्त जीव स्वामी होते हैं। निगोदिया जीवों में एक के जन्म के साथ अनन्त का जन्म, एक के मरण के साथ अनन्त का मरण, एक के आहार ग्रहण करने पर अनन्त का आहार ग्रहण तथा एक के श्वास ग्रहण पर अनन्त जीवों का श्वास ग्रहण होता है। लब्ध्यपर्याप्तक निगोदिया जीवों की आयु एक श्वास के अठारहवें भाग बताई गई है और वे एक अन्तर्मुहुर्त (३७७३ श्वास) में ६६३३६ बार जन्म-मरण करते हैं। पर्याप्तक निगोदिया जीवों की आयु अन्तर्मुहूर्त होती है।
अधोलोक में सात नरकों के नीचे १ राजू प्रमाण (ऊंचा) जो क्षेत्र है वह कलकल (कलकला) पृथ्वी कहलाता है और इसमें पंच स्थावर एवं निगोदिया जीवों का निवास है। वैसे समस्त लोक में सूक्ष्म निगोदिया जीव सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं, लेकिन वे दिखाई नहीं देते हैं।
आठ स्थानों पर बादर निगोदिया जीव नहीं होते हैं-
पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, देव, नारकी, आहारक शरीरी और केवली प्रत्येक शरीर वाले होते हैं और इनके शरीर में बादर निगोदिया जीव नहीं होते हैं। इन आठ स्थानों को छोड़कर अन्य बादर जीवों के आश्रित बादर जीव पाये जाते है।
निगोदिया जीव २ प्रकार के होते हैं-
(क) नित्य निगोद जीव- जो जीव निगोदों में ही रहते हैं अर्थात् जो आज तक निगोद से नहीं निकले हैं और आगे भी नहीं निकलेंगे, उन्हें नित्य निगोदिया जीव कहते हैं।
(ख) अनित्य निगोद जीव- जिन्होंने त्रस पर्याय पूर्व में प्राप्त की थी या अब आगे प्राप्त करेंगे, वे अनित्य निगोद जीव हैं।
इतर निगोद जीव- जिस जीव ने निगोद से निकलकर अन्य जीवों में जन्म लिया और पुनः निगोद में उत्पन्न हो गया हो, वह इतर निगोद जीव है।
चतुर्गति निगोद- जो निगोदिया जीव देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्य गतियों में उत्पन्न होकर पुनः निगोद में उत्पन्न होता है, उसे चतुर्गति निगोद जीव कहते हैं।
लोक में जीवों की संख्या अनंतानंत है। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक व वायुकायिक जीवों की संख्या असंख्यातासंख्यात है। वनस्पतिकायिक जीव अनंतानन्त हैं। २, ३, ४ व ५ इन्द्रिय वाले जीव असंख्यातासंख्यात हैं।
सब से कम संख्या मनुष्यों की है। पर्याप्तक (गर्भज) मनुष्यों की संख्या २९ अंक प्रमाण (७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६) है और अपर्याप्तक (सम्मूर्च्छन) मनुष्यों की संख्या असंख्यात है। मनुष्यों से असंख्यात गुणे अधिक नारकी, नारकियों से असंख्यात गुणे अधिक देव और देवों से अनन्त गुणे अधिक तिर्यंच हैं। तिर्यंचो से अनन्त गुणे अधिक सिद्ध हैं और सिद्धों से अनन्त गुणे अधिक निगोदिया जीव हैं। इस प्रकार जीवों में सबसे कम संख्या मनुष्यों की है और सब से अधिक संख्या निगोदिया जीवों की है।
एक निगोद शरीर में जीवों की संख्या अनन्तानंत होती है। तीनों कालों में होने वाले सिद्धों की संख्या से भी अधिक जीव एक निगोद शरीर में होते हैं अर्थात् सिद्धों की कुल संख्या भी एक निगोद शरीर के जीवों का अनन्तवॉं भाग है। जब एक निगोद शरीर में इतनी जीव-राशि होती है तो समस्त निगोदिया शरीरों में तो इनकी संख्या की कल्पना करना भी कठिन है।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य पर्याय प्राप्त होना कितना दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय प्राप्त करने हेतु देवता भी तरसते हैं। क्योंकि संयम धारण करना मनुष्य पर्याय में ही संभव है। हम सौभाग्यशाली हैं कि हमें मनुष्य पर्याय मिली है। आवश्यकता इसी बात की है कि हम इस पर्याय का सदुपयोग करके मोक्ष मार्ग पर बढ़ने का प्रयास करें।