मौर्य सम्राट ‘चन्द्रगुप्त मुनिराज’ श्रुतकेवली श्री भद्रबाहु की समाधि के पश्चात् स्थापित गुरूचरण की भक्ति करते हुए बारह वर्षों तक वन में रहे, जिसके प्रभाव से देवों ने वन में ही नगर बसाकर उनको आहार दान दिया। जब संघ वापस आया तब उनमें से एक मुनि आहार के बाद कमंडलु भूल आये, सो मध्यान्ह में लेने गये, तब वहाँ वन में कमंडलु पेड़ पर लटकता हुआ देखा।
इस घटना से यह मालूम हुआ कि चन्द्रगुप्त मुनिराज की गुरू-भक्ति से प्रसन्न होकर देवों ने आहार कराया था। उस समय चन्द्रगुप्त ने प्रायश्चित किया क्योंकि जैन मुनि देवों के हाथ से आहार नहीं लेते हैं।
प्रिय बालकों! जब गुरू-भक्ति से मुक्ति तक मिल सकती है तब देवता भक्ति करने लगें, यह कोई बड़ी बात नहीं है।