मार्गणा का अर्थ खोजना या अन्वेषण करना है। जिन भावों के द्वारा जीव खोजे जाते हैं या जिन पर्यायों में जीव खोजे जाते हैं, उन्हें मार्गणा कहते हैं। ये मार्गणा गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहारक मार्गणा ये भेद रूप १४ प्रकार की होती हैं। ये १४ मार्गणाएं जीव के एक साथ पाई जाती हैं।
जीव के चारों गतियों में गमन के कारण को गति कहते हैं। गतियों में जीवों की खोज गति मार्गणा है। गतियाँ चार होती हैं- नरक, तिर्यंच, देव और मनुष्य।
गति का अर्थ सामान्य भाषा में गमन होता है। छः द्रव्यों में से जीव तथा पुद्गल ही गमन करने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त जीव की अवस्था विशेष को भी गति कहते हैं अथवा जो एक पर्याय से दूसरी पर्याय में ले जावे वह गति है। नाम कर्म के उदय से जीव जिस पर्याय में रुक जाता है, वह गति है। जीव का जन्म उसके द्वारा किये गये पाप-पुण्य के अनुसार विभिन्न गतियों में होता है। जीव जब तक संसार में है, वह चारों गतियों की ८४ लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है। संसारी जीव की उपरोक्त चार गतियाँ ही प्रसिद्ध हैं। जब जीव सभी कर्मों का नाश कर देता है तो वह मुक्त जीव कहलाता है और वह सिद्धालय में विराजमान हो जाता है। मुक्त जीव किसी भी गति का जीव नहीं है। जीव की इस अवस्था को सिद्ध गति (अथवा पंचम गति) भी कहते हैं।
गतियों के भेद-
जीवों की ४ गतियाँ प्रसिद्ध हैं। इनका विवरण निम्नानुसार है-
ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल भावे य।
अण्णोण्णेिंह य जम्हा, तम्हा ते णारया भणिया।।
न रमन्ते यतो नित्यं द्रव्ये क्षेत्रे च कालभावे च।
अन्योन्यैश्च यस्मात्तस्मात्ते नारता भणिता:।।
अर्थ—जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव में स्वयं तथा परस्पर में प्रीति को प्राप्त नहीं होते उनको नारत (नारकी) कहते हैं।
भावार्थ—शरीर और इंद्रियों के विषयों में उत्पत्ति, शयन, विहार, उठने, बैठने आदि के स्थान में, भोजन आदि के समय में अथवा और भी अनेक अवस्थाओं में जो स्वयं अथवा परस्पर में प्रीति (सुख) को प्राप्त न हों उनको नारत कहते हैं। इस गाथा में जो ‘च’ शब्द पड़ा है उससे इसका दूसरा भी निरुक्ति सिद्ध अर्थ समझना चाहिए अर्थात् जो नरकगति नामकर्म के उदय से हों उनको अथवा नरान्—मनुष्यों को कायन्ति—क्लेश पहुँचावें उनको नारक कहते हैं क्योंकि नीचे सातों ही भूमियों में रहने वाले नारकी निरंतर ही स्वाभाविक, शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक तथा क्षेत्रजन्य इन पाँच प्रकार के दु:खों से दुखी रहते हैं।
यहां पर जीवों को सर्दी, गर्मी, गंदगी आदि की असहनीय वेदना सहनी पड़ती है। ये दुर्गन्धमय मिट्टी खाते हैं। यहां पर जीव को अत्यधिक भूख-प्यास लगती है जो सारे संसार का अन्न, मिट्टी, पत्थर आदि खाने से और समस्त समुद्रों का जल पीने से भी नहीं मिट सकती है। मगर भूख व प्यास की वेदना सहते हुए उन्हें वहाँ भूखे-प्यासे ही रहना पड़ता है। नरक की भूमि छूने पर जीव को इतनी अधिक वेदना होती है जितनी १००० बिच्छुओं के काटने से भी नहीं होती है। यहां घोर अन्धकार रहता है