‘ भवाद्भवांतरावाप्ति: गति: ‘
एक भव को छोड़कर दूसरे भव के ग्रहण करने का नाम गति है। गति के चार भेद हैं— नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। एक—एक गति से आने के और उसमें जाने के कितने द्वार हैं सो ही देखिये— नरकगति से आने—जाने के द्वार— नरक गति से आने के दो द्वार हैं और नरक गति में जाने के भी दो ही द्वार हैं। एक मनुष्य और द्वितीय तिर्यंच। अर्थात् मनुष्य या पंचेन्द्रिय तिर्यंच ही मरकर नरकगति में जा सकते हैं तथा नरकगति से निकलकर जीव मनुष्य या पंचेद्रिय तिर्यंच ही हो सकते हैं। अन्य गति में नहीं जा सकते हैं। असैनी पंचेद्रिय तिर्यंच पहले नरक तक ही जा सकते हैं इसके नीचे नरको में नहीं चूँकि वे मन के बिना इतना अधिक पाप नहीं कर सकते हैं। सरीसृप तिर्यंच दूसरे नरक तक ही जा सकते हैं। इससे नीचे नहीं। पक्षीगण कदाचित् नरक जावें तो तीसरे नरक तक ही जा सकते हैं इससे नीचे नहीं जा सकते हैं ।
सर्प चौथे नरक तक जा सकते हैं इससे नीचे नरकों में नहीं। सिंह कितना भी अधिक पाप क्यों न करे किन्तु वह पांचवे नरक तक ही जन्म ले सकता है छठे या सातवें में नहीं। स्त्रियाँ अधिक से अधिक पाप करके भी छठे नरक तक ही जा सकती हैं सातवें में नहीं चूँकि उनके उत्तम संहननों का अभाव है। पुरुष और मत्स्य सातवें नरक तक गमन करने की शक्ति रखते हैं। स्वयंभूरमण समुद्र में रहने वाले महामत्स्य और उनके कान में रहने वाले तन्दुल मत्स्य यदि हिंसा करते हैं या तन्दुल मत्स्य जो कि सभी जीवों के खाने का भाव ही किया करता है। ये मत्स्य हिंसा के अभिप्राय से सातवें नरक में भी चले जाते हैं। यह तो हुई नरकपति में जाने वालों की बात। अथवा नरकगति में जाने के ये दो ही गतिरूप द्वार बताये हैं।
अब वहाँ से आने वालों की गतियों को देखिये— सातवें नरक से निकला हुआ जीव व्रूर पंचेंद्रिय पशु ही होता है वह मनुष्य नहीं हो सकता है। छठे नरक से निकलता हुआ जीव मनुष्य भी हो सकता है अर्थात् तिर्यंच या मनुष्य इन दो गतियों में जन्म ले सकता है और यह मनुष्य या तिर्यंच मोह कर्म के मन्द हो जाने से कदाचित् गुरुओं का उपदेश या देवों का सम्बोधन प्राप्त करके अथवा जिनेन्द्र देव के जन्म आदि कल्याणकों को या रथयात्रा आदि महामहोत्सवों को देखकर अथवा जातिस्मरण हो जाने के निमित्त आदि कारणों से सम्यक्तव को भी ग्रहण कर सकता है किन्तु इस छठे नरक से आये हुये जीव के भाव अणुव्रत या महाव्रत ग्रहण के नहीं हो सकते हैं चूँकि उसके अभी इतने पाप कर्म मन्द नहीं हो पाते हैं। पाँचवे नरक से निकला हुआ जीव यदि मनुष्य हुआ है तो महाव्रत ग्रहण कर मुनि होने की भी क्षमता रखता है तथा यदि तिर्यंच है तो वह देशव्रत ग्रहण कर सकता है। चतुर्थ नरक से निकले हुये जीव में से यदि कोई मनुष्य हुआ है तो वह कदाचित् मुनिपद ग्रहण कर केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। और तिर्यंच है तो वह देशव्रती तक हो सकता है।
तीसरे नरक से निकला हुआ जीव तीर्थंकर भी हो सकता है अर्थात् यदि किसी जीव ने यहाँ पर पहले नरकायु का बन्ध कर लिया अनन्तर उपशम या क्षयोपशम सम्यक्तव को प्राप्त हुआ पुन: केवली भगवान् के या श्रुतकेवलीr के पादमूल में सोलह कारण भावनाओं को भाकर तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया तो वह जीव मरने के कुछ क्षण ही पूर्व सम्यक्त्व से च्युत होकर तीसरे नरक में चला जाता है और वहाँ पर पर्याप्त अवस्था को प्राप्त होते हुए पुन: सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है तो फिर वहाँ अपनी आयु पर्यंत सम्यग्दृष्टि रहता है और उसके वहाँ से निकलने के छह महीने पहले ही देवगण वहाँ पर जाकर उस नारकी जीव (भावी तीर्थंकर) की सुरक्षा की व्यवस्था बना देते हैं— उनके चारों ओर परकोटा सुरक्षित कर देते हैं। तथा वे देवगण यहाँ मध्यलोक में जन्म नगरी में अतिशय शोभा करके माता के आँगन में रत्नों की वर्षा प्रारम्भ कर देते हैं। श्री, ह्री आदि देवियाँ इन्द्र महाराज की आज्ञा से आकर माता की सेवा करती हैं, गर्भ शोधन आदि क्रियायें करती हैं।
