द्रव्य गुणों का आश्रय या आधार है। जो एक द्रव्य के आश्रय रहते हैं वे गुण हैं। पर्यायों का लक्षण द्रव्य व गुण, दोनों के आश्रित रहना है। णयरम्मि वण्णिदे जह ण वि, रण्णो वण्णणा कदा होदि। देहगुणे थुव्वंते, ण केवलिगुणा थुदा होंति।।
जिस प्रकार नगर का वर्णन करने से राज्य का वर्णन नहीं होता, उसी प्रकार शरीर के गुणों का वर्णन करने से शुद्धात्म स्वरूप केवलज्ञानी के गुणों का वर्णन नहीं हो सकता। दव्वेण विणा न गुणा, गुणेहि दव्वं विणा न संभवदि।
द्रव्य के बिना गुण नहीं होते हैं और गुण के बिना द्रव्य नहीं होते। नवं वयो न दोषाय, न गुणाय दशान्तरम्। नवोऽपीन्दुर्जनाह्लादी, दहत्यग्निर्जरन्नपि।।
यह मानना ठीक नहीं है कि नई उम्र (जवानी) दोष से युक्त एवं वृद्ध अवस्था गुणों से भरपूर होती है। क्या नव चन्द्र लोगों के मन को प्रसन्न नहीं करता और क्या पुरानी अग्नि जलाती नहीं ? भाव है, वस्तु में गुण देखना चाहिए, नया—पुरानापन नहीं। वरतरुणि सिहिण परिसंठियस्स हारस्स होइ जो सोहा। सिप्पीपुडम्मि न तहा ठाणेसु गुणा विसट्टंति।।
मुक्ताहार की जो शोभा श्रेष्ठ तरुणियों की शिखा पर होती है, वह सीप के संपुट में नहीं। वैसे ही गुण भी उपयुक्त स्थान पर ही शोभित होते हैं। मणहरवण्णं वि हु कण्णियार कुसुमं न एइ भमराली। रूवेण विंâ व कीरइ ? गुणेण छेया हरिज्जंति।।
कर्णिकार (कणेर) पुष्प का रंग सुन्दर है फिर भी भ्रमर की पंक्तियाँ उसकी ओर आर्किषत नहीं होती। रूप से क्या प्रयोजन ? बुद्धिमान तो गुणों से ही आर्किषत होते हैं।