और नारकी अन्धेरे में उल्लू की भांति देखते हैं। यहां पर सदैव मार-काट होती रहती है जिससे जीव सदा भयभीत व दुःखी रहता है। सुख लेशमात्र भी यहां पर नहीं है। यहां पर असीम दुःख सहन करने पड़ते हैं। जैसे करोंत से चीरने, भाले से छेदने आदि। शरीर के तिल-तिल टुकड़े हो जाने पर वह पारे की तरह पुनः जुड़ जाता है। यहां जीवों की आयु बहुत लम्बी होती है और पूरी करनी ही पड़ती है क्योंकि इनका अकाल मरण नहीं होने के कारण इनकी आयु घट नहीं सकती है। यहां जीव अपने पाप-कर्मों के फल हाय-हाय करके भोगता है।
जो जीव मिथ्यादृष्टि होता है, धर्म के विरुद्ध आचरण करता है, हिंसा, चोरी आदि पापों में व्यस्त रहता है, बहुत आरम्भ या परिग्रह करता है, अशुभ लेश्या से युक्त होता है, वह नरक का पात्र होता है।
तिरियंति कुडिलभावं, सुविउलसण्णा णिगिट्ठिमण्णाणा।
अच्चंतपावबहुला, तम्हा तेरिच्छया भणिया।।
तिरोचन्ति कुटिलभावं सुविबृतसंज्ञा निकृष्टमज्ञाना:।
अत्यन्तपापबहुलास्तस्मा त्तैरश्चका भणिता:।।
अर्थ—जो मन, वचन, काय की कुटिलता को प्राप्त हों अथवा जिनकी आहारादि विषयक संज्ञा दूसरे मनुष्यों को अच्छी तरह प्रकट हो और जो निकृष्ट अज्ञानी हों तथा जिनमें अत्यन्त पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैंं।
भावार्थ—जिनमें कुटिलता की प्रधानता हो, क्योंकि प्राय: करके सब ही तिर्यंच जो उनके मन में होता है उसको वचन के द्वारा व्यक्त नहीं कर सकते क्योंकि उनके उस प्रकार की वचन शक्ति ही नहीं है और जो वचन से कहते हैं उसको काय से नहीं करते तथा जिनकी आहारादि संज्ञा प्रकट हो और श्रुत का अभ्यास तथा शुभोपयोगादि के न कर सकने से जिनमें अत्यंत अज्ञानता पाई जाए तथा मनुष्य की तरह महाव्रतादिक को धारण न कर सकने और सम्यग्दर्शन की विशुद्धि आदि के न हो सकने से जिनमें अत्यंत पाप का बाहुल्य पाया जाय उनको तिर्यंच कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि निरुक्ति के अनुसार तिर्यंच गति का अर्थ माया की प्रधानता को बताता है। यथा- तिर:तिर्यग्भावं—कुटिलपरिणामं अंचन्ति इति तिर्यंच:। माया प्रधान परिणामों से संचित कर्म के उदय से यह गति-पर्याय प्राप्त होती है। यहाँ पर जो पर्यायाश्रित भाव हुआ करते हैं वे भी मुख्यतया कुटिलता को ही सूचित करते हैं। उनकी भाषा अव्यक्त होने से वे अपने मनोभावों को व्यक्त करने में असमर्थ रहा करते हैं। प्राय: मैथुन संज्ञा आदि मनुष्यों की तरह उनकी गूढ़ नहीं हुआ करती। मनुष्यों के समान इनमें विवेक, हेयोपादेय का भेद ज्ञान, श्रुताभ्यास, शुभोपयोग आदि भी नहीं पाया जाता। प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या आदि की अपेक्षा से भी वे मनुष्यों से निकृष्ट हैं। महाव्रतादि गुणों को वे धारण नहीं कर सकते। इस गति में जिनका प्रमाण सबसे अधिक है उन एकेन्द्रिय जीवों में तथा असंज्ञि पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रस जीवों में भी जिससे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है ऐसी विशुद्धि नहीं पाई जाती अतएव यह पर्याय अत्यन्त पाप बहुल है। सारांश यह है कि जिसके होने पर यह भाव हुआ करते या पाये जाते हैं जीव की उस द्रव्यपर्याय को ही तिर्यग्गति कहते हैं। मनुष्यों की अपेक्षा यह निकृष्ट पर्याय है, ऐसा समझना चाहिए।
