चक्रवर्ती भरत ने इन सभी को गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और कर्त्रन्वय क्रिया ऐसी तीन प्रकार की क्रियाओं का विस्तार से उपदेश दिया। ये गर्भान्वय क्रियाएं त्रेपन प्रकार की हैं-उनके नाम निम्न हैं-
१. आधान २. प्रीति ३. सुप्रीति ४. धृति ५. मोद ६. प्रियोद्भव
७. नामकर्म ८. बहिर्यान ९. निषद्या १०. प्राशन ११. व्युष्टि १२. केशवाप १३. लिपिसंख्यान संग्रह १४. उपनीति १५. व्रतचर्या १६. व्रतावरण
१७. विवाह १८. वर्णलाभ १९. कुलचर्या २०. गृहीशिता २१. प्रशांति
२२. गृहत्याग २३. दीक्षाद्य २४. जिनरूपता २५. मौनाध्ययनवृत्तित्व
२६. तीर्थकृत भावना २७. गुरुस्थानाभ्युदय २८. गणोपग्रहण २९. स्वगुरु स्थान संक्रांति ३०. निःसंगत्वात्मभावना ३१. योगनिर्वाणसंप्राप्ति ३२. योगनिर्वाण साधन ३३. इन्द्रोपपाद ३४. अभिषेक ३५. विधिदान ३६. सुखोदय
३७. इन्द्रपदत्याग ३८. अवतार ३९. हिरण्योत्कृष्टता ४०. मंदरेंद्राभिषेक
४१. गुरुपूजोपलंभन ४२. यौवराज्य ४३. स्वराज्य ४४. चक्रलाभ ४५. दिग्विजय ४६. चक्राभिषेक ४७. साम्राज्य ४८. निष्क्रांति ४९. योगसन्मह ५०. आर्हन्त्य ५१. तद्विहार ५२. योगत्याग और ५३. अग्रनिर्वृत्ति।