(गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से एक सैद्धातक वार्ता)
चन्दनामती – पूज्य माताजी! आज मैं आपसे जानना चाहती हूँ कि गुणस्थान किसे कहते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – इसके विषय में मैं तुम्हें बताती हूँ-दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम आदि अवस्था के होने पर जीव के जो परिणाम होते हैं, उन परिणामों को गुणस्थान कहते हैं। जैसा कि गोम्मटसार जीवकाण्ड में आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी कहा है-
जेहिं दु लक्खिज्जंते उदयादिसु संभवेहिं भावेहिं। जीवा ते गुणसण्णा णिद्दिट्टा सव्वदरसीहिं।।४।।
अर्थात् दर्शनमोहनीय आदि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्था के होने पर होने वाले जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते हैं, उन जीवों को सर्वज्ञदेव ने गुणस्थान वाला और उन परिणामों को गुणस्थान कहा है।
चन्दनामती- ये परिणाम कैसे बनते हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – मोह और योग के निमित्त से परिणाम बनते हैं। उन्हीं का नाम गुणस्थान है।
चन्दनामती – गुणस्थान के कितने भेद होते हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी – गुणस्थान के १४ भेद होते हैं- १. मिथ्यात्व २. सासादन ३. मिश्र ४. अविरत सम्यग्दृष्टि ५. देशविरत ६. प्रमत्तविरत ७. अप्रमत्तविरत ८. अपूर्वकरण ९. निवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसांपराय ११. उपशांतमोह १२. क्षीणमोह १३. सयोगकेवलीजिन १४. अयोगकेवलीजिन ”
चन्दनामती – इन गुणस्थानों की पहचान क्या है ?
श्री ज्ञानमती माताजी- गुणस्थान तो परिणामों के बल पर ही बदलते हैं अत: बाह्य रूप से तो उनकी पहचान हम और आप कर नहीं सकते । यह तो केवली- श्रुतकेवली के गम्य व्यवस्था है। फिर भी इन गुणस्थानों के लक्षण धवला रथ तथा गोम्मटसार में बताए हैं। उन्हीं के अनुसार यहाँ सभी गुणस्थानों के लक्षण बताए जा रहे हैं-
१. मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से होने वाले तत्त्वार्थ के अश्रद्धान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान वाले की स्थूल बाह्य पहचान यह है कि इसे सच्चा धर्म अच्छा नहीं लगता है।
२. उपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मुहूर्त काल में जब कम से कम एक समय या अधिक से अधिक छह आवली प्रमाण काल शेष रहे उतने काल में अनंतानुबन्धी क्रोधादि चार कषाय में से किसी एक का उदय आ जाने से सम्यक्त्व की विराधना हो जाने पर सासादन गुणस्थान होता है। इसमे जीव सम्यक्त्व से तो गिर गया है किन्तु मिथ्यात्व में अभी नहीं पहुँचा है इसीलिए इसका नाम सासादन है। इसका काल बहुत थोड़ा है।
३. सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व रूप परिणाम न होकर जो मिश्र रूप परिणाम होते है उसे मिश्रगुणस्थान कहते हैं।
४. दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय के उपशम आदि के होने पर जीव का जो तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप परिणाम होता है वह अविरत सम्यक्त्व नाम का चतुर्थ गुणस्थान है। सम्यक्त्व के तीन भेद हैं-उपशम, क्षायिक और क्षायोपशमिक या वेदक। इन तीनों का लक्षण इस प्रकार है- दर्शनमोहनीय की तीन और अनन्तानुबन्धी की चार ऐसी सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यग्दर्शन और क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से क्षायोपशमिक या वेदक सम्यग्दर्शन होता है। इस चतुर्थ गुणस्थान वाला जीव जिनेन्द्र कथित प्रवचन का श्रद्धान तो करता है परन्तु इन्द्रियों के विषय आदि से विरक्त नहीं होता है इसलिए इसका ‘‘अविरत सम्यग्दृष्टि’’ यह नाम सार्थक है।