अनंतर तीर्थंकर होने वाला वह जीव जब नरक से निकलकर माता के गर्भ में प्रवेश करता है तब इन्द्र शची सहित असंख्य देव परिवारों के साथ आकर तीर्थंकर के माता—पिता की पूजा करके महान् उत्सव के साथ गर्भ कल्याणक मनाते हैं। तात्पर्य यह रहा कि तीसरे नरक से निकलकर जीव तीर्थंकर भी हो सकते हैं। इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि दूसरे और पहले नरक से निकले हुये जीव तीर्थंकर भी हो सकते हैं, केवली भी हो सकते हैं और मोक्ष—पद को भी प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु नरकों से निकले हुये जीव चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण या प्रतिनारायण नहीं हो सकते हैं यह बात विशेष है। इस तरह नरक गति से आने के द्वार अर्थात् गतियाँ बताई गई हैं। इसमें यह बात खासतौर से समझने की है कि जो नरक से निकलकर तीर्थंकर या केवली आदि होते हैं वह सब सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है। सातवें नरक से जीव सम्यक्त्व लेकर नहीं निकल सकते हैं। किन्तु अन्य नरकों से सम्यक्त्व लेकर भी निकल सकते हैं । सातों ही नरकों में जीव सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकते हैं। नरकों में सम्यक्त्व के बहिरंग कारणों में वेदना—अनुभव जातिस्मरण और देवों द्वारा संबोधन माने गये हैं। देवों द्वारा संबोधन तृतीय नरक तक ही है इससे नीचे कोई भी देव नहीं जाते है। अत: चतुर्थ आदि नरकों में दो ही कारण हैं। यदि यहाँ पर किसी ने नरकायु बाँध ली है और बाद में सम्यक्त्व प्राप्त किया है तो वे पहले नरक में ही जा सकते हैं इससे नीचे नहीं। तात्पर्य यही समझना चाहिये कि बिना सम्यक्त्व के यह जीव अनन्तों बार नरकगति में जा चुका है और वहाँ से आकर मनुष्य भव को भी प्राप्त कर संसार में ही घूमता रहा है। यदि संसार भ्रमण को समाप्त करना है तो सम्यक्त्व को ग्रहण करना चाहिये।
पंचेद्रिय पशु यदि मरण करते हैं तो वे चौबीसों दण्डक में (चारों गतियों में) जा सकते हैं। यहाँ पहले आप चौबीस दण्डक को समझ लीजिये— नरकगति का दण्डक १, भवनवासी देवों के दण्डक १०, ज्योतिषी देव का १, व्यंतरों का १, वैमानिक देवों का १, स्थावर के ५, विकलत्रय के ३, पंचेद्रिय तिर्यंच का १, और मनुष्य का १, ऐसे १±१०±१±१±१±५±३±१±१·२४ ये चौबीस दण्डक माने गये हैं। पंचेद्रिय तिर्यंच इन चौबीसों दण्डकों में जा सकते हैं और चौबीस दण्डक से आये हुये जीव पशु हो सकते हैं। विकलत्रय अर्थात् दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय और चार इंद्रिय जीवों के जाने की तथा आने की दश ही गति है। ये विकलत्रय मर कर पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यंच तथा मनुष्य इन दश स्थानों में जन्म ले सकते हैं तथा इन दश स्थानों से निकल कर ही विकलत्रय होते हैं। अर्थात् विकलत्रय जीव तिर्यंचगति और मनुष्यगति में ही जन्म ले सकते हैं और तिर्यंच या मनुष्य ही मरकर विकलत्रय हो सकते हैं। ये विकलत्रय जीव मरकर देवगति या नरकगति