द्रव्य में भेद करने वाले धर्म को गुण कहते है। जो द्रव्य को द्रव्यान्तर से पृथक करता है सो गुण है। द्रव्यों के सहभूत गुण सामान्य व विशेष के रूप से दो प्रकार के होते है। गुण शब्द के अनेक अर्थ है।
जैसे- उपादि गुण(रूप रस गंध स्पर्श इत्यादि गुण) में गुण का अर्थ रूपादि है। दो गुणा यवत्रिगुणा यव में गुण का अर्थ भाग है। गुणज्ञ साधु में या उपकारणज्ञ में उपकार अर्थ है। गुणवानदेश में द्रव्य अर्थ है, क्योंकि जिसमें गौयें या धान्य अच्छा उत्पन्न होता है वह देश गुणवान कहलाता है। द्वि गुण रज्जु ऋिगुणरज्जु में समान अवयव अर्थ है। गुणभूता वयम् में गौण अर्थ है। कर्मों के उदय उपशमादि से उत्पन्न जिन परिणामों से युक्त जो जीव देखे जाते है, वे उसीगुण संज्ञावाले कहे जाते है। सम्यग्दर्शनादि भी गुण है। संयम व संयमासंयम भी गुण कहे जाते है। गुणो के सहवर्ती होने से आत्मा भी गुण कह दिया जाता है। औदायिक औपशमिक आदि पाँच भाव भी गुण कहे गये हैं गुण का विस्तार विशेष भी कहा जाता है।स अणिमा महिमा आदि ऋद्धियां भी गुण कहे जाते है। स्निग्धत्व और रक्षत्व से बन्ध होता है। जघन्य गुण वाले पुद्गलों का बंध नही होता है। समान गुण होने पर तुल्य जातिवालों का बन्ध नही होता है। दो अधिक गुणवालों का बन्ध होता है। तुल्य शक्तयंशोका ज्ञान कराने के लिए गुणसाम्ययदका ग्रहण किया है। यह भाग अर्थ विवक्षित है। जिनके जघन्य गुण होते है वे जघन्य गुण कहलाते है। उनका बन्ध नही होता । एक गुण से जघन्य गुण ग्रहण किया जाता है। जो अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदों से निष्पन्न है। उसके ऊपर एक आदि अविभागी प्रतिच्छेदकी वृद्धि होने पर गुण की द्वितीयादि अवस्था विशेषों की द्वितीय गुण तृतीयगुण आदि संज्ञा होती है।