वे गुरु, पिता व मित्र निन्दनीय या शत्रु सदृश हैं, जो ईष्र्यावश अपने बहुदोषी शिष्य, पुत्र व मित्र के दोष दूसरों के समक्ष प्रकट करते हैं और उसे नैतिक शिक्षण नहीं देते। न विना यानपात्रेण तरितुं शक्यतेऽर्णव:। नर्ते गुरूपदेशाच्च सुतरोऽयं भवार्णव:।।
जैसे जहाज के बिना समुद्र को पार नहीं किया जा सकता, वैसे ही गुरु के मार्गदर्शन (गुरु की कृपा) के बिना संसार—सागर का पार पाना बहुत कठिन है। *गुरु की एक डांट पिता के सौ प्यार से बढ़कर है “