में नहीं जा सकते हैं और न देवगति या नरकगति से निकलकर जीव विकलत्रय ही हो सकते हैं। इनका अस्तित्व भी कर्मभूमि में ही है। ये जीव न नरकभूमि में हैं, न स्वर्गभूमि में हैं न भोगभूमि में हैं और न असंख्यात द्वीप समुद्रों में ही जन्मते हैं। ये मात्र कर्मभूमियों में लवणसमुद्र, कालोदधि समुद्र में, स्वयंभूरमण द्वीप के उत्तर भाग की कर्मभूमि में तथा स्वयंभूरमण समुद्र में ही जन्मते हैं। अन्यत्र ये नहीं पाये जाते हैं। नारकियों के बिना बाकी शेष तेईस दण्डक के जीव मरकर पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिकप्रत्येक वनस्पति में ही होते हैं, साधारण वनस्पति में नहीं। में जन्म ले सकते हैं। अर्थात् भवनत्रिकदेव और वैमानिक में ईशान स्वर्ग तक के देव मरकर इन तीनों स्थावर में जन्म ले सकते हैं तथा ये तीनों स्थावर मरकर देवगति और नरकगति के सिवाय सर्वत्र दश दण्डकों में अर्थात् पांचों स्थावर, तीन विकलेंद्रिय, पंचेंद्रिय पशु और मनुष्य में जन्म ले सकते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव मरकर पांच स्थावर, तीन विकलेंद्रिय और पंचेंद्रिय पशु इन नव स्थानों में ही जन्म ले सकते हैं वे मरकर मनुष्य, नारकी या देव नहीं हो सकते हैं। तथैव देव या नारकी भी इन दो स्थावरों में जन्म नहीं ले सकते हैं किन्तु मनुष्य मरकर अग्निकायिक व वायुकायिक हो सकते हैं। अर्थात् एक मनुष्यगति ही ऐसी गति है कि उससे जाने के लिये सभी मार्ग खुले हुये हैं।
शुद्ध पृथ्वीकायिक जीव की उत्कृष्ट आयु १२ हजार वर्ष, खरपृथ्वीकायिक जीव की २२ हजारवर्ष, जलकायिक जीव की ७ हजार वर्ष, अग्निकायिक जीव की ३ दिन, वायुकायिक जीव की ३ हजार वर्ष और वनस्पतिकायिक जीव की १० हजार वर्ष प्रमाण है। विकलेंद्रियों में दो इन्द्रिय की १२ वर्ष, तीन इन्द्रियों की ४९ दिन और चार इन्द्रियों की ६ मास प्रमाण है। पंचेन्द्रियों में सरीसृप की उत्कृष्ट आयु ९ पूर्वांग, पक्षियों की ७२ हजार वर्ष और सर्पों की ४२ हजार वर्ष है। शेष तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि प्रमाण है। यह उपयुक्त उत्कृष्ट आयु पूर्व पश्चिम विदेहों में उत्पन्न हुये तिर्यंचों के तथा स्वयंप्रभपर्वत के बाह्य कर्मभूमि भाग में उत्पन्न हुये तिर्यंचो के तो सर्वकाल पायी जाती है। भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर चतुर्थ काल के प्रथम भाग में किन्हीं तिर्यंचों के पाई जाती है। एकेन्द्रिय जीवों की जघन्य आयु उच्छ्वास के अठाहरवें भाग प्रमाण है तथा विकलेन्द्रिय एवं सकलेंद्रियों की क्रमश: इससे उत्तरोत्तर संख्यात गुणी है। उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि के तिर्यंचों की उत्कृष्ट आयु क्रम से ती पल्य,दो पल्य और एक पल्य है। शाश्वत भोगभूमियों में जघन्य व उत्कृष्ट ये आयु के दो प्रकार ही हैं। अशाश्वत भोगभूमि में से जघन्य भोगभूमि में जघन्य आयु एक समय अधिक पूर्वकोटि और उत्कृष्ट एक पल्य प्रमाण है और मध्यम आयु के भेद अनेक प्रकार हैं। मध्यम भोगभूमि में जघन्य आयु एक समय अधिक एक पल्य और उत्कृष्ट आयु दो पल्य है तथा मध्यम में अनेक भेद हैं। उत्तम भोगभूमि में जघन्य आयु एक समय अधिक दो पल्य और उत्कृष्ट आयु तीन पल्य है, मध्यम में अनेक भेद हैं। हैमवत, हरि, विदेह के देवकुरु—उत्तरकुरु, रम्यक और हैरण्यवत ये छह ऐसे ही पांच मेरु संबंधी ३० भोगभूमि शाश्वत अनादि निधन हैं उनमें परिवर्तन का कोई सवाल ही नहीं है, तथा पाँच भरत और पाँच ऐरावतों के आर्यखंडों में जो षट्काल परिवर्तन से तीन कालों में उत्तम, मध्यम, जघन्य भोगभूमि होती हैं वे अशाश्वत हैं उनमें अवसर्पिणी युग में क्रम से हानि और उत्सर्पिणी में क्रम से वृद्धि चलती रहती है। वहीं पर जघन्य, मध्यम आयु होती हैं।