मण्णंति जदो णिच्चं, मणेण णिउणा मणुक्कडा जम्हा।
मण्णुब्भवा य सव्वे, तम्हा ते माणुसा भणिदा।।
मन्यन्ते यतो नित्यं मनसा निपुणा मनसोत्कटा यस्मात्।
मनूभद्वाश्च सर्वे तस्मात्ते मानुषा भणिता:।।
अर्थ—जो नित्य ही हेय-उपादेय, तत्व-अतत्व, आप्त-अनाप्त, धर्म-अधर्म आदि का विचार करें और जो मन के द्वारा गुण दोषादि का विचार स्मरण आदि कर सकें, जो पूर्वोक्त मन के विषय में उत्कृष्ट हों, शिल्पकला आदि में भी कुशल हों तथा युग की आदि में जो मनुओं से उत्पन्न हों उनको मनुष्य कहते हैं।
यहाँ भावार्थ यह है कि मन का विषय तीव्र होने से गुण दोषादि, विचार, स्मरण आदि जिनमें उत्कृष्ट रूप से पाया जाय, अवधानादि करने में जिनका उपयोग दृढ़ हो तथा कर्मभूमि की आदि में आदीश्वर भगवान् तथा कुलकरों ने जिनको व्यवहार का उपदेश दिया इसलिए जो उन्हीं की—मनुओं की संतान कहे या माने जाते हैं उनको मनुष्य कहते हैं क्योंकि अवबोधनार्थक मनु धातु से मनु शब्द बनता है और जो मनु की संतान हैं उनको कहते हैं मनुष्य। अतएव इस शब्द का यहाँ पर जो अर्थ किया गया है वह निरुक्ति के अनुसार है। लक्षण की अपेक्षा से अल्पारम्भ परिग्रह के परिणामों द्वारा संचित मनुष्य आयु और मनुष्यगति नामकर्म के उदय से जो ढाई द्वीप के क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले हैं उनको कहते हैं मनुष्य। ये ज्ञान विज्ञान मन पवित्र संस्कार आदि की अपेक्षा अन्य जीवों से उत्कृष्ट हुआ करते हैं। जैसा कि निरुक्ति के द्वारा बताया गया है।
इस गाथा में एक ‘यत:’ शब्द है और दूसरा ‘यस्मात्’ शब्द है। अर्थ दोनों शब्दों का एक ही होता है। अतएव इनमें एक शब्द व्यर्थ पड़ता है। वह व्यर्थ पड़कर विशिष्ट अर्थ का ज्ञापन करता है कि यद्यपि लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में यह विशेष स्वरूप—निरुक्त्यर्थ घटित नहीं होता फिर भी उनको मनुष्यगति नामकर्म और मनुष्य आयु के उदय रूप लक्षण मात्र की अपेक्षा से मनुष्य कहते हैं, ऐसा समझना चाहिए।
दीव्वंति जदो णिच्चं, गुणेहिं अट्ठेहिं दिव्वभावेहिं।
भासंतदिव्वकाया, तम्हा ते वण्णिया देवा।।
दीव्यन्ति यतो नित्यं गुणैरष्टाभिर्दिव्यभावै:।
भासमानदिव्यकाया: तस्मात्ते वर्णिता देवा:।।
अर्थ—जो देवगति में होने वाले या पाये जाने वाले परिणामों—परिणमनों से सदा सुखी रहते हैं और जो अणिमा, महिमा आदि आठ गुणों (ऋद्धियों) के द्वारा सदा अप्रतिहत (निर्बाध) रूप से विहार करते हैं और जिनका रूप लावण्य, यौवन आदि सदा प्रकाशमान रहता है, उनको परमागम में देव कहा है।
भावार्थ- यह है कि देव शब्द दिव् धातु से बनता है जिसके कि क्रीड़ा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोह, मद आदि अनेक अर्थ होते हैं। अतएव निरुक्ति के अनुसार जो मनुष्यों में न पाये जा सकने वाले प्रभाव से युक्त हैं तथा कुलाचलों पर वनों में या महासमुद्रों में सपरिवार विहार—क्रीड़ा किया करते हैं, बलवानों को भी जीतने का भाव रखते हैं, पंचपरमेष्ठियों या अकृत्रिम चैत्य, चैत्यालयों आदि की स्तुति वंदना किया करते हैं, सदा