एक देश से दूसरे देश के प्राप्त करने का जो साधन है उसे गति कहते है। बाह्य और आभ्यन्तर निर्मित के वश से उत्पन्न होने वाला काय का परिस्पन्दन गति कहलाता है। गति शब्द का दो अर्थों में प्राय: प्रयोग होता है- गमन व देवादि चार गति । छहों द्रव्यों में जीव व पुद्गल ही गमन करने को समर्थ है। उनकी स्वाभाविक व विभाविक दोनों प्रकार की गति होती है नरक तिर्यंच मनुष्य व देव ये जीवों की चार प्रसिद्ध गतियाँ है, जिनमें संसारी जीव नित्य गमन करता है। इसका कारणभूत कर्मगति नामकर्म कहलाता है। क्रिया प्रयोग बन्धाभाव आदि के भेद से दस प्रकार की है। वाण चक्र आदि की प्रयोगगति है। एखण्डबीज आदि की बन्धाभाव गति है। मृदंग भेरी शंखादि के शब्द जो दूर तक जाते है पुद्गलों की छिन्नगति है गेंद आदि की अभिघात गति है। नौका आदि की अवगाहनगति है। पत्थर आदि की नीचे की ओर (जानेवाली) गुरूत्वगति है तुंबड़ी रूई रूई आदि की (ऊपर जाने वाली) लघुत्वगति है। सुरा सिरका आदि की संचार गति है। मेघ, इथ मूसल आदि की क्रमश: वायु हाथी तथा हाथ के संयोग से होने वाली संयोगगति है। वायु, अग्नि परमाणु, मुक्त जीव और ज्योतिर्देव आदि की स्वभावगति है।