कर्मभूमियाँ मनुष्य और पंचेंद्रिय तिर्यंच ही भोगभूमि में जाते हैं तथा भोगभूमि से मरकर तिर्यंच जीव नियम से देवगति में ही जाते हैं। भवनत्रिक से ईशान स्वर्ग तक इनका जाने का मार्ग खुला है। कर्मभूमि के असंयत सम्यग्दृष्टि या देशव्रती तिर्यंच अधिक से अधिक सोलहवेंत्रिलोकसार गाथा ५४५। स्वर्ग तक जा सकते हैं ऐसा भी विधान है।
पंचेन्द्रियसंज्ञी जीवों के अतिरिक्त पाँच स्थावर, तीन विकलेंद्रिय और असंज्ञी पंचेद्रिय इनके एक मिथ्यात्वतिलोयपण्णत्ति पृ० ६१३। गुणस्थान रहता है अर्थात् ये बेचारे मिथ्यादृष्टि ही बने रहते हैं। भरत, ऐरावत के आर्यखण्ड किन्हीं ग्रन्थों में इनके अपर्याप्त काल में द्वितीय गुणस्थान माना है। के तिर्यंचों में पाँच गुणस्थान तक हो सकते हैं। पाँच विदेहों में, विद्याधर श्रेणियों में व स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में तिर्यंचों के पाँच गुणस्थान तक देखे जाते हैं। म्लेच्छों के तिर्यंचों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है। भोगभूमिज तिर्यंचों के पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा ये चार गुणस्थान तक हो सकते हैं। वहाँ पर पाँचवां देशविरत गुणस्थान नहीं होता है।
कितने ही तिर्यंच गुरुओं के उपदेश से या देवों के प्रतिबोध से तथा कितने ही जीव स्वभाव से प्रथमोपशम अथवा वेदक सम्यक्त्व ग्रहण कर लेते हैं तथा कितने ही सुख—दु:ख को देखकर, कितने ही जातिस्मरण से, कितने ही जिनेंद्र महिमा के दर्शन से और कितने ही जिनिंबब के दर्शन से सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेते हैं। इसी प्रकार से कर्मभूमिज जीव गुरुओं के उपदेश या देवों के प्रतिबोध आदि कारणों से पाँच अणुव्रतों को ग्रहण कर देशसंयत हो जाते हैं। सम्यग्दृष्टि तिर्यंच मरकर नियम से देवगति में वैमानिक देव होते हैं अर्थात् भवनत्रिक में नहीं जाते हैं और न अन्यत्र तीन गतियों में ही जाते हैं। यदि इन्होंने पहले तिर्यंचायु या मनुष्यायु बांध ली पीछे सम्यक्त्व ग्रहण किया है तो सम्यक्त्व सहित ये जीव भोगभूमि के तिर्यंच या मनुष्य हो जाते हैं। पुन: वहाँ से नियम से सौधर्म या ईशान स्वर्ग में देव हो जाते हैं। इन तिर्यंचों में से भोगभूमिज तिर्यंचों में संकल्पवश केवल सुख ही होता है और कर्मभूमिज तिर्यंचों में सुख—दु:ख दोनों ही पाये जाते हैं। विशेष— इन ‘‘गतियों से आने—जाने के द्वार’’ में ऐसा कहा है कि ‘छठे नरक से आये जीव के भाव अणुव्रत या महाव्रत ग्रहण के नहीं होते।’ यह ‘ चौबीस दंडक के आधार से है।’यथा ‘ छठे को निकसो जुकदाप, सम्यक्त्वी होवे निष्पाप।’ किन्तु तिलोयपण्ण्त्ति१ में कहा है कि छठी पृथ्वी से निकलकर जीव देशव्रती हो सकते हैं। यही बात धवला पु० ६ पृ० ४८६ पर भी कही गई है। अत: इस विशेष को ध्यान में रखना चाहिये।