पंचेन्द्रियों से संबंधित विषयों के भोगों से उद्यत करते हैं, जो विशिष्ट दीप्ति के धारण करने वाले हैं, जिनका शरीर धातुमल दोष रहित एवं अविच्छिन्न रूप लावण्य से युक्त सदा यौवन अवस्था में रहा करता है और जो अणिमा आदि आठ प्रकार की ऋद्धियों को धारण करने वाले हैं उनको देव कहते हैं। यह देवपर्याय के स्वरूप मात्र का निदर्शन है। लक्षण के अनुसार जो अपने कारणों से संचित देवायु और देवगति नाम कर्म के उदय से प्राप्त पर्याय को धारण करने वाले संसारी जीव हैं वे सब देव हैं।
इस गति में जीव पंचेन्द्रिय और संज्ञी ही होते हैं। ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। शुभ कार्य (तप, दान, पूजा, उपवास आदि) करने से यह गति मिलती है।
देवों से अभिप्राय देव गति में उत्पन्न जीवों से ही है और जैन धर्म में मान्य जिनेन्द्र देव (वीतरागी और सर्वज्ञ) से ये सर्वथा भिन्न हैं।
जैन-साधु देवताओं से आहार नहीं लेते हैं क्योंकि देव संयम धारण करने में असमर्थ होते हैं।
देवों के चार भेद-देवों के चार निकाय (समूह) निम्न हैं-
भवन से अभिप्राय निवास स्थान से है। अतः जो देव भवनों में रहते हैं, वे भवनवासी कहलाते हैं। ये देव रत्नप्रभा पृथ्वी के ‘‘खर’’ अौर ‘‘पंक’’ भाग में स्थित अपने ७,७२,००,००० भवनों में रहते हैं। ये एक बार में ७ से १०० रूप बना सकते हैं। ये १५० धनुष क्षेत्र से लेकर जम्बू द्वीप तक को समुद्र में फेंक सकते हैं।
भवनवासी देव १० प्रकार के होते है-
१. असुर कुमार २. नाग कुमार ३. विद्युत कुमार ४. सुपर्ण कुमार ५. अग्नि कुमार ६. वात कुमार ७. स्तनित कुमार ८. उदधि कुमार ९. द्वीप कुमार १०. दिक् कुमार
यद्यपि इनमें वय व स्वभाव अवस्थित हैं, किन्तु इनकी वेषभूषा, शस्त्र, वाहन, और क्रीड़ा कुमारों की भांति होती हैं, अतः इनके ‘‘कुमार’’ शब्द लगाया गया है।
ये भूत-पिशाच आदि जाति के देव होते हैं। ये देव रत्न प्रभा पृथ्वी के खर व पंक भाग में और मध्य लोक में सर्वत्र नाना द्वीपों, वनों, पर्वतों की चोटियों और नदी, गुफा, मकान, मठ, वृक्ष, कूप, बावड़ी उपवन आदि में विहार करते हैं। ये कौतुहलवश नाना प्रकार की क्रियाएं करते हैं। मनुष्य या तिर्यंच के शरीर में अपनी शक्ति का प्रवेश करा कर उसे हानि-लाभ पहुंचा सकते हैं, पूर्व जन्मों को याद कर के अन्य जीवों को सताते हैं। इनकी विक्रिया शक्ति भवनवासी देवों की भांति होती है। ये सबसे नीची जाति के देव हैं।
व्यन्तर देव ८ प्रकार के होते हैं-
१. किन्नर २. किम्पुरुष ३. महोरग ४. गंधर्व ५. यक्ष ६. राक्षस ७. भूत ८. पिशाच
ज्योति का अर्थ प्रकाश होता है और ज्योतिष्क का आशय हुआ प्रकाश करने वाला। ज्योतिर्मय अर्थात् सदा प्रकाशमान रहने से सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देव कहलाते हैं। इनके विमान ज्योति प्रदान करते हैं। ये विमान रत्नमयी हैं और इनके ऊपर नगर हैं जिनमें अनेक मंजिलों वाले महल हैं। इन महलों में ज्योतिष्क देव रहते हैं। ये सुमेरु पर्वत की निरन्तर प्रदक्षिणा करते रहते हैं। ये मध्यलोक में होते हैं। मनुष्य लोक में अर्थात् अढ़ाई द्वीप में इनके विमान निरन्तर घूमते रहते हैं, जिससे दिन-रात का निर्धारण होता है। अढ़ाई द्वीप से बाहर ये स्थिर होते हैं अर्थात् चक्कर नहीं लगाते हैं। सूर्य एक मिनट में ४४७६२३-११/१८ मील तथा चन्द्रमा एक मिनट में ४२२७९६-३१/१६४७ मील गमन करता है। इनकी विक्रिया शक्ति भवनवासी देवों की भांति है।
