—दोहा—
तीर्थंकर प्रकृती यहाँ, महापुण्यफलराशि ।
मन वच तन से मैं नमूं, मिले सर्वसुख राशि।।१।।
—गीता छंद—
नगरी अयोध्या में पिता, श्री नाभिराजा के यहाँ।
मरुदेवि माता गर्भ में, सर्वार्थसिद्धी से यहाँ।।
‘पुरुदेवजिन’ आषाढ़ वदि, दुतिया सुउत्तराषाढ़ में।
जिन गर्भ मंगल नित नमूं, इससे लहूँ सुखसात मैं।।१।।
साकेत नगरी में पिता, जितशत्रु विजया मात के।
उर में बसे नक्षत्र रोहिणि, ज्येष्ठ कृष्ण अमावसे।।
‘श्री अजितनाथ’ विजय, अनुत्तर से उतर आये यहाँ।
प्रभु गर्भ कल्याणक मनाते, इन्द्र मैं वंदूं यहाँ।।२।।
‘संभव’ अधोग्रैवेयक तज, नगरि श्रावस्ती जहाँ।
राजा जितारी मां सुसेना, गर्भ में आये यहाँ।।
फागुन सुदी अष्टमि तिथी, मृगशिर नखत शुभ काल में।
इंद्रादि ने उत्सव किया, नितप्रति नमूं नत भाल मैं।।३।।
‘प्रभु अभीनंदन’ विजय, अनुत्तर छोड़ साकेता पुरी।
संवर पिता माता सु सिद्धार्था, गरभ में शुभ घरी।।
वैशाख शुक्ला छठ पुनर्वसु, नखत उत्तम काल में।
प्रभु गर्भ मंगल इंद्र करते, मैं नमूं त्रयकाल में।।४।।
‘जिन सुमति’ साकेतापुरी में, तज जयंत विमान को।
मां मंगला के गर्भ आये, मेघप्रभ पितु मान्य जो।।
श्रावण शुकल दुतिया मघा, नक्षत्र सुर उत्सव किया।
मैं गर्भकल्याणक नमूँ, फिर गर्भवास न होइया।।५।।
‘प्रभुपद्म’ ऊरध ग्रैवेयक तज, नगरि कौशाम्बी विषें।
पितु धरण गृह माता सुमीमा, के गरभ में आ बसे।।
तिथि माघ कृष्णा छट्ठ, चित्रा नखत में उत्तम घड़ी।
इन्द्रादि ने उत्सव किया, मैं नमत हूँ इस ही घड़ी।।६।।
प्रभु मध्य ग्रैवेयक तजा, वाराणसी में आ गये।
पितु सुप्रतिष्ठ सुमात पृथिवी, के गरभ में तिष्ठये।।
तिथि भाद्रशुक्ला छठ विशाखा, नखत जनमन सोहना।
सुर नमें ‘नाथ सुपार्श्व’ को, मैं नमूं जिनपद मोहना।।७।।
‘जिनचंद्र’ विजयंते अनुत्तर से चये आये यहाँ।
महासेन पितु माँ लक्ष्मणा के गर्भ में तिष्ठे यहाँ।।
शुभ चंद्रपुरि में चैत्रवदि पंचमि तिथी थी शर्मदा।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, मैं नित नमूं ँ गुण मालिका।।८।।
‘जिन सुविधि’ आरण स्वर्ग से, च्युत होय काकंदी पुरी।
सुग्रीव पितु रामा जननि के, गर्भ आये शुभ घरी।।
फाल्गुन वदी नवमी नखत था, मूल सुर मंगल किया।
मैं नित नमूं प्रभु गर्भ कल्याणक न धारूँ भव यहाँ।।९।।
‘शीतलप्रभु’ अच्युत सुरग से, भद्रिकापुरि आ गये।
दृढ़रथ पिता माता सुनंदा, के गरभ में आ गये।।
तिथि चैत कृष्णा अष्टमी, नक्षत्र पूर्वाषाढ़ था।
इंद्रादि गर्भोत्सव किया, वंदत हरूँ मृत्यु व्यथा।।१०।।
‘श्रेयांस’ पुष्पोत्तर विमान तजा सु सिंहपुरी विषे।
पितु विष्णु माता वेणुदेवी, गर्भ में आकर बसे।।
तिथि ज्येष्ठ कृष्णा छठ श्रवण, नक्षत्र उत्तम ग्रहों में।
इंद्रादि मिल उत्सव किया, हम वंदते इन क्षणों में।।११।।
‘प्रभु वासुपूज्य’ सु महाशुक्र, सरग तजा चंपापुरी।
वसुपूज्य पितु विजया सुमाता, गर्भ आये शुभघरी।।
आषाढ़ कृष्णा छठ नखत, शतभिषज् इंद्रों ने जजा।
मैं नित नमूं प्रभु गर्भ कल्याणक, मिटे यम की सजा।।१२।।
‘जिन विमल’ स्वर्ग शतार, तजकर कंपिलापुरि आ गये।
कृतवर्म पितु माता जयाश्यामा गरभ में बस गये।।
तिथि ज्येष्ठ वदि दसमी, सु उत्तर भाद्रपद नक्षत्र था।