५. सम्यग्दृष्टि के अणुव्रत आदि एक देशव्रत रूप परिणाम को देशविरत गुणस्थान कहते हैं। देशव्रती जीव के प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से महाव्रत रूप पूर्ण संयम नहीं होता है।यह जीव त्रसहिंसा का त्यागी होता है तथा आरंभादि के निमित्त से स्थावर हिंसा को छोड़नें में असमर्थ रहता है इसलिए इस गुणस्थान का नाम विरताविरत भी है।
६. प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से सकल संयम रूप मुनिव्रत तो हो चुके हैं। किन्तु संज्वलन कषाय और नोकषाय के उदय से संयम में मल उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी आ जाता है अत: इस गुणस्थान को प्रमत्तविरत कहते हैं। यह गुणस्थान केवल दिगम्बर मुनियों के ही होता है अन्य किसी के नहीं।
७. संज्वलन कषाय और नोकषाय का मन्द उदय होने से जब संयमी मुनि के प्रमाद रहित संयमभाव होता है तब उनके अप्रमत्तविरत गुणस्थान प्रगट होता है। इसके दो भेद हैं-स्वस्थान अप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त। जब मुनि शरीर और आत्मा के भेद विज्ञान में तथा ध्यान में लीन रहते हैं तब स्वस्थान अप्रमत्त होता है और जब श्रेणी के सन्मुख होते हुए ध्यान में लीन होते हैं तब सातिशय अप्रमत्त गुणस्थान वाले मुनि हो सकते हैं, सातिशय अप्रमत्त परिणाम वाले नहीं हो सकते हैं।
८. जिस समय भावो की विशुद्धि से उत्तरोत्तर अपूर्व परिणाम होते जावें उस समय भावो को अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। इसमें भिन्न समयवर्ती मुनि के परिणाम विसट्टश ही होते हैं तथा एक समयवर्ती जीवो के परिणाम सदृश भी हो सकते हैं विसदृश भी हो सकते हैं।
९. जिस गुणस्थान में एक समयवर्ती नाना जीवों के परिणाम सदृश ही हों और भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम विसदृश ही हों उसको अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
१०. अत्यन्त सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त लोभ कषाय के उदय को अनुभव करते हुए, जीव के सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान होते हैं। ये आठवें, नवमें और दशवें तीनों गुणस्थान महामुनियों के शुक्लध्यान में ही होते हैं।
११. सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम होने से अत्यन्त निर्मल यथाख्यात चारित्र को धारण करने वाले मुनि के उपशांत मोह गुणस्थान होता है। इस गुणस्थान का काल समाप्त होने पर जीव मोहनीय का उदय आ जाने से नीचे के गुणस्थानों में आ जाता है या आयु कर्म समाप्त होने पर मृत्यु को प्राप्त करके सर्वार्थ सिद्धि स्वर्ग विमान में जन्म ले लेता है।
१२. मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से स्फटिक के निर्मल पात्र में रखे जल के सदृश निर्मल परिणाम वाले निग्र्रन्थ मुनि क्षीणकषाय नामक गुणस्थान वाले होते हैं।
१३. घातिया कर्म की ४७, अघातिया कर्म की १६ इस प्रकार ६३ प्रकृतियों के सर्वथा नाश हो जाने से केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। उस समय अनन्तचतुष्टय और नव केवललब्धि प्रगट हो जाती हैं किन्तु योग पाया जाता है, इसलिए वे अरिहंत परमात्मा सयोग केवलिजिन कहलाते हैं।
१४. सम्पूर्ण योगों से रहित, केवली भगवान अघाति कर्मों का नाश कर मुक्त होने से सम्मुख हुए अयोग केवलीजिन कहलाते हैं । इस गुणस्थान के अन्त में अरिहंत भगवान शेष ८५ प्रकृतियों को नष्ट करके सर्व कर्म रहित सिद्ध हो जाते हैं और एक समय में लोक के शिखर पर पहुंच जाते हैं। इस प्रकार यहाँ पर चौदहों गुणस्थान के संक्षिप्त लक्षण मैंने बताए हैं। विशेष जानकारी के लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड आदि ग्रंथ देखने चाहिए।
चन्दनामती – इन सभी गुणस्थानों की प्राप्ति कौन कर सकते हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी – मनुष्य गति में चौदहों गुणस्थान की प्राप्ति संभव है तथा तिर्यंच गति में प्रारंभ के पांच गुणस्थान हो सकते हैं और देवगति तथा नरकगति में प्रारंभ के चार गुणस्थान ही संभव है, इससे अधिक नहीं ।
चन्दनामती –क्या तिर्यंच देशव्रती बन सकता है ?
