दर्शनमोहनीयादि कर्मो के उदय, उपशम, क्षय क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावो से जीव लक्षित किये जाते है। उन्हे सर्वदर्शियों ने गुणस्थान इस संज्ञा के निर्देश किया है। गुणस्थान चौदह होते है। मिथ्यात्व सासादन मिश्र अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरत प्रमतविरत अप्रमत्तविरत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह क्षीणमोह सयोगकेवलीजिन अयोगीकेवली जिन।
सम्यग्दृष्टि के लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है, वह अन्तदीपक है इसलिए वह अपने से नीचे के लिए भी समस्त गुणस्थानो के असंयतपने का निरूपण करता है। (इससे ऊपर वाले गुणस्थानों में सर्वत्र संयमासंयम या संयम विशेषहा पाया जाने से उनके असंयमपने का यह प्ररूपण नही करता है। चौथे गुणस्थान तक सब गुणस्थान असंयत है और इससे ऊपर संयतासंयत या संयत इस सूत्र में जो सम्यग्दृष्टि पद है वह गंगा नदी के प्रवाह के समान ऊपर के समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्ति को प्राप्त होता है। पांचवे आदि समस्त गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन पाया जाता है। यहाँ पर प्रमत्त शब्द अत्तदीपक है, इसलिए वह छठवें गुणस्थान से पहले के सम्पूर्ण गुणस्थानों में प्रमाद के अस्तित्व को सूचित करता है। (अर्थात् छठे गुणस्थान तक सब प्रमत्त है इससे ऊपर सातवें आदि गुणस्थान सब अप्रमत्त है। सूत्र में जो बादर पद का ग्रहण किया है वह अन्तदीपक होने से पूर्वोवर्ती समस्त गुणस्थान बादर कषाय हैं इस बात का ज्ञान कराने के लिए ग्रहण किया है। ऐसा समझना चाहिए क्योंकि जहाँ पर विशेषण संभव हो अर्थात् लागू पड़ता हो और न देने पर व्यभिचार आता हो ऐसी जगह दिया गया विशेषण सार्थक होता है, ऐसा न्याय है इस सूत्र में आया हुआ छद्यस्थपद अत्नदीपक है, इसलिए उसे पूर्ववर्ती समस्तगुणस्थानों के सावरण (या छद्यस्थ) पने का सूचक समझना चाहिए, इस सूत्र में जो संयोग पद ग्रहण किया है। वह अन्तदीपक होने से नीचे के सम्पूर्ण गुणस्थानों के संयोगपने का प्रतिपादन है। मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में क्रमश: औदायिक, पारिणामिक, क्षायोपशमिक व औपशमिकादि तीनों भाव बताये गये है। वे नियम से दर्शनमोह का आश्रय करके कहे गये है। प्रगटपनै जातै अविरत पर्यन्त च्यारि गुणस्थान विषै चारित्र नाही है। इस कारण ते चारित्रमोह का आश्रय से कहा गया है तैसे ऊपर भी अपूर्वकरणादि गुणस्थाननिविषै चारित्र मोह को आश्रय करि भाव जानने । संयतासंयत आदि गुणस्थान चारित्रमोह के क्षयोपशम से अथवा उपशम से उत्पन्न होते है। अप्रमत्त संयत से ऊपर के चार गुणस्थान उपशम या क्षपक श्रेणी में ही होते है।