मोह और योग के निमित्त से आत्मा के गुणों में जो तारतम्य होता है उसे गुणस्थान कहते हैं। ये गुणस्थान—१ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ अविरत सम्यग्दृष्टि, ५ देश विरत, ६ प्रमत्त विरत, ७ अप्रमत्त विरत, ८ अपूर्व करण, ९ अनिवृत्ति करण, १० सूक्ष्म सांपराय, ११ उपशांत मोह, १२ क्षीण मोह, १३ सयोग केवली जिन और १४ अयोग केवली जिन के भेद से चौदह प्रकार के होते हैं। इनमें प्रारम्भ के १२ गुणस्थान मोह के सम्बन्ध से होते हैं और अन्त के दो गुणस्थान योग के सम्बन्ध से होते हैं। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में यद्यपि मोह का उदय नहीं रहता है तथापि उसके उपशम और क्षय की अपेक्षा रहती है। इसी प्रकार चौदहवें गुणस्थान में यद्यपि योग का सद्भाव नहीं है तथापि उसके अभाव की अपेक्षा रहती है। इन गुणस्थानों का स्वरूप इस प्रकार है—
दर्शन मोह की मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जहाँ अतत्त्व श्रद्धान रूप परिणाम रहता है उसे मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। अनादि काल से यह जीव इसी गुणस्थान में रहता चला आया है। एकान्त विपरीत, संशय, अज्ञान और वैनयिक मिथ्यात्वरूप परिणामों के कारण यह वर्तमान में दु:खी रहता है और नवीन कर्म बन्धकर आगामी पर्यायों में भी दु:खी रहने के साधन जुटाता रहता है। इस गुण स्थानवर्ती जीव को सच्चा उपदेश भी अरुचिकर मालूम होता है। जिस प्रकार मलेरिया ज्वर से पीड़ित मनुष्य को मिष्ट दुग्ध भी कडुवा लगता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव को सद्गुरुओं का उपदेश भी अरुचिकर लगता है। इस मिथ्यात्व गुणस्थान के स्वस्थान और सातिशय की अपेक्षा २ भेद हैं। जो अपनी मिथ्यात्व की ही अवस्था में रच पच रहा है, वह स्वस्थान मिथ्यादृष्टि कहलाता है और जो सम्यग्दर्शन धारण करने के सम्मुख हो अध:करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणाम कर रहा है, वह सातिशय मिथ्यादृष्टि कहलाता है। यह सातिशय मिथ्यादृष्टि जीव अपनी विशुद्धता के द्वारा नवीन बध्यमान कर्मों की स्थिति को अन्त: कोड़ाकोड़ी सागर से अधिक नहीं बांधता और सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति को उसे संख्यात हजार सागर कम करता है। इसी विशुद्धता के द्वारा मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन पांच प्रकृतियों का उपशम कर सम्यग्दृष्टि होता हुआ चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त होता है। जिस सादि मिथ्यादृष्टि के सम्यक्त्व प्रकृति तथा सम्यङ् मिथ्यात्व प्रकृति की सत्ता है वह सात प्रकृतियों का उपशम कर उपशम सम्यग्दृष्टि बनता है। कदाचित् मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन छह सर्वंघाति प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय और सदवस्थानरूप उपशम तथा सम्यक्त्व प्रकृति नामक देश घाति प्रकृति का उदय रहते हुए क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होता है। यह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, सादि मिथ्यादृष्टि को ही प्राप्त होता है अनादि मिथ्यादृष्टि को नहीं। कोई निकट भव्य जीव, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन के बाद सत्ता में स्थित उपर्युक्त सात प्रकृतियों का क्षय कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि बनता है।
चतुर्थ गुणस्थान में उपशम—सम्यक्त्व का काल जब कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छह आवली प्रमाण बाकी रह जाता है, तब अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ में से किसी एक प्रकृति का उदय आने पर यह जीव चतुर्थ गुणस्थान से भ्रष्ट हो जाता है और मिथ्यात्व के सन्मुख गमन करता है। जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है तब तक की अवस्था को सासादन गुणस्थान कहते हैं। यह जीव नियम से मिथ्यात्व को ही प्राप्त होता है। अनन्तानुबन्धी के उदय से इसका सम्यग्दर्शन आसादन—विराधना को प्राप्त हो जाता है इस सासादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं।
चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव के यदि मिश्र प्रकृति का उदय आता है तो वह वहाँ से गिरकर मिश्र गुणस्थान में आता है। इस गुणस्थान में ऐसे भाव होते हैं जिन्हें न तो सम्यक्त्व रूप कह सकते हैं और न मिथ्यात्व रूप। इस गुणस्थान में किसी की मृत्यु नहीं होती, न मारणान्तिक समुद्घात होता है और न नवीन आयु का बन्ध ही होता है। इस गुणस्थान में रहने वाला जीव पतन करे तो प्रथम गुणस्थान में आता है और ऊपर चढ़े तो चतुर्थ गुणस्थान में जाता है।
जो अप्रत्याख्यानावरणादि चारित्र मोह की प्रकृतियों का उदय होने से चारित्र धारण नहीं कर सकता मात्र जिनेन्द्र प्रणीत तत्त्वों का श्रद्धान करता है उसे अविरत सम्यग्दृष्टि कहते हैं। यह यद्यपि पांच इन्द्रियों के विषयों तथा त्रस—स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है तथापि पञ्चेन्द्रियों के विषयों को अन्याय पूर्वक सेवन नहीं करता। इसके प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भाव प्रकट होते हैं। यदि किसी िंसहादिक दुष्ट जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है तो वह समाधिमरण कर आयु पूर्ण करता है। प्रारम्भ के चार गुणस्थान चारों गतियों में हो सकते हैं, परन्तु सासादन गुणस्थान अपर्याप्त नारकियों के नहीं होता और मिश्र गुणस्थान सभी गतियों की पर्याप्तक अवस्था में ही होता है अपर्याप्तक अवस्था में नहीं होता। चतुर्थ गुणस्थान वाला मनुष्य पतन की अपेक्षा तीसरे, दूसरे और पहले गुणस्थान में आ सकता है और ऊपर चढ़ने की अपेक्षा पांचवें और सातवें गुणस्थान में जा सकता है। छठवें गुणस्थान में सातवें से गिरकर ही आ सकता है। इस गुणस्थान में औपशमिक, क्षायोपशमिक तथा क्षायिक तीनों सम्यग्दर्शन हो सकते हैं।
अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ का क्षयोपशम होने पर जिस सम्यग्दृष्टि जीव के हिसादि पांच पापों का एकदेश त्याग हो जाता है उसे देशविरत कहते हैं। प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय की हीनाधिकता के कारण देशविरत भाव के दर्शनादि प्रतिमारूप ११ भेद होते हैं। इसकी त्रस हिंसादि स्थूल पापों से विरति हो जाती है परन्तु स्थावर हिंसा आदि सूक्ष्म पापों से विरति नहीं हो पाती, इसलिये यह एक ही काल में विरता—विरत कहलाता है। यह गुणस्थान मनुष्य और तिर्यंच गति में ही होता है, देव और नरक गति में नहीं। मनुष्य और तिर्यंच गति में भी कर्मभूमिज मनुष्य और तिर्यंचों के ही होता है। भोग भूमिज मनुष्य—तिर्यंचों के नहीं। यदि कोई मनुष्य उपरितन गुणस्थानों में चढ़ता है तो सातवें गुणस्थान में जाता है, वहाँ से गिर कर छठवें गुणस्थान में आता है और पतन की अपेक्षा चतुर्थादि गुणस्थानों में आता है। करणानुयोग की पद्धति से यह देशविरत गुणस्थान उसी मनुष्य या तिर्यंच के होता है जिसके या तो नवीन आयु कर्म का बन्ध नहीं हुआ है और यदि हुआ है तो देवायु का ही बन्ध हुआ है। जिस जीव के देवायु के सिवाय अन्य आयु का बन्ध हुआ है उस जीव के उस पर्याय में देशव्रत धारण करने का भाव नहीं होता है। यही बात महाव्रत धारण करने की भी है। यहाँ तीनों सम्यग्दर्शन हो सकते हैं।
