श्रुतधराचार्यों की परंपरा में सर्वप्रथम आचार्य गुणधर का नाम आता है। गुणधर और धरसेन दोनों ही श्रुत-प्रतिष्ठापक के रूप में प्रसिद्ध है। गुणधर आचार्य धरसेन की अपेक्षा अधिक ज्ञानी थे। गुणधर को पच्चमपूर्वगत पेज्जदोसपाहुड का ज्ञान प्राप्त था और धरसेन को पूर्वगत कम्मपयडिपाहुड का । इतना ही नहीं, किन्तु गुणधर को पेज्जदोसपाहुड के अतिरिक्त महाकम्मपयडिपाहुड का भी ज्ञान प्राप्त था, जिसका समर्थन कसायपाहुड से होता है। कसायपाहुड से होता है। कसायपाहुड में बन्ध संक्रमण, उदय और उदीरणा जैसे पृथक अधिकार दिये गये है। ये अधिकार महाकम्मपयडिपाहुड के चौबीस अनुयोगद्वारों में से क्रमश: षष्ठ, द्वादश और दशम अनुयोगद्वारों से संबद्ध है। महाकम्मपयडि पाहुड का चौबीसवाँ अल्पबहुत्व नामक अनुयोगद्वार भी कसायपाहुड के सभी अथधिकारों में व्याप्त है। अत: स्पष्ट है कि आचार्य गुणधर महाकम्मपयडिपाहुड के ज्ञाता होने के साथ ‘पेज्जदोसपाहुड’ के ज्ञाता और कषायपाहुड के रूप में उसके अपसंहारकत्र्ता भी थे। पर छक्खडागम की धवलाटीका के अध्ययन से ऐसा ज्ञात नही होता कि धरसेन ‘पज्जदोस पाहुड’ के ज्ञाता थे। अतएव आचार्य गुणधर को दिगम्बर परम्परा में लिखित रूप में प्राप्त श्रुतका प्रथम श्रुतकार माना जा सकता है। धरसेन ने किसी ग्रन्थ की रचना नही की। जबकि गुणधर ने ‘पेज्जदोसपाहुड’ की रचना की।
आचार्य गुणधर के समय के सम्बन्ध में विचार करने पर ज्ञात होता है कि इनका समय धरसेन के पूर्व है। इन्द्रनन्द्रिके श्रुतावतार में लोहार्य तक की गुरूपरम्परा के पश्चात् विनय दत्त, श्री दत्त, शिव दत्त, और अर्हद् दत्त इन चार आचार्यो का उल्लेख किया गया है। ये सभी आचार्य अंगो और पूर्वो के एकदेशज्ञाता थे। इनके पश्चात् अर्हद्वलिका नाम आया है। अर्हद्वलि बड़े भाई संघनायक थे । इन्हे पूर्व देश के पुण्ड्रवर्धनपुर का निवासी कहा गया है। इन्होने पञचवर्षीय युगप्रतिक्रमण के समय बड़ा भारी एक यति सम्मेलन किया जिसमें सौ योजन तक के यति सम्मिलित हुए।
इन यतियों की भावनाओं से अर्हद्वलि ने ज्ञात किया कि अब पक्षपात का समय आ गया है। अतएव इन्होंने नन्दि, वीर, अपराजित, देव, पञचस्तूप, सेन, भड, गुणधर, सिंह, चन्द्र आदि नामों से भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये,जिससे परस्पर में धर्मवात्सल्यभाव वृद्धिंगत हो सके। संघ के उक्त नामों से यह स्पष्ट होता है कि गुणधर संघ आचार्य गुणधर के नाम पर ही था। अत: गुणधर का समय अर्हद्वलि के समकालीन या उनसे भी पूर्व होना चाहिए।
इनके गुरू आदि के सम्बन्ध में कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। गुणधर ने इस ग्रन्थ की रचना कर आचार्य नागहस्ति और आर्यमंक्षु को इसका व्याख्यान किया था। अतएव इनका समय उक्त आचार्यों से पूर्व है। छक्खंडागम के सूत्रों के अध्ययन से भी यह अवगत होता है कि पेज्जदोसपाहुड का प्रभाव इसके सूत्रों पर है। भाषा की दृष्टि से भाछक्खंडागम की भाषा कसाय पाहुड की भाषा की अपेक्षा अर्वाचीन है। अत: गुणधर का समय वि. पू. प्रथम शताब्दी मानना सर्वथा उचित है। गुणधराचार्य ने ‘कसायपाहुड’ जिसका दूसरा नाम ‘पेज्जापाहुड’ भी है की रचना की हैं । १६००० पद प्रमाण कसायपाहुड के विषय को संक्षेप में एकसौ अस्सी गाथाओं में ही उपसंहत कर दिया है।