गुरू गौरव है, जहाँ गुण है वहाँ गुरू है । गुरू गरिमा का नाम है। हित—मित—प्रिय भाव का नाम गुरू है। धर्मज्ञ, धर्मकर्ता, धर्मपरायण एवं जो उपदेशक, ज्ञान—दर्शन—चारित्र मार्ग प्रदर्शक, यथा रूप में स्थित करने वाला, उत्तम पथ की ओर ले जाने वाला एवं अनन्य उपकारी गुरू होता है। हमारी संस्कृति में गुरू को विविध रूपों में देखा जाता है। जिसमें माता को सर्वोपरि गुरू कहा जाता है पिता भी गुरू है, हमारे पितामह, दादा— दादी, भाई—भगिनी, बुआ, परिजन एवं कुटुम्ब के बड़े समादरणीय गुरू है। उनके निर्देश नई दिशा देते हैं, वे परिवार की प्रथम पाठशाला के शिक्षक है जो सिखलाते है वह जीवन—पर्यन्त विद्यमान रहता है।गुरू की एक आदर्श शाला में हम प्रवेश पाते हैं जब तब मिलती है विविध शिक्षाएँ, जिनसे हम अपनी जीविका का संचालन करते हैं, परिवार का भरण पोषण करते हैं और नए नए प्रयोगों के माध्यम से राज्य—राष्ट्र का हित करते हैं , गुरू वे हैं जो हमें साधना के मार्ग पर ले जाते हैं, बुराईयों से बचाते हैं और अच्छाइयों की ओर ले जाते हैं, इस जगत में जो भी गुणों का संचार करते हैं वे सभी गुरू है।प्रथम पाठशाला के गुरू—माता—पिता, कुटुम्ब के बड़े लोग आदि गुरू है। वे ऐसे गुरू है, जिनका उपकार जन्म—जन्मान्तर में भी भूल नहीं सकते हैं, जिस जननी ने हमें जन्म दिया, तब से लेकर युवा बनने तक वह गुरू रूप माता सदैव उपकारी रहती हैं। उसकी आँखों के आँसू का संचय कोई करे तो कई समुद्रों की गहराई से भर अधिक होंगे। माता का स्नेह रूपी वृक्ष अद्भुत एवं लोकोत्तर होता है । शास्त्रों में राजमाता, गुरूमाता, मित्र भार्या, पत्नि माता और निजमाता में पाँचो ही महत्वपूर्ण होती है। ये सभी हमारी रक्षा करती है। हमारा मनोबल बढ़ाती हैं। जन्म देनेवाली माता गर्भधारण, प्रसव शूल आदि को सहन करती है। वह पुत्र—पुत्री के संवर्धन में जो कष्ट सहन करती है वह हम कैसे भूल सकते हैं। वह दयालु माता ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, सीता—सावित्री आदि भी बना देती है। युग के आदि प्रवर्तक ऋषभ ने मातृकुल की संपदा को समझकर सर्वप्रथम ब्राह्मी और सुन्दरी को चौसठ कलाओं में पारंगत किया। तब से लेकर अब तक मातृ शक्ति को पुण्य माना जा रहा है। माता के साथ पिता भी गुरू है जो सभी तरह से पुत्र—पुत्री की रक्षा करता है। पितृ के पाँच रूप है—जन्मदाता, यज्ञोपवीतदाता, विद्यादाता, अन्नदाता, अभयदाता। ये सभी हमारी पाठशाला के पूज्य पुरूष है। शिक्षक है शिक्षाओं का गुरू—बालक —बालिका के विकास में शिक्षा का महत्वपूर्ण योगदान होता है। शिक्षण प्रांगण में अनेक परिवार के बालक होते हैं, वहाँ छोटा—बड़ा कोई नहीं होता है। बालक बालिका ऐसे प्रांगण में सुदृढ़ भाव