मनुष्य गति में प्राप्त करने योग्य सबसे श्रेष्ठ जो स्थान ‘मुक्ति धाम’ है यदि कोई इस मनुष्य पर्याय से उस मोक्ष पुरुषार्थ को प्राप्त करने के लिये धर्म पुरुषार्थ का अवलंबन कर लेते हैं तो ठीक है अन्यथा चिंतामणि सदृश मनुष्य गति से वे निगोद में भी जा सकते हैं— जहाँ से पुन: निकलना बहुत ही दुर्लभ हो जाता है अत: सभी पर्यायों में सार मनुष्य पर्याय है, मनुष्य पर्याय का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण सुख है ऐसा समझ कर संयम को ग्रहण कर लेना चाहिये। मनुष्य चौबीसों दण्डक में जा सकता है इसमें किंचित् भी संदेह नहीं है । यह मनुष्य मुक्ति को भी प्राप्त करके तीन लोक का स्वामी हो सकता है। चूँकि मुनि के बिना कोई भी जीव मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता है और मनुष्य के बिना कोई भी मुनि हो नहीं सकता है। जो सम्यग्दृष्टि मुनि होते हैं वे ही इस संसार समुद्र को पार कर शिवधाम में पहुँच जाते हैं जहाँ पर जाकर अविनश्वर हो जाते हैं पुन: उन्हें यहाँ आने का कोई मार्ग ही नहीं रहता है। वहाँ पर वे शाश्वत चिच्चैतन्य स्वरूप अपनी आत्मा में ही निवास करते हैं और परमानंदमय सुख का अनुभव करते रहते हैं। इस प्रकार से मनुष्य गति से जाने की गति— द्वार पच्चीस हो जाते हैं तथा मनुष्य गति में आने के द्वार बाईस ही हैं। चूँकि अग्निकायिक और वायुकायिक जीव मरकर मनुष्य नहीं हो सकते है तथा पच्चीसवाँ दण्डक जो सिद्ध गति रूप है वहाँ से आने का तो सवाल ही नहीं उठता है। यह तो सामान्य मनुष्यों की बात हुई है अब विशेष अर्थात् पदवीधारी मनुष्यों की गति—आगति को देखिये—
या वे स्वर्ग से आते हैं या नरक से और पुन: वे गति अर्थात् जन्म को धारण नहीं करते हैं बल्कि उसी भव से लोक के अग्रभाग पर जाकर विराजमान हो जाते हैं। अत: तीर्थंकर के आने के द्वार दो हैं और जाने का द्वार एक पच्चीसवें दण्डक रूप मोक्ष ही है। चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र ये स्वर्ग लोक से ही आते हैं अत: इनके आने का द्वार एक ही है तथा इनमें से चक्रवर्ती स्वर्ग, नरक या मोक्ष इन तीन स्थानों में जा सकते हैं। यदि चक्रवर्ती तपश्चचरण करते हैं अर्थात् दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं तो स्वर्ग अथवा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं और यदि राज्य में मरण करते हैं तो नरक में चले जाते हैं। किन्तु अंत में ये मोक्ष को नियम से प्राप्त करते हैं चूँकि पदवीधारी हैं। बलभद्रों के लिये जाने के दो ही द्वार हैं स्वर्ग या मोक्ष। क्योंकि ये नियम से तपश्चरण धारण करते हैं। अर्धचक्री अर्थात् नारायण और प्रतिनारायण ये नियम से नरक ही जाते हैं ये राज्य में ही मरते हैं अत: ये उस ही भव से मोक्ष को नहीं प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु अंत में ये नियम से निर्वाण प्राप्त करते ही करते हैं अर्थात् ये चक्रवर्ती या अर्धचक्री उस भव से यदि नरक भी चले जाते हैं तो भी कतिपय भवों को धरकर पुन: ये मोक्ष अवश्य प्राप्त करते हैं। चूँकि पदवीधारक पुरुषों के आखिर में मोक्ष का नियम ही है। यह शलाका पुरुषों की बात हुई । इनके अतिरिक्त भी जो पदवीधर हैं उनके विषय में पढ़िये— जो कुलकर हो जाते हैं या नारद हो जाते हैं या रूद्र हो जाते हैं और कामदेव हो जाते हैं या तीर्थंकर के माता—पिता हो जाते हैं, वे भी इन पदों को धारण करने के बाद कुछ भव के बाद मोक्ष को अवश्य ही प्राप्त करते हैं चूँकि इन पदों को धारण करने वाले जीव बहुत काल तक संसार में भ्रमण नहीं कर सकते हैं। कुलकर चौदह होते हैं। नारद नव होते हैं, रुद्र ग्यारह होते हैं१ और कामदेव चौबीस होते हैं। कुलकर स्वर्ग में ही जाते हैं अत: इनके जाने का एक ही द्वार है तथा आने में ये इस अवसर्पिणी में तो विदेह क्षेत्र में पहले मनुष्यायु बाँध कर पीछे क्षायिक सम्यग्दृष्टि हुये हैं अत: वे वहाँ भरत क्षेत्र के तृतीय काल में अंत में भोगभूमि में कुलकर हुये हैं। जन्मांतर में ये भी निर्वाण को प्राप्त करते