समस्त ज्योतिष्क देव चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन ऊँचाई पर भ्रमण करते हैं। यह ऊँचाई अधिकतम ९०० योजन होती है अर्थात् ये केवल ११० योजन क्षेत्र में ही रहते हैं।
ज्योतिष्क देव ५ प्रकार के होते हैं – (१) सूर्य, (२) चन्द्रमा, (३) ग्रह, (४) नक्षत्र, (५) तारे।
जो विमानों में रहते हैं, वे वैमानिक देव कहलाते हैं। यद्यपि ज्योतिष्क देव आदि भी विमानों में रहते है फिर भी चौथे निकाय के देवों को ही वैमानिक संज्ञा रूढ़ है। ये दो प्रकार के होते हैंः-
(१) कल्पवासी (कल्पोपन्न) देव-जिन देवों में इन्द्र, सामानिक आदि १० प्रकार के देवों की कल्पना की जाती है, वे कल्पवासी देव कहलाते हैं। ऊर्ध्व लोक के प्रारम्भ में १६ स्वर्ग हैं, उनमें ये रहते हैं। ये युगल में हैं अर्थात् दो-दो स्वर्ग एक साथ हैं और ऊपर-ऊपर हैं। ज्यों-ज्यों नीचे से ऊपर के स्वर्ग में जाते हैं त्यों-त्यों अधिक सुख मिलता है।
इन १६ स्वर्गों के नाम और इनमें विमानों की संख्या निम्नानुसार है-
क्र. | नाम स्वर्ग | विमानों की संख्या |
१ | सौधर्म | ३२ लाख |
२ | ऐशान | २८ लाख |
३ | सानत्कुमार | १२ लाख |
४ | माहेन्द्र | ८ लाख |
५ व ६ | ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर | ४ लाख |
७ व ८ | लान्तव-कापिष्ठ | ५०,००० |
९ व १० | शुक्र-महाशुक्र | ४०,००० |
११ व १२ | सतार-सहस्त्रार | ६,००० |
१३ से १६ | आनत, प्राणत, आरण, अच्युत | ७०० |
योग- ८४,९६,७०० |
स्वर्ग संख्या १ से ४ तक तथा १३ से १६ तक में प्रत्येक में १ इन्द्र व १ प्रतीन्द्र होते हैं। स्वर्ग संख्या ५-६, ७-८, ९-१० व ११-१२ में प्रत्येक युगल में १ इन्द्र व १ प्रतीन्द्र होते हैं। इस प्रकार १६ स्वर्गों में १२ इन्द्र और १२ प्रतीन्द्र हैं।
लौकान्तिक देव-जो देव पांचवें स्वर्ग (ब्रह्म) के अंत में रहते हैं और जिनके लोक का अन्त निकट है, वे लौकान्तिक देव कहलाते हैं। ये देव तीर्थंकर के दीक्षा कल्याणक के समय भगवान की दीक्षा की भावना का अनुमोदन करने आते हैं। ये २४ प्रकार के होते हैं। ये ११ अंग और १४ पूर्व के धारी होते हैं और अखण्ड बाल ब्रह्मचारी होते हैं। इनके देवियाँ नहीं होती हैं, इसलिये ये ब्रह्मर्षि या देवर्षि भी कहलाते हैं। ये एक भवावतारी होते हैं अर्थात् अगले भव में मनुष्य योनि में जन्म लेकर उसी भव में मुनि बनकर मोक्ष जाते हैं।
(२) कल्पातीत देव-जिनमें इन्द्र आदि की कल्पना नहीं की जाती है, वे कल्पातीत देव हैं। ये १६ स्वर्गोें के ऊपर रहते हैं। ये सभी देव एक समान वैभव के धारी होते हैं और इनमें इन्द्र, सामानिक आदि का भेद नहीं होता है। यहां रहने वाले सभी देव स्वतंत्र हैं। ये अहमिन्द्र भी कहलाते हैं। अहमिन्द्र का अर्थ होता है- अहम् (मैं) इन्द्र अर्थात् मैं इन्द्र हूँ। इसलिये ही इन्हें अहमिन्द्र कहते हैं। ये ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश और ५ अनुत्तर विमानों में रहते हैं। विमानों के नाम व संख्या निम्नानुसार है
