आचार्य श्री पूज्यपाद स्वामी ने इन पंक्तियों में बड़ी सुन्दर नीति बतलाई है-‘‘अज्ञानी की उपासना-संगति से प्राणी अज्ञान प्राप्त करता है तथा ज्ञानी की उपासना से ज्ञान प्राप्त करता है। क्योंकि ‘जिसके पास जो कुछ है वह वही वस्तु प्रदान करता है’ यह सुप्रसिद्ध बात है।
आप लोग तो दिन-रात यह अनुभव करते होंगे कि आपका बच्चा यदि बुरी संगति में फंस जाता है तो उसका उन्नति मार्ग अवरुद्ध हो जाता है और आप अपने बच्चे को समझा-बुझाकर, डाँट-फटकारकर उसे बुरी संगति से हटाने का प्रयास भी करते हैं। बालक की बात तो जाने दीजिए, बड़े-बड़े महापुरुष भी दुर्जनों की संगति से पथ भ्रष्ट भी होते देखे जाते हैं। इसीलिए कहा गया है कि आप अच्छे लोगों के साथ उठें-बैठें और दोस्ती करें ताकि कुछ ज्ञान की बातें जान सके।
होटल के गंदे वातावरण, शराब की दुकानों, वेश्यालयों, जुआरियों और सिनेमा घरों से आज तक क्या किसी ने कोई नसीहत भी प्राप्त की है? यदि इन स्थानों पर उच्चादर्श मिल जाते तो बड़े-बड़े कॉलेज, विश्वविद्यालय खोलने की सरकार को आवश्यकता ही न पड़ती। तत्त्वार्थसूत्र में एक छोटा सा सूत्र है-‘‘द्रव्याश्रया: निर्गुणा गुणा:’’ जिसका अर्थ है जो द्रव्यों के आश्रित रहते हैं वे गुण हैं। ये गुण स्वयं में निर्गुण हैं अर्थात् गुणों में गुण नहीं रहते हैं।
आज कुछ विद्वान ऐसा भी अर्थ कर देते हैं। गुणी द्रव्य के आश्रय से निर्गुण द्रव्य भी गुणी बन जाता है तथा ऐसा भी कहते देखे जाते हैं कि द्रव्य-धन के आश्रय से निर्गुणी-अज्ञानी (अनपढ़) भी गुणी महान बन जाता है। क्योंकि ‘बाप बड़ा न भैय्या सबसे बड़ा रूपय्या’’ यह संसार में कहावत ही है। अनेक धनी सेठ भी ऐसे ही देखे जाते हैं-अर्थात् उन्हें कुछ ज्ञान न होते हुए भी समाज में आदर की दृष्टि से देखा जाता है क्योंकि वे लखपति, करोड़पति हैं।
लक्ष्मी एवं सरस्वती का परिचय
इसके विपरीत आप देखें कि पैसे के बिना ज्ञानी पुरुष की कोई कीमत नहीं होती है। लोग कहते हैं कि ‘‘लक्ष्मी और सरस्वती का आपस में वैर है’’ ज्ञानी-विद्वान के पास लक्ष्मी नहीं होती और धनवान के पास सरस्वती का वास-ज्ञान नहीं होता। आज हमारी समाज से विद्वानों की परम्परा समाप्त सी हो रही है
आज का श्रीमान हमारे विद्वान् का मूल्यांकन नहीं करता इसीलिए लोग प्रोफेसर बनना पंसद करते हैं शास्त्री और आचार्य नहीं बनना चाहते। जब तक हमारे पण्डितों में धन का लालच नहीं था तब तक तो उनकी विद्वत्ता शुद्ध रहती थी अब लालच आ जाने से उस विद्वत्ता ने दिखावे का बाना पहन लिया है।
पूज्यपाद स्वामी ने बहुत सोच-समझकर ही यह श्लोक बनाया है कि जो वस्तु जिसके पास है ही नहीं, वह दूसरे को दे कैसे सकता है? कभी नहीं दे सकता है। हम साधु हैं, हमारे पास केवल पिच्छी-कमण्डलु है वही आपको दे सकते हैं लेकिन आप हमसे मांगते ही नहीं हैं। आप तो भगवान के पास जाकर मांगते हैं, क्या?