हैं। कामदेव पदवी धारक पुरुष नियम से कामदेव का नाशकर मोक्षधाम को प्राप्त करते हैं। नारद और रूद्र अधोगति में ही अर्थात् नरक में ही जाते हैं क्योंकि नारद तो कलहप्रिय होते हैं और रूद्र अपने जीवन को पाप से कलंकित कर लेते हैं । फिर भी ये नारद और रुद्र भी जन्मांतर में नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं। तीर्थंकर के पिता या तो स्वर्ग जाते हैं या सिद्धपद प्राप्त करते हैं अत: इनके भी जाने के दो ही द्वार हैं। माता स्वर्ग ही जाती हैं आखिर अल्पकार में ही निर्वाण को प्राप्त कर लेती हैं। शाश्वत भोगभूमिज और अशाश्वत भोगभूमिज दोनों भोगभूमिज मनुष्यों के जाने का एक ही द्वार है। देवगति अर्थात् भवनत्रिक या सौधर्म—ईशान स्वर्ग तक में ये जीव मरकर जा सकते हैं। भोग भूमि में आने के दो द्वार हैं— कर्मभूमि के पंचेंद्रिय तिर्यंच या मनुष्य। अर्थात् ये ही जीव मरकर भोगभूमि में जा सकते हैं।
मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक कोटि पूर्व वर्ष की है और जघन्य आयु अंतर्मुहूर्त है। यह आयु कर्मभूमियाँ जीवों की है। पूर्व—पश्चिम विदेह में तथा चतुर्थ काल के पूर्वकाल में यह उत्कृष्ट आयु होती है। मध्यम आयु के अनेक भेद हैं। भोगभूमि में उत्तम में तीन पल्य, मध्यम में दो पल्य और जघन्य में एक पल्य आयु है। परिवर्तनशील भोगभूमियों में उत्कृष्ट तो यही आयु है। जघन्य आयु उत्तम भोगभूमि में एक समय अधिक दो पल्य, मध्यम भोगभूमि में एक समय अधिक एक पल्य और जघन्य भोगभूमि में एक समय अधिक एक पूर्वकोटि प्रमाण है तथा मध्यम आयु के अनेक भेद हैं। लवण समुद्र आदि में, कुभोग भूमियों में कुमानुष रहते हैं। ये भी मरकर देवगति को ही प्राप्त करते हैं। विजयार्ध पर्वत की दक्षिण—उत्तर श्रेणियों में जो मनुष्य रहते हैं वे विद्याधर कहलाते हैं। इनमें कुछ विद्यायें जाति और कुल की परंपरा से प्र्राप्त रहती हैं। कुछ विद्यायें सिद्ध करके ये लोग नाना प्रकार से विद्याओं के निमित्त से सुखों का अनुभव करते हैं।
वदेह क्षेत्रों में हमेशा चौदह गुणस्थान पाये जाते है। अर्थात् वहाँ से हमेशा मोक्ष का द्वार खुला रहता है। भोगभूमि में चार गुणस्थान तक ही हो सकते हैं । सभी म्लेच्छों के मनुष्यों को वहाँ पर एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है। विद्याधरों के चौदह गुणस्थान तक हो जाते हैं जब वे विद्याआें को छोड़कर दीक्षा ले लेते हैं तभी अन्यथा विद्या सहित में पांच गुणस्थान तक हो सकते हैं। अर्थात् विद्यासहित जीव कदाचित् क्षुल्लक बन सकते हैं। किन्तु मुनि नहीं बन सकते। भरत—ऐरावत क्षेत्र में मनुष्यों के चतुर्थकाल में चौदह गुणस्थान होते हैं। चतुर्थ—काल के जन्मे हुए मनुष्य कदाचित् पंचमकाल में मोक्ष जा सकते हैं किन्तु पंचमकाल के जन्मे हुये नहीं जा सकते। पंचमकाल में उत्तम तीन संहनन के न होने से अधिक से अधिक सोलह स्वर्ग तक का मार्ग खुला है। कदाचित् कोई महामुनि लौकांतिक देव भी हो सकते हैं। अर्थात् पंचमकाल में छठा, सातवां गुणस्थान होता है। अत: मुनियों का अस्तित्व अन्त तक है।