क्र.सं. | विवरण | नाम विमान | विमानों की संख्या |
१. | ९ ग्रैवेयक
(१) अधोग्रैवेयक (२) मध्यग्रैवेयक (३) ऊर्ध्वग्रैवेयक |
सुदर्शन, अमोघ व सुप्रबुद्ध
यशोधर, सुभद्र व सुविशाल सुमन, सौमनस्य व प्रीतिंकर |
१११
१०७ ९१ |
२. | ९ अनुदिश | आदित्य, अर्चि, अर्चिमालनी,
वङ्का, वेरोचन, सौम्य, सौम्यरूपक |
९ |
३. | अनुत्तर | विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि |
५ |
योग -३२३
सबसे ऊपर अनुत्तर के ५ विमानों में बीच वाले विमान का नाम ‘‘सर्वार्थ-सिद्धि’’ है। कसातीत स्वर्गों में यह सबसे उत्तम स्वर्ग माना जाता है।
उपरोक्तानुसार ऊर्ध्व-लोक में विमानों की कुल संख्या ८४९६७००±३२३·८४९७०२३ हैं। इन सभी में एक-एक अकृत्रिम चैत्यालय है। इस प्रकार ऊर्ध्व-लोक में ८४९७०२३ अकृत्रिम चैत्यालय हैं।
भवनवासी व व्यन्तर देवों के निवास तीन प्रकार के होते हैं – भवन, भवनपुर और आवास। ज्योतिष्क व वैमानिक देवों के निवास स्थानों को विमान कहते हैं। इन निवास स्थानों का वर्णन निम्न प्रकार है-
१. भवन-रत्नप्रभा पृथ्वी के खर व पंक भागों में स्थित निवास स्थानों को ‘‘भवन’’ कहते हैं। इनमें भवनवासी देव और व्यन्तर देव रहते हैं।
२. भवनपुर-मध्यलोक में नाना द्वीप-समुद्रों के ऊपर स्थित निवास स्थानों को ‘‘भवनपुर’’ कहते हैं। इनमें व्यन्तर देव और भवनवासी देव रहते है।
३. आवास-मध्यलोक में पर्वत, तालाब, मकान, वृक्ष आदि के ऊपर स्थित निवास-स्थानों को ‘‘आवास’’ कहते हैं। इनमें भी भवनवासी देव व व्यन्तर देव रहते हैं।
४. विमान-चित्रा पृथ्वी में ऊपर ७९० से ९०० योजन क्षेत्र तथा ऊर्ध्वलोक में स्थित निवास स्थानों को ‘‘विमान’’ कहते हैं। इनमें क्रमशः ज्योतिष्क देव और वैमानिक देव रहते हैं।
देवांगना-सोलह स्वर्ग तक देवों के न्यूनतम ३२ और अधिकतम हजारों देवियाँ होती हैं। देवियों का जन्म भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव और पहले-दूसरे स्वर्ग में ही होता है। आगे के स्वर्गों में देवियों का जन्म नहीं होता है। दूसरे स्वर्ग से ऊपर के देव अपनी-अपनी नियोगिनी देवियों की उत्पत्ति को अवधिज्ञान से जानकर उन्हें मूल शरीर सहित अपने-अपने विमानों में ले जाते हैं। सोलह स्वर्गों के ऊपर देवांगनाएं नहीं होती हैं।
मैथुन द्वारा कामसेवन को प्रवीचार कहते हैं। देवी-देवताओं में प्रवीचार निम्न प्रकार होता है-
१. भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क देवों और सौधर्म व ऐशान स्वर्गों के देवों में शरीर से काम-सेवन होता है, जैसा मनुष्यों में होता है। यद्यपि देवों का शरीर वीर्य-रहित होता है और काम-सेवन से इनके वीर्य-स्खलन नहीं होता है, फिर भी शारीरिक सम्बन्ध स्थापित किये बिना इनकी भोग-लिप्सा शांत नहीं होती है।
२. सानत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्गोें के देवों में अंगों के स्पर्श करने से काम-सेवन होता है।
३. ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव व कापिष्ट स्वर्गों के देवों में मनोज्ञ रूप व श्रृंगार आदि के अवलोकन से काम-सेवन होता है।