श्री ज्ञानमती माताजी – हाँ, पंचेन्द्रिय सैनी तिर्यंच किसी के सम्बोधन से अणुव्रती बनकर पंचम गुणस्थान वाला हो सकता है। जैसे शेर और हाथी आदि के उदाहरण पुराणों में पाये जाते हैं। हाँ, इतना अवश्य है कि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय एवं असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के केवल मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है। वे सम्यग्दर्शन या अणुव्रत धारण नहीं कर सकते हैं।
चन्दनामती – आज पंचम काल में मनुष्यों के कितने गुणस्थान संभव हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – पंचमकाल में प्रारम्भ के सात गुणस्थान मनुष्यों में संभव हैं। उनमें भी द्रव्य पुरूषवेदी जिसने मुनि दीक्षा धारण कर ली है, वह ही छठे-सातवें गुणस्थानवर्ती हो सकते हैं। शेष सभी श्रावक-श्राविकाएं पंचम गुणस्थान तक के हो अधिकारी होते हैं।
चन्दनामती- कौन से श्रावक पंचमगुणस्थानवर्ती हो सकते हैं ?
श्री ज्ञानमती माताजी- जो श्रावक-श्राविका देव शास्त्र गुरू की साक्षी से पाँच अणुव्रत या प्रतिमा आदि व्रतों को ग्रहण करते हैं वे पंचम गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा पंचम वाले की कर्मनिर्जरा अधिक होती है।
चन्दनामती- आर्यिकाओं के कौन सा गुणस्थान होता हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – आर्यिकाओं के पंचम गुणस्थान होता है क्योंकि आगम में ऐसा ही विधान है कि द्रव्य स्त्रीवेदी के पाँच गुणस्थान से अधिक नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार ऐलक, क्षुल्लक और क्षुल्लिका के भी पंचम गुणस्थान ही होता है किन्तु ये तीनों तो उत्कृष्ट श्रावक की कोटि में आते हैं और आर्यिका उपचार महाव्रती कहलाती हैं। सागार धर्मामृत में कहा है कि कौपीन मात्र ग्रहण करने वाले ऐलक से भी आर्यिका पूज्य होती है क्योंकि वह स्त्री पर्याय की मजबूरी के कारण एक धोती पहनती हैं।
चन्दनामती – क्या पंचम गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की कर्म निर्जरा एक सदृश होती है या कुछ भेद हैं?
श्री ज्ञानमती माताजी – नाम की दृष्टि से तो आर्यिका, क्षुल्लक-ऐलक, श्रावक आदि सभी के पांचवां गुणस्थान ही माना है किन्तु सभी के भावों में तरतमता की अपेक्षा भेद है इसी प्रकार उनकी कर्मनिर्जरा में भी महान अन्तर पड़ता है। आर्यिका की तो सारी चर्या, दीक्षाविधि, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित आदि मुनि के समान ही बताया है। इसीलिए उन्हें आर्यिका की संज्ञा प्रदान की गई है न कि श्राविका शब्द से। नाना जीवों के परिणामों की अपेक्षा इस गुणस्थान के असंख्यात लोक प्रमाण भेद भी होते हैं। यहाँ संक्षेप में यही समझना कि पंचमकाल के अंत तक होने वाले भावलिंगी दिगम्बर मुनियों के छठा-सातवां गुणस्थान एवं आर्यिका, व्रती श्रावक-श्राविकाओं के पांचवां गुणस्थान माना है।