गुरू शब्द का अर्थ महान होता हैं। लोक में अध्यापको को गुरू कहते है। माता पिता भी गुरू कहलाते हैं । परन्तु धार्मिक प्रकरण में आचार्य, उपाध्याय, साधु को गुरू मानते है, क्योकि वे जीव को उपदेश देकर अथवा बिना उपदेश दिये ही केवल अपने जीवन का दर्शन कराकर कल्याण का वह सच्चा मार्ग बताते है जिसे पाकर वह सदा के लिए कृतकृत्य हो जाता है । इसके अतिरिक्त विरक्त चित्त शिक्षा गुरू परमगुरू आदि के भेद से गुरू कई प्रकार के होते है।
अर्हन्त भगवान परम गुरू है- अनन्त ज्ञानादि महान गुणों के द्वारा जो तीनों लोको में भी महान है वे भगवान अर्हन्त त्रिलोक गुरू है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बड़े बन चुके है, उनको गुरू कहते है, आचार्य उपाध्याय, साधु ये तीन परमेष्ठी गुरू कहलाते है। पांच महाव्रत धारी मद् का मथन करने वाले, क्रोध लोभ व भय को त्यागने वाले गुरू कहाते है। उन सिद्ध और अर्हंतोकी अवस्था के पहिले की अवस्था वाले उसी देव के रूपधारी छठे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक रहने वाले मुनि भी गुरू कहलाते है। क्योंकि वे भी भावी नयगमननय की अपेक्षा से उक्त गुरू की अवस्था विशेष को धारण करने वाले है। अगुरू नही वह गुरू यद्यपि सामान्य रूप से एक प्रकार का है। परन्तु सत् की विशेष अपेक्षा से तीन प्रकार का माना गया है। जैसे कि-अग्नित्व सामान्य से अग्नि एक प्रकार की होकर भी तृणकी, पत्रकी, लकड़ी की अग्नि इस प्रकार तीन प्रकार की कही जाती है।
उपकारी जनों को भी कदाचित् गुरू माना जाता है। उस रत्नद्वीप में जब चारणमुनिराज के समक्ष चारूदत्त व दो विद्याधर विनय पूर्वक बैठे थे, तब स्वर्ग लोक से दो देव आये, जिन्होने मुनि को छोड़कर पहले चारूदत्त को नमस्कार किया । देवों ने इसका कारण कहा कि इस चारूदत्त ने हम दोनो को जिनधर्म का उपदेश दिया। इसलिए यह हमारा साक्षात् गुरू है। यह समझिए यह कैसे ? इस प्रकार पूछने पर जो पहले बकरा का जीव था वह बोला कि हे विद्याधरो सुनिए मै अपनी कथा स्पष्ट कहता हूँ। महाबल के भी भव में भी वे मेरे स्वयं बुद्धमंत्री नामक गुरू हुए थे और आज इस भव में भी सम्यग्दर्शन देकर (प्रीतंकर मुनिराज के रूप में) विशेष गुरू हुए है। जो गुरू शिष्यों के चारित्र में लगते हुए अनेक दोषो को देखकर भी उनकी तरफ दुर्लक्ष्य करता है व उनके महत्व को न समझकर उन्हें छिपाता चलता है वह गुरू हमारा गुरू नही है। वे देष तो साफ न हो पाये हो और इतने मे ही यदि शिष्य का मरण हो गया तो वह गुरू पीछे से उस शिष्य का सुधार कैसे करेगा? किन्तु जो दुष्ट होकर भी उसके दोष प्रगट करता है वह उसका परम कल्याण करता है। इसलिए उससे अधिक और कौन उपकारी गुरू हो सकता है। जो जिसका हित करना चाहता है। वह उसको हित के कार्य में बलात्कार से प्रवृत्त करता है। जैसे हित करने वाली माता अपने रोते हुए भी बालक का मुंह फाड़कर उसे घी पिलाती है। उसी प्रकार आचार्य भी मायाचार धारण करने वाले क्षपक को जबरदस्ती दोषो की आलोचना करने में बाध्य करते है। तब वह दोष कहता है जिससे की उसका कल्याण होता है जैसेकि कड़वी औषधि पीने के अनन्तर रोगी का कल्याण होता है लातों से शिष्यों को ताड़ते हुए भी जो शिष्य को दोषो से अलिप्त रखता है वही गुरू हित करने वाला समझना चाहिए जो पुरूष आत्महित के साथ-साथ कटु व कङ्गोर शब्द बोलकर परिहत भी साधते है वे जगत में अतिशय दुर्लभ समझने चाहिए।
स्त्री को दीक्षा देने वाले गुरू की विशेषता- आर्यिकाओं का गणधर ऐसा होना चाहिए कि उत्तम क्षमादि धर्म जिसको प्रिय हो, दृढ़ धर्मवाला हो, धर्म में हर्ष करने वाला हो, पाप से डरता हो, सब तरह से शुद्ध हो, अखण्डित आचरण वाला हो दीक्षाशिक्षादि उपकारकर नया शिष्य बनाने व उसका उपकार करने में चतुर हो, सदा शुभ क्रिया युक्त हो, हितोपदेशी हो, गुणोंकर अगाध हो, परवादियों से दबने वाला न हो, थोड़ा बोलने वाला हो, अल्प विस्मय जिसके हो, बहुतकाल का दीक्षित हो, आचार प्रायश्चितादि ग्रंथ का जानने वाला हो, ऐसा आचार्य आर्यिकाओं को उपदेश दे सकता है, इन पूर्वकथित गुणों से रहित मुनि जो आर्यिकाओं का गणधरपना करता है उसे गणपोषण आदि चारकाल तक गच्छ आदि की विराधना होती है।