४. शुक्र, महाशुक्र, शतार और सहस्रार स्वर्गों के देवों में मधुर संगीत व कोमल हास्य के शब्द सुनने से काम-सेवन होता है।
५. आनत, प्राणत, आरण व अच्युत स्वर्गों के देवों में मन से स्मरण करने मात्र से काम वासना पूर्ण हो जाती है।
६. अच्युत स्वर्ग के ऊपर नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश व पंच-अनुत्तरों के देवों में काम वासना नहीं होती है।
देव वैक्रियिक शरीर के धारी होते हैं और वे मनुष्य व तिर्यंच के अपवित्र औदारिक शरीर के साथ काम सेवन नहीं करते हैं।
सौधर्म इन्द्र, इसकी इन्द्राणी (शची), लौकान्तिक देव, सौधर्म इन्द्र के सभी लोकपाल, सभी दक्षिणेन्द्र और सर्वार्थसिद्धि के देव एक भवावतारी होते हैं अर्थात् ये देवगति से चयकर मनुष्य गति में जन्म लेकर नियम से मोक्ष प्राप्त करते हैं।
भवनत्रिक देव-
तीन प्रकार के देवों अर्थात् भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों को भवनत्रिक देव कहते हैं। इनमें मिथ्यादृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं।
चारों प्रकार के देवों में सामान्य भेद-निम्न १० भेद हैं-
(१) इन्द्र-आज्ञा व ऐश्वर्ययुक्त व सभी देवों के राजा इन्द्र कहलाते हैं। मुख्य इन्द्र के पश्चात् द्वितीय श्रेणी के इन्द्र प्रतीन्द्र कहलाते हैं।
(२) सामानिक-आज्ञा व ऐश्वर्य को छोड़कर इन्द्र के समान।
(३) त्रायस्त्रिंश-मंत्री और पुरोहित का कार्य करने वाले।
(४) पारिषद-मित्रों के समान सभा में आकर बैठने वाले।
(५) आत्मरक्षक-इन्द्र के पीछे रहकर रक्षा करने वाले।
(६) लोकपाल-द्वारपाल का कार्य करने वाले।
(७) अनीक-सैनिक (सात प्रकार की सेना में रहने वाले)।
(८) प्रकीर्णक-जो नगरवासी प्रजा के समान होते हैं।
(९) अभियोग्य-दास के समान सवारी के काम आने वाले । ऐरावत हाथी इस जाति का देव होता है जो इन्द्र की आज्ञानुसार व अपनी भक्ति से हाथी आदि का रूप धारण करता है।
(१०) किल्विषक-चाण्डाल की उपमा धारण करने वाले (निम्न स्तर के कार्य करने वाले)।
भवनवासी व वैमानिक निकाय के देवों में उपरोक्त दस भेद होते हैं। परन्तु ज्योतिष व व्यन्तर जाति के देवों में त्रायस्त्रिंश और लोकपाल जाति के देव नहीं होते हैं अर्थात् इनमें मात्र ८-८ भेद होते हैं।
देवों को बुढ़ापा, रोग, क्षुधा, वेदना आदि शारीरिक कष्ट यद्यपि नहीं होते हैं, फिर भी वैमानिक देव अन्य प्रकार के देवों से अधिक सुखी रहते हैं। देवों में वैभव, समृद्धि, सम्पत्ति, शासन आदि का बहुत अन्तर रहता है जिससे महान् ऋद्धि के धारकों को देखकर अपने को नीचा मान कर इन्हें मानसिक कष्ट बहुत रहता है। देव अवस्था में इनके छोटी-बड़ी पदवियाँ रहती हैं। नीची पदवी वाले देवों को ऊँची पदवी वाले देवों की सेवा आदि करनी पड़ती है। बड़े देवों की सवारी का कार्य भी छोटी पदवी वाले देव करते हैं। इसी वजह से इनमें परस्पर ईर्ष्या होती है।
जाइजरामरणभया, संजोगविजोगदुक्खसण्णाओ।
रोगादिगा य जिस्से, ण संति सा होदि सिद्ध गई।।५१।।
जातिजरामरणभया, संयोगवियोगदु:खसंज्ञा:।
रोगादिकाश्च यस्यां न संति सा भवति सिद्धगति:।।५१।।
