इनका अपर नाम भीषमाचार्य था। ये राजा पाराशर के पुत्र थे। पिता को धीवर कन्या पर आसक्त देख धीवर की शत्र पूरी करके अपने पिता को संतुष्ट करने के लिए आपने स्वयं राज्य का त्याग कर दिया और आजन्म ब्रह्मचर्य से रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की । कौरवों तथा पांडवो को अनेको उपयोगी शिक्षा दी। कौरवों द्वारा पाण्डवों का दहन सुन दु:खी हुए। अनेकों बार कौरवों की ओर से पाण्डवों के विरूद्ध लड़े। अन्त में कृष्ण जरासन्ध युद्ध में राजा खिखण्डी द्वारा मरणासन्न कर दिये गये। तब उन्होने जीवन का अन्त जान सन्यास धारण कर लिया। इसी समय दो चरण मुनियों के आजाने पर सल्लेखनापूर्वक प्राण त्याग ब्रह्मस्वर्ग में उत्पन्न हुए।
जैन महाभारत के अनुसार कुरूजागल देश के हस्तिनापुर नगर में परम्परागत कुरूवंशियो का राज्य चला आ रहा था। उन्हीं में शान्तनु नाम के राजा हुए। उनकी सबकी नाम की रानी से पाराशर नाम का पुत्र हुआ। रत्नपुर नगर के जन्हु नामका विद्याधर राजा की गंगा नाम की कन्या थी। विद्याधर राजा ने पाराशर के साथ गंगा का विवाह कर दिया। इन दोनो के गांगेय-भीष्माचार्य नाम का पुत्र हुआ। जब गांगेय तरण हुआ तब पाराशर राजा ने उसे युवराज पद देदिया। किसी समय राजा पाराशर ने यमुना नदी के किनारे क्रीड़ा करते समय नाव में बैठी सुन्दर कन्या देखी और उस पर आसक्त होकर धीवर से उसकी याचना की, किन्तु उस धीवर ने कहा की आपके पुत्र गांगेय को राज्य पद मिलेगा तब मेरी कन्या का पुत्र उसके आश्रित रहेगा अत: मै कन्या को नही रंगा। राजा वापस घर आकर चिंतित रहने लगे किसी तरह गांगेय को पिता की चिन्ता का पता चला। तब वे धीवर के पास जाकर बोले कि तुम अपनी कन्या को मेरे पिता को ब्याह दो मैं वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री का पुत्र ही राज्य करेगा फिर भी धीवर ने कहा कि आपके पुत्र पौत्र कब चैन लेने देगे तब गांगेय ने उसी समय आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया और धीवर को संतुष्ट कर दिया। घृतराष्ट्र और गांधारी के दुर्योधन आदि को लेकर क्रमश: सौ पुत्र उत्पन्न हुए जो कुरूवंशी होने से कौरव कहलाये। कौरव-पांडव के पिता घृतराष्ट्र और पाण्डु थे इनके पिता व्यास थे।
गांगेय इन व्यास के बड़े भाई होने से इन कौरव-पांडवो के पितामह थें। उन्होने इन कौरव-पांडव का रक्षण किया और यथोचित्त शिक्षण दिया। द्रोणाचार्य नामक किन्ही द्विज श्रेष्ठ ने इन सब पुत्रों को धनुर्वेद विद्या सिखाई। दुर्योधन, गांगेय (पितामह) और द्रोण गुरू पर अधिक कोप करने लगा कि हे तात। आप यदि अर्जुन से युद्ध नही करेगे तो महान अनर्थ होगा। वे बोले हम क्या करे वह अर्जुन स्वयं हमे पूज्य समझकर हम लोगो से युद्ध नही चाहता है। खैर अन्त में परस्पर मे शिष्य-गुरू, पितामह-पोते आदि के भेद भाव को छोड़कर वहाँ सब युद्ध में संलग्न हो गये। घृष्टद्युम्न (द्रौपदी के भ्राता) ने भीष्म पितामह को युद्ध में मृतक प्राय: करके गिरा दिया। तब उन्होने उसी रणभूमि में ही संन्यास धारणकर लिया, उस समय दोनों पक्ष के लोग रण छोड़कर पितामह के पास आये और उसके चरण वन्दन कर रोने लगे तब गांगेय ने कौरव-पांडवो को बहुत ही उपदेश दिया और मैत्रीभाव करने को कहा। किन्तु उसका कुछ भी असर नही हुआ। इधर आकाश मार्ग से हंस और परमहंस नाम के दो चारणमुनि आये और भीष्म को चतुराहार का त्याग कराकर विधिवत् सल्लेखना ग्रहण करा दी। उन्होने पंच महामन्त्र का स्मरण करते हुए शरीर का त्याग किया और आजन्म ब्रह्मचर्य के प्रभाव से पांचवे ब्रह्मस्वर्ग में देव हो गये ।