व्रतादानव्रतत्याग: कार्यो गुरुसमक्षत:।
नो चेत्तन्निष्फलं ज्ञेयं कुत: शिक्षादिकं भवेत्।।
यो स्वयं व्रतमादत्ते स्वयं चापि विमुञ्चति।
तद्व्रतं निष्फलं ज्ञेयं साक्ष्याभावात् कुत: फलम्।।
गुरुप्रद्दिष्टं नियमं सर्वकार्याणि साधयेत्।
यथा च मृत्तिकाद्रोण: विद्यादानपरो भवेत्।।
गुर्वभावतया त्यक्तं व्रतं किं कार्यकृद् भवेत्।
केवलं मृतिकावेश्म किं कुर्यात् कर्तृवर्जितम्।।
अतो व्रतोपदेशस्तु ग्राह्यो गुर्वाननात् खलु।
त्याज्यश्चापि विशेषेण तस्य सातिशया पुन:।।
क्रममुल्लंघ्य यो नारी नरो वा गच्छति स्वयम्।
स एव नरकं याति जिनाज्ञागुरुलोपत:।
अर्थ-गुरु के समक्ष से ही व्रतों का ग्रहण और व्रतों का त्याग करना चाहिए। गुरु की साक्षी के बिना ग्रहण किये और त्यागे व्रत निष्फल होते हैं अत: उन व्रतों से धन-धान्य, शिक्षा आदि फलों की प्राप्ति नहीं हो सकती है, जो स्वयं व्रतों को ग्रहण करता है और स्वयं ही व्रतों को छोड़ देता है, उसके व्रत निष्फल हो जाते हैं। गुरु की साक्षी न होने से व्रतों का क्या फल होगा? अर्थात् कुछ भी नहीं। गुरु से यथाविधि ग्रहण किये गये व्रत नियम ही सभी कार्यों को सिद्ध कर सकते हैं। जैसे-भिल्लराज द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर उसे गुरु मानकर विद्या-साधन करता था, उसे इस मृत्तिकामय गुरु की कृपा से विद्याएँ सिद्ध हो गई थीं, इस प्रकार गुरु की कृपा से ही व्रत सफल होते हैं। बिना गुरु की भावना के ग्रहण किये गये व्रत कुछ भी कार्यकारी नहीं हो सकते हैं। जैसे मिट्टी का घर बिना कर्त्ता के निरर्थक है, उसी प्रकार गुरु के साक्ष्य के बिना त्यक्त व्रत भी निष्फल हैं। अतएव गुरु के मुख से व्रतों को ग्रहण करना चाहिए तथा उन्हीं की साक्षीपूर्वक व्रतों को छोड़ना चाहिए। जो स्त्री या पुरुष क्रम का उल्लंघन कर स्वेच्छा से व्रत करते हैं, वे गुरु की अवहेलना एवं जिनाज्ञा का लोप करने के कारण नरक में जाते हैं।विवेचन-व्रत सर्वदा गुरु के सामने जाकर ग्रहण करने चाहिए। यदि गुरु न मिलें तो किसी तत्त्वज्ञ विद्वान्, ब्रह्मचारी, व्रती या अन्य धर्मात्मा से व्रत लेना चाहिए तथा व्रतों को गुरु या विद्वान्, ब्रह्मचारी के समक्ष छोड़ना भी चाहिए। यदि गुरु, विद्वान्, ब्रह्मचारी आदि का सान्निध्य भी प्राप्त न हो सके, तो जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के सामने ग्रहण करने तथा छोड़ने चाहिए। बिना साक्ष्य के व्रतों का यथार्थ फल प्राप्त नहीं होता है।