अर्थ—एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक पाँच प्रकार की जाति, बुढ़ापा, मरण, भय, अनिष्ट संयोग, इष्ट वियोग, इनसे होने वाले दु:ख, आहारादि विषयक संज्ञाएँ—वांछाएं और रोग आदि की व्याधि इत्यादि विरुद्ध विषय जिस गति में नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं।
भावार्थ—जाति नामकर्म के उदय से प्राप्त होने वाली एकेन्द्रियादिक जीव की पाँच अवस्थाएँ, आयुकर्म के विपाक आदि कारणों से शरीर के शिथिल होने पर जरा, नवीन आयु के बंधपूर्वक भुज्यमान आयु के अभाव से होने वाले प्राणों के त्याग रूप मरण, अनर्थ की आशंका करके अपकारक वस्तु से दूर रहने या भागने की इच्छारूप भय, क्लेश के कारणभूत अनिष्ट पदार्थ की प्राप्ति रूप संयोग, सुख के कारणभूत अभीष्ट पदार्थ के दूर हो जाने रूप वियोग, इनसे होने वाले अन्य भी अनेक प्रकार के दु:ख तथा आहार आदि विषयक संज्ञाएँ, शरीर की अस्वस्थता रूप अनेक प्रकार की व्याधि तथा आदि शब्द में मानभंग-वध-बंधन आदि दु:ख जिस गति में अपने-अपने कारणभूत कर्मों का अभाव हो जाने से नहीं पाये जाते उसको सिद्धगति कहते हैं।
गति मार्गणा के चार ही भेद हैं क्योंकि वह उस नाम कर्म विशेष के उदय की अपेक्षा रखता है जो कि गति नाम से ही कहा गया है और जिसके चार ही भेद हैं किन्तु जीव की जिस गति—द्रव्यपर्याय विशेष को यहाँ बताया गया है वह मार्गणातीत है। वह किसी कर्म के उदय से नहीं किन्तु समस्त कर्मों के क्षय से प्रादुर्भूत हुआ करती है। अतएव चारों गतियों के अनंतर इसका पृथक् वर्णन किया गया है और सम्पूर्ण कर्मजन्य विकारी भावों से रहित इसको बताया गया है। इस अवस्था में आत्मद्रव्य के सभी स्वाभाविक गुणों का जो सद्भाव रहता है।
उपरोक्त चारों गतियों के अलावा उपचार से एक और गति कही जाती है, जिसे पंचम गति कहते हैं। जो जीव अपने कर्मों का क्षय करके मुक्त हो जाता है वह सिद्ध कहलाता है और उसे ही पंचम गति का जीव कहते हैं। वीतरागी भावों से यह गति प्राप्त होती है।
विग्रह का अर्थ शरीर है। पूर्व भव के शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर को ग्रहण करने के लिये जीव जो गमन करता है उसे विग्रह गति कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है – मोड़ा सहित और मोड़ा रहित (सीधी)। संसारी जीव की विग्रह गति मोड वाली व बिना मोड वाली दोनों प्रकार की होती है।
विग्रह गति के चार भेद-
(१) इषुगति-सरल अर्थात् धनुष से छूटे बाण के समान मोड़ा रहित गति को ईषुगति या ऋजुगति कहते हैं। इसमें एक समय लगता है।
(२) पाणिमुक्ता गति-हाथ से तिरछे फेंके गये पदार्थ में एक मोड़ा होता है। इस एक मोड़े वाली गति में २ समय लगते हैं।
(३) लांगलिका गति-जैसे हल में दो मोड़े होते हैं, वैसे ही यह गति २ मोड़े वाली होती है। इसमें तीन समय लगते हैं।
(४) गोमूत्रिका गति-गाय का चलते समय मूत्र का करना कई मोड़ों वाला होता है। उसी प्रकार यह गति ३ मोड़ों वाली होती है। इसमें ४ समय लगते हैं।
उपरोक्तानुसार मोड़ा रहित गति में एक समय और मोड़ा सहित गति में २, ३ या ४ समय लगते हैं और ऐसा कोई स्थान नहीं है जहां पहँुचने में तीन से अधिक मोड़े लगते हों। इस प्रकार जीव के मरण के बाद अधिक से अधिक चार समय में जीव नये जन्म स्थान पर पहुंच जाता है।
मुक्त जीव की गति विग्रह रहित होती है।