‘रागादिक दोष हरीजे, परमातम निज पद दीजे’ शायद आप स्वयं नहीं जानते कि मैं मांग क्या रहा हूँ? भगवान तो कुछ बोलते नहीं अत: उनसे चाहे जो चीज मांग लो। वे कथंचित् देते भी हैं क्योंकि उनकी भक्ति से समस्त कार्य सिद्ध हो जाते हैं परन्तु अगर आप हम लोगों के सामने यह एक बार भी कह दें कि ‘गुरुवर निज पद दीजे’ तो हमारे पास सब कुछ तैयार हैं समझे (मंद मुस्कान), इसीलिए हम एक पिच्छी-कमण्डलु हमेशा तैयार रखते हैं।
गुरु के सानिध्य का फल
चलो, कोई बात नहीं! कम से कम आप वैसा बनें नहीं तो भी ज्ञानियों की संगति ही आपको ज्ञानी तो बना ही देगी। गुरुओं का तो एक क्षण का सानिध्य भी संसार सागर से पार करने वाला होता है। उत्तरपुराण में एक कथानक आया है- एक ब्राह्मण अपनी गरीबी से तंग आकर आत्महत्या करने के भाव से एक पर्वत की चोटी पर चढ़ गया। वहाँ खड़े होकर वह बार-बार नीचे देखता, डर के मारे कूद नहीं पाता।
मरना कोई हँसी खेल तो है नहीं, जो आत्महत्या करने की सोचते हैं वे भी बार-बार सोचते अवश्य होंगे। वह बेचारा ब्राह्मण भी जीवन से परेशान होकर मरना तो चाहता था किन्तु पर्वत की तलहटी देखकर काँप जाता था कि कैसे चोट सहन करूँगा। उसी पर्वत की तलहटी में एक अवधिज्ञानी मुनिराज के पास दो मुनि-शिष्य पढ़ रहे थे।
वे बार-बार उस मनुष्याकार परछाई को देखकर सोचने लगे कि पर्वत पर कौन है? उन्होंने गुरु से पूछा-भगवन्! यहाँ किसी मनुष्य की परछाई दिखती है फिर लुप्त हो जाती है, आखिर इतने ऊँचे पर्वत पर कौन सा मनुष्य हो सकता है? गुरु ने अपने दिव्य ज्ञान से बतलाया कि यह एक ब्राह्मण मनुष्य है, अपनी निर्धनता से घबराकर आत्महत्या के विचार से पर्वत पर चढ़ा है
लेकिन इसके हृदय में मरने का भय व्याप्त है इसलिए बार-बार नीचे देखकर पीछे हट जाता है। उन मुनिराज ने यह भी बताया कि कालांतर में यह तुम दोनों का पिता होने वाला है तुम इसके पुत्र बनोगे। यह भविष्यवाणी सुनकर दोनों मुनियों के हृदय में धर्मप्रेम उमड़ पड़ा और वे पर्वत के ऊपर जाकर उस ब्राह्मण को समझाकर गुरु के पास ले आये।
कुछ दिन गुरुचरणों में रहने से, उनके उपदेशों से उसके हृदय में शान्ति उत्पन्न हुई और वैराग्य भाव से उसने मुनि दीक्षा धारण कर ली। घोरातिघोर तपश्चरण करके समाधिमरण से उन्होंने स्वर्ग प्राप्त किया। कालान्तर में वह ब्राह्मण का जीव वसुदेव हुआ और वे दोनों मुनियों के जीव उसके बलभद्र और नारायण श्रीकृष्ण नाम के पुत्र हुए।
गुरु संगति का प्रभाव
यह था क्षण भर गुरु संगति का प्रभाव। कहाँ तो आत्महत्या जैसे निंद्य परिणामों के द्वारा तीव्र पाप बंध कर रहा था और कहाँ मुनि बन कर कल्याण कर लिया। आत्महत्या करने वाला तो नरक निगोदों के दु:ख भोगता ही है, आत्महत्या का विचार करने वाला प्राणी भी अनेक बार गर्भ में गल-गलकर मरता है, ऐसा आगम में बतलाया है।
अत: आत्मघातियों को विचार करना चाहिए कि जिस दु:ख से छूटने के लिए तुम विष खाते हो, फांसी लगाते हो, विषैली दवाइयाँ खाकर अपने जीवन का अन्त करना चाहते हो, उनका अंत कहाँ हुआ, उससे भी अधिक दु:खों को तुम आमंत्रित कर रहे हो। हे भव्य प्राणियों! आत्महत्या जैसे घ्रणित शब्दों को तुम जीवन से निकाल दो, धर्म की शरण में आओ यह तुम जैसे दुखियों की रक्षा करने वाला अकारणबंधु है।
मानव एक विज्ञ प्राणी है जो आज आकाश की ऊँचाइयों को छू रहा है वह ऐसे निंद्य विचारों की ओर जाने का प्रयास क्यों करता है? ऐसी कौन सी मजबूरियाँ हैं उसके जीवन की? इन पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि मानव की विकृत बुद्धि का कुप्रभाव ही उसके अमूल्य जीवन को संसार के गड्ढे में धक्का दे देकर गिरा रहा है।
यह जीव अनादिकाल से १४ राजू प्रमाण लोक में भ्रमण कर रहा है इन तीनों लोकों में कोई भी ऐसा स्थान नहीं बचा जिसमें उसने जन्म न लिया हो। केवल सुमेरु पर्वत की जड़ में ८ प्रदेश ऐसे हैं जहाँ हम और आप कभी नहीं गए, बाकी सब जगह घूम चुके हैं। सिद्धशिला पर भी गए किन्तु सिद्ध बनकर नहीं, सूक्ष्म निगोदिया बनकर।
सिद्ध बनने के बाद तो जीव संसार में वापस आता नहीं है। गुरुणां गुरु चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज कहा करते थे-यदि तुम संसार भ्रमण से थके नहीं हो तो घूमते रहो चतुर्गति में, कोई रोकने वाला नहीं है। यदि भव भ्रमण से थकान आ गई हो, तो संयम ग्रहण करो, अणुव्रती बनो तभी चतुर्गति यात्रा समाप्त हो सकती है।