तर्ज-फूलों सा……….
केशरिया झण्डा मेरा, जिनमत की पहचान है।
साथिया निशान है, जैनियों की शान है, उत्सव का सम्मान है।। टेक.।।
जिनवर के मंदिर शाश्वत बने जो,
उन सब पे भी ध्वज लहराते हैं।
रत्नों से निर्मित फिर भी हवा के,
चलने से वे ध्वज लहराते हैं।
देव वहाँ जाते, कीर्ति प्रभु की गाते, जिनचैत्य की वंदना कर रहे।
जय जय हो, जय जय प्रभो, केशरिया ध्वज धाम है।। साथिया।।1।।
आकाश की ऊँचाई को कहता,
झण्डा यह देखो फहराया है।
फूलों से गूंथा घंटी से गूंजा,
जिनवाणी का स्वर लहराया है।
महामहोत्सव में, आज के उत्सव में, ‘‘चन्दनामती’’ ध्वज वंदन करो।
जय जय हो, जय जय प्रभो, केशरिया ध्वज धाम है।। साथिया।।2।।
तर्ज-जनगणमन………
जन-जन के हितकारी हो प्रभु, युग के आदि विधाता।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर तुम ही, वृषभेश्वर जग त्राता।।
तुमने जन्म लिया जब,
कण-कण धन्य हुआ तब।
इन्द्र सिंहासन डोला,
मेरु सुदर्शन पांडु शिला पर, सबने जय जय बोला।
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।1।।
नाभिराय मरुदेवी के नन्दन, हुए प्रथम अवतारी।
पंचकल्याणक के हो स्वामी, सब जन मंगलकारी।।
सब मिल जय प्रभु बोलो,
जग के बंधन खोलो।
गंूज उठे जग सारा,
मुक्तिमार्ग बतलाते तुमको, नमन ‘‘चन्दनामति’’ का।
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे।।2।।
धरती का तुम्हें नमन है, आकाश का तुम्हें नमन है।
चन्दा सूरज करें आरती, छुटते जनम मरण हैं।।
सौ सौ बार नमन है।।
ऋषभदेव जिनवर को युग का, सौ-सौ बार नमन है।। टेक.।।
प्रभु का गर्भकल्याणक उत्सव, इन्द्र मनाया करते।
छः महिने पहले कुबेर, रत्नों की वर्षा करते।।
तीर्थंकर माँ के आँगन में, बरसें खूब रतन हैं,
सौ-सौ बार नमन है।। ऋषभदेव…………।।1।।
पिता उन्हीं रत्नों को जनता, में वितरित कर देते।
रत्न प्राप्त कर श्रावक जन, निज भाग्य धन्य कर लेते।।
धरती स्वर्णमयी बन जाती, पुलकित हुआ गगन है।
सौ-सौ बार नमन है।। ऋषभदेव…………।।2।।
एक रत्न उनमें से प्रभु यदि, आज मुझे मिल जावे।
तब मेरा भी भाग्य ‘‘चन्दनामती’’, स्वयं खिल जावे।।
तुम सम गर्भागम मेरा भी, होवे यही जतन है।
सौ-सौ बार नमन है।। ऋषभदेव…………।।3।।
आदीश्वर झूले पलना, मरुदेवी लोरी गावें-2।
मरुदेवी लोरी गावें, सब देवी उसे सुलावें।। आदीश्वर।।
कहाँ प्रभू को जनम भयो है-2
कौन झुलावे पालना, मरुदेवी लोरी गावें।। आदी.।।
नगरि अयोध्या में जनम भयो है-2,
इन्द्र झुलावे पालना, मरुदेवी लोरी गावें।। आदी.।।
कौन पिताश्री धन्य हुए हैं-2,
किनने जायो ललना, मरुदेवी लोरी गावें।। आदी.।।
नाभिराय पितु धन्य हुए हैं-2,
मरुदेवी जायो ललना, मरुदेवी लोरी गावें।। आदी.।।
स्वर्ग से इन्द्र-इन्द्राणी आये-2,
सभी झुलाएं पालना, मरुदेवी लोरी गावें।। आदी.।।
माता पाकर धन्य हुई हैं-2,
तीर्थंकर सा ललना, मरुदेवी लोरी गावें।। आदी.।।
यही ‘‘चन्दनामति’’ मैं चाहूँ-2,
पाऊँ प्रभु सा पालना, मरुदेवी लोरी गावें।। आदी.।।
तर्ज-लिया प्रभू अवतार…………
लगा प्रभू दरबार, जय जयकार जय जयकार जय जयकार।
