यह श्री गौतमस्वामी के मुख से निर्गत गाथासूत्र आज बदलकर ऐसा कर रहे हैं कि—‘‘देवा वि तं णामंस्संतिश्रमणचर्या-पृ. १६४। यह अनुचित है क्योंकि टीकाकार श्रीप्रभाचंद्राचार्य तक यह गाथा ऐसी ही चली आ रही थी उन्होंने इसकी टीका इस प्रकार की है यथा—
इदानीं धर्मादीनां मलगालनादिहेतुतया परममंगलत्वं प्ररूपयन्नाह। धम्मो इत्यादि। धर्म उक्तलक्षणः। मंगलं। मलं पापं गालयति विध्वंयति वा मंगलम्। मंगं वा परमसुखं लात्यादत्त इति मंगलम्। उक्किठ्ठं। उत्कृष्टमनुपचरितं परमम्। न केवलं धर्म एव मंगलमपि तु अहिंसा संजमो तवो अहिंसा संयमस्तपश्च। न केवलं मलगालनहेतुरेवायमपि तु पूजादिहेतुरपि। यतः देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो देवा अपि तस्य प्रणमंति यस्य धर्मे सदा मनः।।प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी-पृ. ८०।
ऐसे ही पाक्षिक और अष्टमी के प्रतिक्रमण में दण्डक सूत्रों का ऐसा क्रम है। यह दण्डकसूत्र श्री गौतमस्वामी द्वारा विरचित हैं। इन्हें बदल देना अनुचित है। इन दण्डक सूत्रों का क्रम टीकाकारों तक इसी प्रकार रहा है और ऐसे ही क्रम रखकर उन्होंने टीका की है। यथा—मुनिचर्या पृ. १७०-१७१।
णवसु बंभचेरगुत्तीसु, चउसु सण्णासु, चउसु पच्चएसु, दोसु अट्टरुद्द-संकिलेस-परिणामेसु, तीसु अप्पसत्त्थ-संकिलेसपरिणामेसु, मिच्छाणाण-मिच्छादंसण-मिच्छाचरित्तेसु, चउसु उवग्गेसु, पंचसु चरित्तेसु, छसु जीवणिकाएसु, छसु आवासएसु, सत्तसु भएसु, अट्ठसु सुद्धीसु, दससु समणधम्मेसु, दससु धम्मज्झाणेसु, दससु मुंडेसु, बारसेसु संजमेसु, बावीसाए परीसहेसु, पणवीसाए भावणासु, पणवीसाए किरियासु, अट्ठारससीलसहस्सेसु, चउरासीदिगुण-सयसहस्सेसु, मूलगुणेसु, उत्तरगुणेसु, अट्ठमियम्मि अइक्कमो वदिक्कम्मो अइचारो अणाचारो आभोगो अणाभोगो जो तं पडिक्कमामि मए पडिक्वंतं, तस्स मे सम्मत्तमरणं समाहिमरणं पंडियमरणं वीरियमरणं दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ती होउ मज्झं।पद्यानुवाद (गणिनी ज्ञानमती) नव ब्रह्मचर्य गुप्ती चउ संज्ञा चार हि आस्रव कारण हैं। दो आर्तरौद्र संक्लेश भाव त्रय अप्रशस्तसंक्लेश कहें।। मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन मिथ्या चरित्र चउ उपसर्गा। चारित्र पाँच छह जीवकाय छह आवश्यक किरिया उक्ता।। भय सात आठ शुद्धी दश विध हैं श्रमण धर्म दश धर्म ध्यान। दश मुंडन बारह संयम बाइस परिषह भावना बीस पांच।। पच्चीस क्रिया अठरह हजार हैं शील व गुण चौरासि लाख। अठबीस मूलगुण बहु उत्तरगुण इन सबमें कीना विघात।। इन आठ दिनों में अष्टमि में अतिक्रम व्यतिक्रम अतिचार अरू। जो अनाचार आभोग अनाभोग उन सबका प्रतिक्रमण करूं।। प्रतिक्रमण सुकरते हुए मेरा सम्यक्त्वमरण व समाधिमरण। हो पंडितमरण व वीरमरण जिससे नहिं होवे पुनः मरण।। दुःखो का क्षय कर्मों का क्षय होवे मम बोधिलाभ होवे।। हो सुगतिगमन व समाधिमरण मम जिनगुणसंपति होवे।। प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी में टीकाकार श्री प्रभाचंद्राचार्य ने लिखा है-प्रतिक्रमण ग्रंथत्रयी पृ. १८६ से १९४ तक। णवसु इत्यादि। णवसु बंभचेरगुत्तीसु।। नवप्रकारासु