सुरपति महोत्सव कर रहे, मैं नित नमूं मेटो व्यथा।।१३।।
‘जिनवर अनंत’ सु स्वर्ग, पुष्पोत्तर तजा साकेत में।
जननी सु सर्वयशा गरभ में, सिंहसेन निकेत१ में।।
कार्तिक वदी एकम तिथी, रेवति नखत सुरपति जजें।
हम वंदते प्रभु गर्भ मंगल, नित्य नव मंगल भजे।।१४।।
सर्वार्थसिद्धी तज ‘धरमजिन’, रत्नपुर में भानु पित।
मां सुव्रता के गर्भ सुदि, बैशाख तेरस तिथि सुखद।।
तुम गर्भ उत्सव के लिये, सब इंद्र सुरगण आ गये।
हम वंदते नित भक्ति से, सब रोग शोक नशाइये।।१५।।
‘श्री शांतिजिन’ सर्वार्थसिद्धी, छोड़ हस्तनापुरी में।
पितु विश्वसेन सुमात ऐरावती के शुभ गर्भ में।।
भादों वदी सप्तमि तिथी, नक्षत्र भरणी शुभ घड़ी।
सुरपति मिलें उत्सव करें, मैं नित नमूं यह शुभ घड़ी।।१६।।
‘श्री कुंथुजिन’ सर्वार्थसिद्धी छोड़ हस्तिनापुरी में।
पितु सूर्यसेन सुमात, श्रीमतिदेवि के शुभ गर्भ में।।
श्रावण वदी दसमी नखत, है कृत्तिका ग्रह श्रेष्ठतम।
सुरपति महा उत्सव करें, वंदत मिले सुख श्रेष्ठतम।।१७।।
‘अरनाथ’ अपराजित अनुत्तर, छोड़ हस्तनापुरी में।
माता सुमित्रा गर्भ में, सविता१ सुदर्शन महल में।।
फाल्गुन वदी तृतिया नखत, रेवति अनूपम शुभ घड़ी।
सुरपति महोत्सव कर रहें, मैं नित नमूं यह शुभ घड़ी।।१८।।
‘जिन मल्लि’ अपराजित अनुत्तर, छोड़ मिथिलापुरि बिषे।
पितु कुुंभनृप माता प्रभावति, गर्भ में आकर बसें।।
तिथि चैत्र सुदि एकम नखत, अश्विनि महापूज्या घड़ी।
सुरपति महोत्सव कर रहे, मैं भी नमूं यह शुभ घड़ी।।१९।।
‘जिन मुनीसुव्रत’ सुरग आनत, छोड़ राजगृही में।
सविता सुमित्र सुमात पद्मावती, के शुभ गर्भ में।।
श्रावण वदी दुतिया श्रवण, नक्षत्र सुरगण पूजते।
हम गर्भ कल्याणक नमें, सब पाप संकट धूजते।।२०।।
‘नमिनाथ’ अपराजित तजा, मिथिलापुरी में आ गये।
पितु विजय माता वप्रिला१, के गर्भ में आ तिष्ठये।।
आसोजवदि दुतिया नखत, अश्विनि सकलसुर पूजते।
हम गर्भ कल्याणक नमें, भव भव दुखों से छूटते।।२१।।
‘श्री नेमि’ अपराजित अनुत्तर, छोड़ शौरीपुरी में।
सविता समुद्र विजय सुमाता, शिवादेवी गर्भ में।।
कार्तिक सुदी छठ उत्तरा-षाढ़ा गरभ मंगल करें।
हम वंदते यह गर्भ कल्याणक, सकल मंगल भरें।।२२।।
‘श्री पार्श्वजिन’ प्राणत सुरग से, पुरी वाराणसी में।
पितु अश्वसेन सुमात वामा, के महा शुभ गर्भ में।।
वैशाखव्ादि द्वितिया विशाखा, नखत उत्तम शुभघड़ी।
मैं भी नमूं शुभ भाव लेके, इंद्र वंदित यह घड़ी।।२३।।
‘महावीर’ पुष्पोत्तर विमान, सु छोड़ कुंंडलपुरी में।
सिद्धार्थ पितु माता सु प्रियकारिणि सती के गर्भ में।।
आषाढ़ सुदि छठ उत्तरा-षाढ़ा१ नखत शुभ जानिये।
सुरपति महोत्सव कर रहें, वंदूं सकल दुख हानिये।।२४।।
चौबीस जिनवर जहं जहां, से अवतरे आये यहाँ।
जिस नगर में जिनजनक गृह, जिस मात उर तिष्ठे यहाँ।।
जिस नखत में जिस शुभ तिथी, में गर्भ उत्सव सुर किया।
मैं नमूं इन सबको यहाँ, ‘सज्ज्ञानमति’ पावन किया।।२५।।
—शंभु छंद—
सोलह स्वप्ने माता देखे, जब गर्भ में जिनवर आते हैं।
इंद्रों के आसन कंपते ही, वे वैभव से यहं आते हैं।।
माता पितु की पूजा करके, सुर महामहोत्सव करते हैं।
श्री आदि मात की सेवारत, आंगन में रतन बरसते हैं।।२६।।