अवध के राजकुमार, जय जयकार जय जयकार जय जयकार।।
आज खुशी है आज खुशी है, हमें खुशी है तुम्हें खुशी है।
खुशियाँ अपरम्पार, जय जयकार………………..।। लगा….।।1।।
पुष्प और रत्नों की वर्षा, सुरपति करते हरषा-हरषा।
बजे दुन्दुभी सार, जय जयकार…………..।। लगा….।।2।।
नाभिराय ने ऋषभदेव का, राज्यपट्ट अभिषेक किया है।
सबको हर्ष अपार, जय जयकार………………..।। लगा….।।3।।
प्रभु ने राजनीति सिखलाई, धर्मनीति की बात बताई।
धर्म ही जग में सार, जय जयकार………..।। लगा….।।4।।
आवो हम सब प्रभु गुण गावंे, धन्य ‘‘चन्दनामति’’ हो जावें।
सब जग मंगलकार, जय जयकार………………..।। लगा….।।5।।
तर्ज-दिल के अरमां………..
प्रभु जी सिद्धि कांता वरने चल दिये।
संग में चार हजार राजा चल दिये।। प्रभु जी.।।
सारी धरती पर प्रभू का राज्य था।
किन्तु प्रभु को हो गया वैराग्य था।।
तज के सब संसार, वे तो चल दिये।
संग में चार हजार राजा चल दिये।।1।।
वन में जाकर नग्न दीक्षा धार ली।
अवध की जनता दुःखी अपार थी।।
पंचमुष्टी केशलुंचन कर लिये।
संग में चार हजार राजा चल दिये।।2।।
दीक्षा लेकर वे तो ध्यान मग्न हुए।
बाकी सब राजा नियम से च्युत हुए।।
सम्बोधा वनदेव ने नहिं मुनिमार्ग ये।
संग में चार हजार राजा चल दिए।।3।।
छह महीने के बाद चले आहार को।
हुआ जहाँ आहार, धरा गजपुर की वो।।
तभी ‘‘चन्दनामती’’ मुनी व्रत पल रहे।
संग में चार हजार राजा चल दिए।।4।।
तर्ज-चल दिया छोड़…………
सब अथिर जान संसार, तजा घर बार, ऋषभप्रभु स्वामी।
फिर नहीं किसी की मानी।
पहले तो ब्याह रचाया था, सबको सब कुछ सिखलाया था।
राजाओं ने भी राजनीति तब जानी-
फिर नहीं किसी की मानी।।1।।
इक दिन नीलांजना नृत्य हुआ, प्रभु का मन पूर्ण विरक्त हुआ।
दे पुत्र भरत को राज्य बने वे ज्ञानी-
फिर नहीं किसी की मानी।।2।।
प्रभु नगरि अयोध्या छोड़ चले, पहुँचे प्रयाग के उपवन में।
हुई केशलोंच से उनकी शुरू कहानी, फिर नहीं किसी की मानी।।
फिर नहीं किसी की मानी।।3।।
वटवृक्ष तले ध्यानस्थ हुए, केवलज्ञानी भी यहीं हुए।
‘‘चन्दनामती’’ यह तीर्थ उन्हीं की निशानी, फिर नहीं किसी की मानी।।
फिर नहीं किसी की मानी।।4।।
तर्ज-एक परदेशी…………
प्रभु ऋषभदेव का आहार हो रहा,
हस्तिनापुरी में जयजयकार हो रहा।।
प्रथम प्रभू का प्रथम पारणा, प्रथम बार जब हुआ महल में।। हुआ…..।।
पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई थी, चैके का भोजन अक्षय हुआ तब।। अक्षय…..।।
भक्ती में विभोर सब संसार हो रहा,
हस्तिनापुरी में जयजयकार हो रहा।। प्रभू…..।।1।।
भरत ने नगरि अयोध्या से आकर, श्रेयांस का सम्मान किया था।। श्रेयांस…..।।
दानतीर्थ के प्रथम प्रवर्तक, कहकर उन्हें बहुमान दिया था।। बहुमान…..।।
राजा के महलों में मंगलाचार हो रहा,
हस्तिनापुरी में जयजयकार हो रहा।। प्रभू…..।।2।।
सब मिलकर अक्षय तृतिया को, आहार दान का पर्व मनाओ।
गुरु को आहार दे ‘चन्दनामति’, सबको गन्ने का रस भी पिलाओ।।…..रस भी पिलोओ।।
देखो कैसा धर्म का प्रचार हो रहा,
हस्तिनापुरी में जयजयकार हो रहा।। प्रभू…..।।3।।
तर्ज-माई रे माई………..