ब्रह्मचर्यगुप्तिषु। कथं पुनस्तासां नवप्रकारतेति चेत्, उच्यते-तिर्यङ्मनुष्यदेवस्त्रीणां प्रत्येकं मनोवचनकायैरसेवनं नवविधं ब्रह्मचर्यं। अथवा स्त्रीसामान्यस्य मनोवचनकायैः कृतकारितानुमतविशेषैरसेवनं नवविधं ब्रह्मचर्यं। तस्य च गुप्तयो रक्षणानि पालनानि नवप्रकाराणि भवंतीति नव ब्रह्मचर्यगुप्तयः। चउसु सण्णासु।। चतसृषु संज्ञास्वाहारभयमैथुनपरिग्रहलक्षणासु।। चउसु पच्चएसु।। चतुर्षु प्रत्ययेषु कर्मबंधकारणेषु मिथ्यादर्शनाविरतिकषाययोगलक्षणेषु। प्रमादस्य पंचमस्य तत्कारणस्य सद्भावात्कथं चत्वारः प्रत्यया इति नाशंकनीयं, तस्यविरतावंतर्भावात्।। दोसु अट्टरुद्दसंकिलेस-परिणामेसु।। द्वयोरार्तरौद्रलक्षणसंश्लेष-परिणामयोः।। तिसु अपसत्थसंकिले-सपरिणामेसु।। त्रिषु मायामिथ्यानिदानस्वरूपेष्वप्रशस्तेषु पापोपार्जनहेतुभूतेषु संक्लेशपरिणामेषु।। मिच्छणाणमिच्छ-दंसणमिच्छचरित्तेसु।। मिथ्याज्ञानमिथ्यादर्शनमिथ्याचारित्रेषु। अथवा मिथ्यादर्शन-ज्ञानचारित्राण्येव संक्लेशपरिणामाः, संक्लिष्टात्मनामेव तत्प्रादुर्भावात्।। चउसु उवसग्गेसु।। चतुर्षूपसर्गेषु देवमनुष्यतिर्यगचेतन-कृतोपसर्गलक्षणेषु।। पंचसु चरित्तेसु।। सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्म-सांपराययथा-ख्यातलक्षणेषु।। छसु आवासएसु।। प्रागेव व्याख्यातरूपेषु।। सत्तसु भएसु।। ‘‘इहपरलोयत्ताणं अगुत्तिमरणं च वेयणा कस्स।। भय—’’ मित्येतल्लक्षणलक्षितेषु।। अट्ठसु सुद्धीसु।। ‘‘मनोवाक्कायभैक्ष्ये-र्यासूत्सर्गे शयनासने विनये च यतेः शुद्धिः शुद्ध्यष्टकमुदाहृतं।।’’ इत्येवं रूपासु।। दससु समणधम्मेसु।। दशप्रकारेषु श्रमणधर्मेषु। श्रमणानां मुनीनां धर्माः श्रमणधर्मास्तेषूत्तम-क्षमामार्दवार्जवसत्यशौच-संयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्यलक्षणेषु।। दससु धम्मज्झाणेसु।। दशप्रकारेषु धम्र्यध्यानेष्वपायविचयो-पायविचयविपाकविचयविराग-विचयलोकविचयभवविचयजीवविचयाज्ञाविचयसंस्थानविचयसंसारविचयलक्षणेषु। विचयो हि परीक्षा।
नव प्रकार ब्रह्मचर्य गुप्ति में, चार संज्ञाओं में कर्मबंध के कारण चार मिथ्यात्वादि प्रत्ययों में दो आत्र्तरौद्रसंक्लेशपरिणामों में माया मिथ्या निदानरूप तीन अप्रशम परिणामों में चार उपसर्गों में पाँच सामायिक चारित्रों में, छह जीव निकायों में, छह आवश्यकों में, सात भयों में, आठ शुद्धियों में नव ब्रह्मचर्य गुप्तियों में, दश श्रमण धर्मों में, दश धर्मध्यानों में, दश मुंडों में, बारह संयमों में, बाइस परिषहों में, पच्चीस भावनाओं में, पच्चीस क्रियाओं में, अठारह हजार शीलों में, चौरासी लाख गुणों में, मूलगुणों में और उत्तर गुणों में इत्यादि विधि निषेध स्वरूप यत्याचारों में आष्टमिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक अनुष्ठानों में अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार, आभोग और अनाभोग ये जो दोष हुआ है, उसका प्रतिक्रमण-निराकरण करता हूँ। मेरे दोष दूर किये उसको मेरा सम्यक्त्वमरण, समाधिमरण, पंडितमरण, वीर्यमरण, दु:खक्षय, कर्मक्षय, बोधिलाभ, सुगतिगमन और जिनेन्द्रगुणों की प्राप्ति हो।यतिप्रतिक्रमण, पृ. ९६।