कतने ही मनुष्य गुरुओं के उपदेश से या देवों के प्रतिबोधन से अथवा स्वभाव से सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लेते हैं। कितने ही मनुष्य जाति स्मरण से, कितने ही जिनेन्द्रदेव के कल्याणकों को देखकर, कितने ही जीव जिनबिम्ब के दर्शन से औपशमिक आदि सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेते हैं, क्षायिक सम्यक्त्व तो केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही प्रकट होता है अत: आज पंचमकाल में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं हो सकता है। सम्यक्त्वग्रहण के पहले यदि इसने तिर्यंचायु या मनुष्यायु बांध ली है पुन: क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया तो यह जीव भोगभूमि का तिर्यंच या मनुष्य होगा, अन्यथा स्वर्ग ही जायेगा। सम्यग्दृष्टि जीव मरकर एवेंद्रिय, विकलेंद्रिय, असैनी तिर्यंच आदि नहीं होता है। स्त्री या नपंसुक नहीं होता है और न वह दरिद्री, विकलांग, अल्पायु ही होता है किन्तु महापुरुष होकर कालांतर में या उसी भव से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
सभी को देवगति सबसे अधिक प्रिय लगती हो, किन्तु देवगति के सुख भोगकर यह जीव वहाँ की आयु पूर्णकर नियम से मरेगा और मरकर तिर्यंच होगा या मनुष्य । यदि मिथ्यादृष्टि है और वहाँ के भोगों को छोड़ते हुये अधिक संक्लेश हो रहा है तो प्राय:वह जीव एवेंद्रिय स्थावर योनि में पृथ्वी, जल या वनस्पति हो जाता है।फिर वहाँ से निकलने का क्या उपाय है। इन्हीं तुच्छ कुयोनियों में यह जीव भटकता रहता है क्योंकि एकेद्रिय में कान के बिना गुरु का उपदेश आदि है ही नहीं अत: देवगति की इच्छा नहीं करना चाहिये। देवों के तेरह दंडक माने हैं— भवनवासी देवों के १०, व्यंतरवासी देवों का १, ज्योतिषी देवों का १ और वैमानिक देवों का १ ऐसे १०±१±१±१·१३ दण्डक देव सम्बन्धी हैं। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच इनके बिना कोई भी देवपद को प्राप्त नहीं कर सकते हैं। अर्थात् स्थावर व विकलत्रय तिर्यंच देवगति प्राप्त नहीं कर सकते हैं तथा देव और नारकी भी देवगति प्राप्त नहीं कर सकते हैं। देवों के लिये जाने के पाँच द्वार हैं—पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पति—कायिक, पंचेन्द्रिय पशु और मनुष्य अर्थात् देव मरकर इन पाँच पर्यायों में जन्म धारण कर सकते हैं। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देव तथा वैमानिक देवों में से सौधर्म—ईशान इन दो स्वर्गों तक के देव ही मरकर कदाचित् स्थावर योनि में जन्म ले सकते हैं, इनसे आगे के देव नहीं। तथा बारहवें स्वर्ग तक के देव मरकर कदाचित् पंचेंद्रिय तिर्यंच हो सकते हैं आगे के नहीं। अर्थात् दूसरे स्वर्ग तक देवों के लिये तीन स्थावर काय, पशु और मनुष्य इन पाँचों में आने का द्वार खुला हुआ है, तीसरे स्वर्ग से लेकर बारहवें स्वर्ग तक के देवों के लिए स्थावर का द्वार बंद हो गया है, मात्र पंचेंद्रिय पशु और मनुष्य इनका द्वार खुला हुआ है तथा इससे ऊपर के देवों के लिये एक मनुष्य का ही द्वार शेष है बाकी सभी द्वार बंद हैं। ये तो देवों के आने के द्वार कहे अब जाने के द्वार बतलाते हैं— पंचेंन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ही देवगति को प्राप्त कर सकते हैं अन्य नहीं । इसमें भी भोगभूमि के मनुष्य या पशु मरकर भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों में अथवा सौधर्म ईशान स्वर्ग में जन्म ले सकते हैं अर्थात् इनके लिये दूसरे स्वर्ग तक ही मार्ग खुला हुआ है आगे नहीं । किंतु देव मरकर भोगभूमि में जन्म नहीं ले सकते हैं यह नियम है। कर्मभूमिया मनुष्य और तिर्यंच ही भोगभूमि में जाते हैं अन्य कोई नहीं जा सकते हैं। कर्मभूमि के तिर्यंच यदि सम्यक्त्व और अणुव्रत धारण कर लेते हैं तो वे बारहवें स्वर्ग तक चले जाते हैं।