आओ रे आओ खुशियाँ मनाओ, उत्सव सभी मनावो।
प्रभु को केवलज्ञान हुआ है, समवसरण रचवाओ।।
बोलो रे जय जय जय……………..।
पुरिमतालपुर के उपवन में, ज्ञान हुआ जब प्रभु को।
इन्द्राज्ञा से धनपति ने, रच डाला समवसरण को।।
नभ में अधर विहार करें वे……….
नभ में अधर विहार करें वे, दर्शन कर सुख पाओ।
प्रभु को केवलज्ञान हुआ है, समवसरण रचवाओ।।
बोलो रे जय जय जय……………..।।1।।
चरण कमल तल स्वर्णकमल की, रचना इन्द्र करे हैं।
सोने में होती सुगंधि है, यह साकार करे हैं।।
उन जिनवर के दर्शन करने………
उन जिनवर के दर्शन करने, भव्य सभी आ जावो।
बोलो रे जय जय जय……………..।।2।।
बीस हजार हाथ ऊपर है, समवसरण की रचना।
अंधे-लूले-लंगड़े-रोगी, चढ़कर कभी थकें ना।।
यही ‘‘चन्दनामती’’ प्रभू की,………….
यही ‘‘चन्दनामती’’ प्रभू की, महिमा सब मिल गाओ।
प्रभु को केवलज्ञान हुआ है, समवसरण रचवाओ।।
बोलो रे जय जय जय……………..।।3।।
तर्ज-सौ साल पहले……….
बीते युगों में यहाँ पर समवसरण आया था…..समवसरण आया था।
मैंने न जाने तब कहाँ जनम पाया था।।टेक.।।
करोड़ों साल पहले भी, हजारों साल पहले भी।
ऋषभ महावीर इस धरती पर खाए और खेले भी।।
भारत की वसुधा पर तब, स्वर्ग उतर आया था…..स्वर्ग उतर आया था।
मैंने न जाने तब कहाँ जनम पाया था।।1।।
हुआ था जिनवरों को दिव्य केवलज्ञान जब वन में।
तभी ऐसे समवसरणों की रचना की थी धनपति ने।।
इन्द्र मुनी चक्री सबने लाभ बहुत पाया था-लाभ बहुत पाया था।
मैंने न जाने तब कहाँ जनम पाया था।।2।।
आज के इस महाकलियुग में नहिं साक्षात् जिनवर हैं।
तभी हम मूतिर्यों को प्रभु बनाकर रखते मंदिर में।।
सतियों ने इनकी भक्ति करके नाम पाया था-करके नाम पाया था।
मैंने न जाने तब कहाँ जनम पाया था।।3।।
अधर आकाश की रचना धरा पर आज दिखती है।
बीच में ‘‘चन्दना’’ देखो प्रभू की गंधकुटि भी है।।
समवसरण का यह वर्णन शास्त्रों में आया था…..शास्त्रों में आया था।
मैंने न जाने तब कहाँ जनम पाया था।।4।।
तर्ज-तुम तो ठहरे परदेशी…….