जहाँ प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने से हिंसादि पाँच पापों का सर्वदेश त्याग हो जाता है परन्तु संज्वलन कषाय का अपेक्षाकृत तीव्र उदय रहने से प्रमाद विद्यमान रहता है उसे प्रमत्तविरत कहते हैं। इस गुणस्थान को धारण करने वाला मनुष्य निग्र्रंथ मुद्रा का धारक होकर अट्ठाईस मूल गुणों का निर्दोष पालन करता है। यह गुणस्थान मात्र मनुष्य गति में होता है। मुनिव्रत धारण करने की इच्छा रखने वाला अविरत सम्यग्दृष्टि या देशविरत श्रावक पहले सप्तम गुणस्थान को प्राप्त होता है पश्चात् अन्तर्मुंहूर्तं के बाद पतन कर छठवें गुणस्थान में आता है, सीधा छठवें गुणस्थान को प्राप्त नहीं होता है। मुनि दीक्षा धारण करने का जिसका अभिप्राय होता है उसके प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय उत्तरोत्तर मन्द होने लगता है। उसी मन्द उदय के काल में वह आचार्य महाराज से मुनि दीक्षा देने की प्रार्थना करता है, उसकी योग्यता की जांच कर आचार्य महाराज उसे आज्ञा देते हैं। उसी मन्द उदय के काल में वह वस्त्रादि बाह्य परिग्रह का परित्याग कर केशलोंच करता है। तदनन्तर विशुद्धता के बढ़ने से सप्तम गुणस्थान को प्राप्त होता है पश्चात् संज्वलन के उदय में अपेक्षाकृत अधिकता आ जाने से छठवें गुणस्थान में आ जाता है। वस्त्र सहित अवस्था में सप्तम गुणस्थान नहीं होता। सातवें से छठवें गुणस्थान में आना और छठवें से सातवें गुणस्थान में जाना, यह क्रिया हजारों बार होती रहती है। परिणामों की ऐसी ही विचित्रता होती है। इस गुणस्थान में तीनों सम्यग्दर्शन हो सकते हैं।
संज्वलन क्रोध मान माया लोभ का उदय मन्द पड़ जाने पर जब प्रमाद का अभाव हो जाता है तब अप्रमत्त विरत नामक सातवां गुणस्थान प्रकट होता है। इसके स्वस्थान और सातिशय की अपेक्षा दो भेद हैं। जो छठवें और सातवें की भूमिका में ही झूलता रहता है वह स्वस्थान अप्रमत्त विरत है और जो आगे की श्रेणी चढ़ने का उपक्रम कर रहा है वह सातिशय अप्रमत्त विरत कहलाता है। उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी के भेद से श्रेणी के दो भेद हैं। चारित्र मोह का उपशम, जिसके फलस्वरूप होता है उसे उपशम श्रेणी कहते हैं और चारित्र मोहा का क्षय, जिसके फलस्वरूप होता है उसे क्षपक श्रेणी कहते हैं। क्षपक श्रेणी की प्राप्ति क्षायिक सम्यग्दृष्टि को ही होती है परन्तु उपशम श्रेणी की प्राप्ति द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों को हो सकती है। प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि का श्रेणी में प्रवेश नहीं होता। सप्तम गुणस्थान के सातिशय भेद में अध:करण नामक परिणाम होते हैं इसलिये इस गुणस्थान का दूसरा नाम अध:करण भी है। यहाँ विशुद्धि का वेग प्रति समय नवीन—नवीन नहीं होता है। अगले समय के परिणाम कुछ नये होते हैं और कुछ पिछले समय के परिणामों से मिलते—जुलते रहते हैं अतएव नाना जीवों की अपेक्षा इस गुणस्थान में सम समयवर्ती और विषम समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों ही रहती हैं। जैसे प्रथम समयवर्ती जीवों के परिणाम एक से लेकर दश तक होते हैं और दूसरे समयवर्ती जीवों के परिणाम पांच से लेकर पन्द्रह तक होते हैं। यहाँ पाँच से लेकर दश तक के परिणामों में समानता और शेष परिणामों में असमानता होती है।
जहाँ प्रत्येक समय अपूर्व—अपूर्व नये—नये करण—परिणाम होते हैं उसे अपूर्वकरण कहते हैं। इस गुणस्थान में पिछले गुणस्थान की अपेक्षा विशुद्धता का वेग बढ़ता जाता है। जैसे प्रथम समय में यदि एक से लेकर दश तक के परिणाम थे तो दूसरे समय में ग्यारह से लेकर बीस तक के परिणाम होंगे। यहाँ नाना जीवों की अपेक्षा सम समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता और असमानता दोनों होती है परन्तु भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में नियम से असमानता रहती है।
जहाँ एक काल में एक ही परिणाम होने से सम समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता ही रहती है और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणामों में असमानता ही रहती है उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं। इन अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों के प्रभाव से यह जीव चारित्र मोह की प्रकृतियों की स्थिति और अनुभाग को उत्तरोत्तर क्षीण करता जाता है। दशम गुणस्थान की अपेक्षा इस गुणस्थान में साम्परायकषाय बादर—स्थूल रहती है इसका दूसरा नाम बादरसाम्पराय भी है।
