वंद्या दिनादौ गुर्वाद्या विधिवत् विहितक्रियैः,
मध्यान्हे स्तुतिदेवैश्च सायं कृतप्रतिक्रमैः।।५४।। (अनगार ध.अ. ८)
प्रातः सामायिक के बाद विधिवत् कृतिकर्म करके आचार्य आदि की वंदना करें। मध्यान्ह में भी सामायिक के बाद कृतिकर्मपूर्वक गुरुओं की वंदना करें और सायंकाल में दैवसिक प्रतिक्रमण के बाद विधिवत् गुरुवंदना करें।
लघ्व्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वंद्यो गवासनात् ।
सैद्धान्तोंऽतःश्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्नुतिं विना।।३१।। अनगारधर्मा. अ. ९
जब आचार्यदेव बिना किसी व्यासंग के सुखपूर्वक अपने आसन पर स्थित हों तब मुनि और आर्यिकायें गवासन से बैठकर गुरु से अनुज्ञा लेकर लघु सिद्ध और लघु आचार्य भक्ति पढ़कर आचार्य की वंदना करें यदि आचार्य सिद्धांतवित् हैं तो मध्य में लघु श्रुतभक्ति भी करें अर्थात् लघु सिद्ध, श्रुत और आचार्यभक्तिपूर्वक वंदना करें। अन्य मुनियों की मात्र लघु सिद्धभक्ति पढ़कर वंदना करें और उपाध्याय मुनि की लघु सिद्ध व श्रुतभक्ति पढ़कर वंदना करें।आर्यिकायें भी आचार्य के सदृश ही गणिनी आर्यिका की कृतिकर्मपूर्वक वंदना करती हैं।यह त्रिकाल वंदना की विधि है। इससे अतिरिक्त सम्पूर्ण क्रियाओं के-स्वाध्याय, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि के प्रारंभ में बाहर आने-जाने आदि में गवासन से बैठकर मात्र नमोऽस्तु शब्द बोलकर वंदना करनी चाहिए१’’तथा विशेष कार्यों में कृतिकर्म-विधिपूर्वक वंदना करनी चाहिए।
मूलाचार में कहा है कि-
आइरिय उवज्झायाणं पव्वत्तयत्थेर-गणधरादीणं।
एदेसिं किदियम्मं कादव्वं णिज्जरट्ठाए।।५९३।।
आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर इन पांचों प्रकार के गुरुओं की कर्मों की निर्जरा के लिए कृतिकर्म पूर्वक वंदना करना चाहिए। आगे भी कहा है कि जब ये गुरु अपने आसन पर स्थित हों, शांतचित्त हों एवं सन्मुख मुख किये हों उस समय उनकी अनुज्ञा लेकर बुद्धिमान मुनि कृतिकर्म का प्रयोग करें। अर्थात् ‘हे भगवन्! या हे आचार्य देव! मैं वंदना करूंगा’ ऐसी विज्ञापना द्वारा गुरु को सूचित करके वंदना विधि प्रारंभ करें।’’इस कथन से यह सिद्ध हो जाता है कि गुरुवंदना में भी कृतिकर्म विधि का प्रयोग करना चाहिए। कृतिकर्म का लक्षण पहले बता चुके हैं।