समवसरण दर्शन करो, तो भव्य कहलाओगे।
यदि तुम अभव्य हुए, तो दर्श नहीं पाओगे।। टेक.।।
प्रभु जी की धर्म सभा, में जो भी आता है।
तुम भी दिव्यध्वनि को सुनो, तो भव से तिर जाओगे।। समवसरण.।।1।।
गूंगे भी वहाँ जाकर, बोलने लग जाते हैं।
तुम भी आज श्रद्धा करो, तो आत्मसुख पाओगे।। समवसरण.।।2।।
इन्द्रभूति गौतम का भी, मान गलित हुआ था वहाँ।
देखो वही मानस्तंभ, मुक्तिपथ पाओगे।। समवसरण.।।3।।
दर्शनों के भावों से, मेढक ने देवगति ली।
दर्शन करो तुम भी तो, देवगती पाओगे।। समवसरण.।।4।।
भव्य या अभव्यपने की, ‘‘चन्दना’’ परीक्षा करो।
दर्शन से भव्यत्व की, श्रेणी में आओगे।। समवसरण.।।5।।
तर्ज-रंग बरसे भीगे चुनर वाली…….
रंग छलके ज्ञान गगरिया से रंग छलके……..
हो…..रंग छलके ज्ञान गगरिया से रंग छलके…….हो……।।टेक.।।
जग को होली का रंग सुहाता-2
तुमको सुहाती ज्ञान गंग, जगत तरसे रंग छलके….हो….।।1।।
जग को सुहाती, जयपुुर की चुनरिया-2
तुम्हें भाती चरित्र चुनरिया, जो मन हरषे रंग छलके……हो……।।2।।
जग को सुहाते, रत्नन के गहने-2
तुम्हें भाते ज्ञान के गहने, रतन बरसे रंग छलके….हो….।।3।।
जग को सुहाती, विषयों की लाली-2
तुमको सुहाती जिनवाणी, जगत झलके रंग छलके……हो……।।4।।
कहे ‘‘चन्दना’’ सब मिल आओ-2
हम भी सुनें जिनवाणी, ज्ञान बरसे रंग छलके…..हो…..।।5।।
तर्ज-माई रे माई………..
ऋषभदेव निर्वाण महोत्सव, मिलकर सभी मनाएँ।
आओ इस भारत वसुधा पर, अगणित दीप जलाएँ।।
प्रभू की जय जय जय, प्रभू की जय जय जय जय जय।
कोड़ा-कोड़ी वर्ष पूर्व तिथि माघ कृष्ण चैदश थी।
अष्टापद से मोक्ष पधारे, ऋषभदेव जिनवर जी।।
तब स्वर्गों से इन्द्रों ने आ……………
तब स्वर्गों से इन्द्रों ने आ, दीप असंख्य जलाए।
आओ इस भारत वसुधा पर, अगणित दीप जलाएँ।।
प्रभू की जय जय जय, प्रभू की जय जय जय जय जय।।1।।
ऋषभदेव से महावीर तक, हैं चैबिस तीर्थंकर।
इन सबका उपदेश एक ही, धर्म अहिंसा हितकर।।
जिओ और जीने दो सबको……………
जिओ और जीने दो सबको, यह संदेश सुनाएं।
आओ इस भारत वसुधा पर, अगणित दीप जलाएँ।।
प्रभू की जय जय जय, प्रभू की जय जय जय जय जय।।2।।
सिद्धक्षेत्र की भक्ती करके, हम भी सिद्ध बनेंगे।
जब तक सिद्ध नहीं बनते, तब तक प्रभु भक्ति करेंगे।।
सभी ‘‘चन्दनामती’’ खुशी से………………
सभी ‘‘चन्दनामती’’ खुशी से, यही भावना भाएँ।
आओ इस भारत वसुधा पर, अगणित दीप जलाएँ।।
प्रभू की जय जय जय, प्रभू की जय जय जय जय जय।।3।।