भरत क्षेत्र का पर्वत है अपर नाम ऊर्जयन्त । सौराष्ट्र देश जूनागढ़ स्टेट में स्थित है। देवों से युक्त भगवान् नेमिनाथ उपदेश करते हुए उत्तरापथ से सुराष्ट्र देश की ओर आये। जिनेंद्र रूपी सूर्य यद्यपि उत्तरायण को उलंघन कर दक्षिणायन को प्राप्त हुये थे तथापि उनका तेज पहले के समान सर्वत्र व्याप्त था। जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन की ओर आता है तब उसका तेज कुछ कम हो जाता है किन्तु जिनेन्द्र रूपी सूर्य का तेज उत्तर दिशा से दक्षिण दिशा में आने पर भी कम नही हुआ था।
भगवान् अंतिम् समय गिरनार पर्वत पर आकर विराजमान हो गये तब देवों ने पूर्ववत् समवसरण की रचना कर दी। वहाँ द्वादश सभा में इन्द्र, देव, मनुष्य तिर्यंच आदि यथा स्थान बैठ गये। तब पुन: जिनेन्द्रदेव ने स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का एक साधन, रत्नत्रय से पवित्र साधु धर्म का उपदेश दिया। जिस प्रकार जिनेंद्रदेव ने सर्वप्रथम विस्तार से उपदेश दिया था उसी प्रकार अंतिम समय में भी विस्तार से उपदेश हुआ था। जैसे अग्नि में उष्णता, ऊध्र्वज्वलनता, पानी में शीतलता स्वभाव से है वैसे ही भगवान् की दिव्यध्वनि भी बिना किसी की प्रेरणा से स्वभाव से खिरती थी। उत्तरपुराण में लिखा है-
भट्टारक नेमिनाथ ने विहार बंदकर एक माह का योग निरोध किया! आषाढ़ शुक्ला सप्तमी के दिन चित्रा नक्षत्र में रात्रि के प्रारंभ में ही चार अघातिया कर्मो का नाशकर मोक्ष धाम को प्राप्त हो गये। भगवान के साथ पाँच सौ तेतीस मुनियों ने भी निर्वाण प्राप्त किया हैं।
उसी समय इन्द्रो ने देवों ने आकर भगवान का निर्वाणकल्याणक महोत्सव मनाया। पुन: इंद्र ने गिरनार पर्वत पर वङ्का से उकेर कर इस लोक में पवित्र सिद्ध शिला का निर्माण किया और उसे जिनेन्द्र भगवान के लक्षणों के समूह से युक्त किया। अनंतर श्रीवरदत्त आदि गणधरदेव और मुनियों के संघ की वंदना कर इन्द्रादि देव और राजा लोग सब अपने-२ स्थान पर चले गये। समुद्रविजय आदि नौ भाई, देवकी के युगलिया छह पुत्र तथा शंबु और प्रद्युम्न आदि बहुत से मुनि भी इस गिरनार पर्वत से मोक्ष को प्राप्त हुये है। इसलिये उस समय से गिरनार पर्वत आदि निर्वाण क्षेत्र संसार में प्रसिद्ध हुये है। गिरनार पर्वत पर इन्द्र ने वङ्का से भगवान के लक्षण चरण चिन्ह बनाये यह बात अन्यत्र भी प्रसिद्ध है। यथा हे ऊर्जयंत ! तू पृथ्वीतल के मध्य में ककुद के समान ऊँचा है विद्याधर दंपती तेरे ऊपर विचरण करते रहते है तू शिखरों से सुशोभित है, मेघपटल तेरे तटभाग को ही छू पाते है। तथा स्वयं इन्द्र ने तेरे पवित्र अंग पर वङ्का से नेमिनाथ भगवान के चिन्ह अंकित किये थें
इसी बात का समर्थन करते हुये पुराणसारसंग्रह में श्रीदामनंदी आचार्य ने भी लिखा है-
कुलिशेन सहस्त्राक्षो लक्षण पंक्ति लिलेख तत्रेश:।
भव्यहिताय शिलायामद्यापि च शोभते पूता ।
इन्द्र ने अपने वङ्का से वहाँ गिरनार पर्वत पर सिद्ध शिला बनाकर उस पर भगवान् के लक्षण लिखे वह सिद्धशिला आज भी पवित्र शोभित हो रही है।
गिरनार क्षेत्र पर इन्द्र ने मूर्ति स्थापित की थी-
सौराष्ट्रे यदुवंशभूषणमणे: श्रीनेमिनाथस्य या।
मूर्तिर्मुक्ति यथोपदेशनपरा शांतामुधापोहनात् ।
वस्त्रैराभरणैर्विना गिरिवरे देवेंद्र संस्थापिता।
चिन्तंभ्रातिमपाकरोतु जगतो दिग्वाससां शासनम् ।
सौराष्ट्र में गिरनार पर्वत पर यदुवंश भूषण श्रीनेमिनाथ तीर्थंकर की आयुध, वस्त्र और आभरण रहित, भव्य, शांत और मोक्षमार्ग का मौन उपदेश करने वाली जो मूर्ति स्थित है वह इंद्र द्वारा स्थापित की गयी है। वह संसार के चित्त की भ्रांति को दूर करे और इस संसार में दिगम्बर शासन को वृद्धिगंत करे।
उत्तरपुराा में लिखा है- जांबवती के पुत्र शंबुकुमार और प्रद्युम्न के पुत्र अनिरूद्ध कुमार ने श्री प्रद्युम्न मुनि के साथ ऊर्जयन्त गिरि के तीन कूटों पर आरूढ़ हो घातिया कर्मों का नाशकर तक केवल लब्धि प्राप्त की पुन: वही से मोक्ष को प्राप्त किया है।
आज भी गिरनार पर द्वितीय, तृतीय और चतुर्थवूâट पर मुनिराज अनिरूद्ध के शंबु के और प्रद्युम्न के चरण बने हुये है। ऊपर के प्रमाणों से यह स्पष्ट है कि पांचवी टोंक पर भगवान् नेमिनाथ के चरणों को इन्द्र ने अपने वङ्का से उकेरा है।
भगवान नेमिनाथ तथा प्रद्युम्न शंबुकुमार अनिरूद्ध कुमार आदि बहत्तर करोड़ सात सौ मुनियों ने ऊर्जयंत गिरि से सिद्धपद प्राप्त किया हैं उन सबको मेरा नमस्कार हो ।