पाता है, आनंदित होता है। सामूहिक रूप में सीखता है, लिखता है, पढ़ता है, बोलता है, खेलता है, और आपसी मन—मैत्री रूप हंस पर आरूढ हो ऊँचाई को प्राप्त करता है। शिक्षण प्रांगण में सभी गुरूओं का अभिवादन विनय की ओर ले जाता है, विनय से विद्या फलीभूत होती है वही पात्रता उठना—बैठना, बोलना आदि सिखाती है। बुद्धि विकास में हमारे शिक्षक जो उपकार करते हैं वह अपूर्व होता है। गणितज्ञ, वैज्ञानिक, भूवेत्ता आदि बनाने में उन्हीं का उपकार है वे शिक्षा के विविध शिक्षक अपने शिष्य को उच्च स्थान पर पाकर अपने पुत्र से भी अधिक प्रसन्न होते है। शिक्षा गुरू शिक्षक ही नहीं, अपितु हमारी आजीविका, हमारी कला, हमारी शिल्प, हमारी शक्ति, सम्मान आदि के महान् गुरू है, उनका गौरव हमारी गरीमा से जुड़ा है। बन्धु भी गुरू—बन्धु, जिन्हें सखा, मित्र आदि कहते हैं, वे न हो तो क्या हमारा यशोगान होगा! मित्र तो शरीर और आत्मा की तरह है। वे हित की योजना करते है, गुणों को प्रकट करते है, आपत्ति, व्याधि आने पर भी साथ नहीं छोड़ते हैं। मित्र तो हमारे सहोदर है, सत्पुरुष है, सज्जन है एवं हृदय की शल्य निकालने वाले होते है। प्रवास में विद्या, गृह में स्त्री,व्याधि में औषध और मृत्यु समय में धर्म मित्र है। आत्मोपकारी गुरू—गुरू ब्रह्मा, गुरू विष्णु, गुरू महेश्वर, गुरू बुद्ध, गुरू महावीर आदि भी है। ऋषिकल्प में राजर्षि, परमर्षि, देवर्षि और ब्रह्मर्षि आत्मोपकारी गुरू माने गए है। ये इच्छाओं से रहित आदि राग—द्वेष से मुक्त, हितोपदेशक, परिग्रह रहित आदि सच्चे गुरू स्व का जितना कल्याण करते हैं, उतना ही परकल्याण करते है। जो सच्चे गुरू होते हैं वे ज्ञानमार्ग दर्शनमार्ग, और चारित्रमार्ग से चन्द्र की तरह शीतल बनाते हैं। वे स्वयं आत्मस्वभाव में स्थित आचार्य, उपाध्याय एवं साधु निरंतर ही आत्म हित का उपदेश देते है। वे निर्दोष मार्ग पर ले जाते है। वे ऋषि, यति,मुनि या साधु जो भी है वे निर्मल वचन रूपी किरणों से तिमिर को हटाने का कार्य करते है। सद्गुरू का सम्यक मार्ग रत्नत्रय विशुद्धि की और ले जाता है। अषाढ़ मास पूर्णिमा पर साधक ऋषि, यति, मुनि आदि चतुर्विध संघ सहित चार माह तक जो उपकार करते हैं उससे चारित्र श्रेष्ठ बनता है। दूसरी और शिक्षण का प्रारंभ जिन शिक्षा गुरूओं के द्वारा किया जाता है वह भी आषाढ़ी पूर्णिमा से प्रारंभ होता है। इसलिए सभी गुणों के सागर गुरू है, उनका मान—सम्मान करना हमारा कर्तव्य है। आज भी शिष्य अपने गुरूओं की इस दिन इसलिए पूजा —सम्मान करते है कि गुरू हमारे गौरव है, उनका गुणानुवाद इस दिन करके हम अपने को कृत कृत्य करते हैं। गुरू का यह गौरव दिवस ज्ञान वृद्धि करता है। आओ ज्ञान संकल्प के लिए उनका वंदन करें।