अन्यमती साधु पंचाग्नि तप करके भवनत्रिक देवों तक जा सकते हैं । पारिव्राजक और दण्डी साधु अधिक से अधिक पाँचवें स्वर्ग तक जा सकते हैं। परमहंस नामक साधु बारहवें कांजी आदि का भोजन करने वाले , नग्न आजीवक अच्युत—सोलहवें स्वर्ग पर्यंत उत्पन्न होते हैं। स्वर्ग तक जा सकते हैं इसके ऊपर नहीं जा सकते। परमत से मोक्ष की सिद्धि नहीं है चूँकि कर्मों का नाश जैनमत के बिना सर्वथा असम्भव ही है। श्रावक और श्राविका भले ही वे क्षुल्लक, ऐलक या क्षुल्लिका ही क्यों न हों किन्तु वे सोलहवें स्वर्ग तक ही जा सकते हैं, इसके आगे नहीं । क्योंकि बिना मुनि पद धारण किये आगे जाना असम्भव है। द्रव्यलिंगी मुनि नव ग्रैवेयक तक जा सकते हैं आगे नहीं। भावलिंगी महामुनि ही नव अनुदिश और पाँच अनुत्तरों में जन्म लेते हैं। यह जीव कितनी बार ही देवपद को प्राप्त कर चुका है किन्तु उन में भी कुछ ऐसे पद हैं जिन्हें नहीं पाया, नहीं तो अब मोक्ष को प्राप्त कर लेता। इंद्र पद को इसने नहीं पाया अर्थात् सौधर्म आदि छह दक्षिणेंद्र नियम से एक भवावतारी होते हैं। उन्हीं के लोकपाल पद को भी इसने नहीं पाया चूँकि वे भी मोक्षगामी हैं। शचीदेवी भी नियम से वहाँ से नरलोक में आकर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं चूँकि तीर्थंकरों के जन्म महोत्सव में जब इंद्राणी बालक को प्रसूतिगृह में लेने जाती हैं उस समय उन्हें तीर्थंकर शिशु का स्पर्श कर इतना आनन्द होता है और इतना पुण्य विशेष संचित हो जाता है कि वे उसी समय अपनी स्त्री पर्याय का छेद कर देती हैं। दूसरी बात यह है कि शचीदेवी नियम से उस पर्याय में सम्यक्त्व को ग्रहण कर लेती हैं अत: सम्यक्त्व प्राप्त होने के बाद पुन: स्त्रीवेद का बंध नहीं होता है। लौकांतिक देव तथा अनुत्तरवासी देवों के लिये भी निर्वाण का नियम है। लौकांतिक देव तो एक भवावतारी ही होते हैं और विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित इन विमानों के देव द्विधचरम माने गये हैं अर्थात् अधिक से अधिक दो भव लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं तथा सर्वार्थसिद्धि के देव नियम से वहाँ से आकर एक भव से ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। इस सर्वार्थसिद्धि के ऊपर सिद्धलोक में जाने वाले जीव अर्थात् मुक्त होने वाले जीवों के आने का द्वार तो बंद ही है और मुक्ति गति से जाने के लिये एक मनुष्य गति का ही द्वार है। भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देवों में सम्यग्दृष्टि जीव जन्म नहीं लेते हैं। किन्तु वहाँ पर सम्यक्त्व ग्रहण कर सकते हैं।
कोई देव जिनमहिमा के दर्शन से, कोई जातिस्मरण से, कोई देवों की ऋद्धि देखने से, कोई पंच कल्याणकोंं का उत्सव देखने से और कोई देव उपदेश के श्रवण से सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लेते हैं। अत: भवनत्रिकों में भी चार गुणस्थान होते हैं। कल्पवासी देवों में भी नवगै्रवेयक तक भाव मिथ्यादृष्टि जीव जा सकते हैं। द्रव्य से मिथ्यावेषधारी पाखंडी अर्थात् जिनमत के बाह्य साधु तो बारहवें स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। आगे के विमानों में अर्थात् नव अनुदिश और अनुत्तरों में सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं। अत: नव ग्रैवेयक तक जीव यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो वे सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं इसलिये वहाँ तक चारों गुणस्थान होते हैं। इस तरह संक्षेप से यहाँ आने—जाने का द्वार कहा गया है विशेष जिज्ञासा हो तो धवला आदि ग्रन्थों का स्वाध्याय करना चाहिये।