जहाँ संज्वलन कषाय सम्बन्धी लोभ का ही सूक्ष्म उदय शेष रहने से अत्यन्त सूक्ष्म कषाय होती है उसे सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। यह जीव यदि उपशमश्रेणी वाला है तो चारित्र मोह का उपशम कर चुकता है और यदि क्षपक श्रेणी वाला है तो बिलकुल क्षय कर चुकता है। इन श्रेणियों के गुणस्थानों में शुक्ल ध्यान का प्रथम भेद पृथक्त्ववितकविचार होता है, ऐसा उमास्वामी महाराज का कथन है परन्तु वीरसेन स्वामी का दशवें गुणस्थान तक धम्र्यध्यान होता है, ऐसा कथन है।
उपशमश्रेणी वाला जीव चारित्र मोह का उपशम कर उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है जिस प्रकार शरद ऋतु के तालाब का पानी ऊपर स्वच्छ हो जाता है उसी प्रकार इस गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम ऊपर स्वच्छ हो जाते हैं परन्तु सत्ता में मोह कर्म के विद्यमान रहने से अन्तर्मुहूर्त बाद नियम से मलिन हो जाते हैं। इस गुणस्थान में जीव के औपशमिक यथाख्यातचारित्र प्रकट होता है। उसकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही होती है उसके बाद नियम से गिरकर नीचे आता है।
जिसमें मोह कर्म का सर्वथा क्षय हो जाता है उसे क्षीण मोह कहते हैं। क्षपक श्रेणी वाला जीव दशवें गुणस्थान के बाद सीधा क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त होता है। यहाँ जीव क्षायिक यथा—ख्यातचारित्र को प्राप्त होता है और दूसरे शुक्ल ध्यान—एकत्ववितर्वं के प्रभाव से शेष घातिया कर्मो तथा नाम कर्म की तेरह प्रकृतियों का क्षय करता है। यह जीव अन्तर्मुहूर्त के भीतर नियम से केवलज्ञानी बनकर अरहन्त पद को प्राप्त होता है।
जो योग से सहित केवली जिनेन्द्र हैं उन्हें संयोग केवली जिन कहते हैं। चार घातिया कर्मों का क्षय हो जाने से यह गुणस्थान प्राप्त होता है। यहाँ से अरहन्त संज्ञा प्राप्त हो जाती है। तीर्थंकरों की समवसरण की रचना होती है तथा दिव्यध्वनि खिरती है सामान्य केवलियों की गन्ध कुटी की रचना होती है, और दिव्यध्वनि भी खिरती है। उपसर्ग केवलियों और मूक केवलियों की दिव्यध्वनि नहीं खिरती। केवली भगवान् की दिव्यध्वनि तथा विहाररूप क्रिया बिना इच्छा के होती है। इस गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामका तीसरा शुक्ल ध्यान होता है जिससे बहुत भारी निर्जरा होती है परन्तु क्षय किसी प्रकृति का नहीं होता है। श्री वीरसेनाचार्य के मतानुसार इस तीसरे पाये का फल योग निरोध है। इस गुणस्थान में जीव अन्तर्मुहूर्त से लेकर देशोन कोटी वर्ष पूर्व तक रहता है।
जिसमें योगों का सर्वथा अभाव हो जाता है उसे अयोग केवली जिन कहते हैं। इस गुणस्थान में शुक्ल ध्यान का चौथा भेद व्युपरतक्रियानिर्वित प्रकट होता है उसके प्रभाव से उपान्त्य समय में ७२ और अन्त्य समय में १३ प्रकृतियों का क्षय करके यह जीव निर्वाणधाम को प्राप्त होता है। इस गुणस्थान का काल अ, इ, उ, ऋ, ऌ इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण काल के बराबर है। मध्य लोक से सिद्धालय तक पहुँचने में एक समय लगता है। लोक के अन्त में तनुवातवलय का उपरितन पांच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण क्षेत्र सिद्धालय कहलाता है, उसी में सब सिद्धों का निवास रहता है। सिद्धों की जघन्यतम अवगाहना साढ़े तीन हाथ की और उत्कृष्टतम अवगाहना पांच सौ पच्चीस धनुष की रहती है। इससे कम या अधिक अवगाहनावाले मनुष्यों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। ये गुणस्थान संसारी जीवों की अशुद्ध परिणति रूप ही हैं, अत: सिद्ध भगवान् इनसे परे होते हैं । वे संसार में कभी वापस नहीं आते हैं और अनंत काल तक सिद्धशिला पर शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं ।