मनुष्य जीवन में माता पिता और गुरु का महत्व विश्व भर में सर्वोपरि माना जाता है । माता पिता का इसलिये कि वे हमें जन्म देते हैं और गुरु इसलिये कि गुरू ही वास्तव में हमे मानव, इन्सान, मनुष्य बनाते है मनुष्यता, मानवीयता या इन्सानियत के संस्कार देते हैं। इस प्रकार गुरु हमे दूसरी बार जन्म देते हैं। भारत धर्म तथा संस्कृति प्रधान देश है और भारत ही क्या सारे विश्व में गुरू का स्थान ईश्वर के समान और कहीं कहीं तो ईश्वर से भी प्रथम पूज्यनीय बताया गया है। हमारी संस्कृति उन्हें केवल गुरु नहीं ‘‘ गुरू देव’’ कहती है। जैन धर्म में तो ‘‘गुरू की महिमा वरनी न जाय ‘‘ गुरूनाम जपों मन वचन काय‘‘ कहकर गुरू को पंच परमेष्ठि का स्थान दिया है। देव, शास्त्र, और गुरू की त्रिवेणी में करके ही मोक्ष महल में प्रवेश की पात्रता आती है और उसके फलस्वरूप संसार के आवागमन से मुक्ति मिलती है। गुरू हमारे जीवन से अज्ञान का अन्धकार मिटाकर एक नई दृष्टि देते हैं। उन्हीं की दृष्टि —यष्टि के सहारे हम ‘‘भव—वन’’ से सुरक्षित निकल कर इहलोक और परलोक सुधारते हैं—
अज्ञान तिमिरान्धानां ज्ञानांजन शलाकया । चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै: श्री गुरूवे नम:।।
गुरू की महिमा का वर्णन सात समुद्र की स्याही से भी सरस्वती, ब्रह्मा और वृहस्पति से भी? पूरी तरह नहीं किया जा सकता। आचार्य मानतुंग जैसे कवि कुलकमल ‘‘भक्तामर स्तोत्र’’ में अपने गुरु श्री भगवान के गुणों के समुद्र को पार करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहते हैं—
वत्तुंक गुणान्गुणसमुद्रशशांककान्तान् । कस्तेक्षमा सुरगुरू प्रतिमोपि बुध्या।।
कल्पान्तकालपवनोद्धत नक्रचक्रम् । को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ।।
फिर मेरा प्रयास तो उन्हीं आचार्य श्री के शब्दों में—
‘‘बालं विहाय जल संस्थितमिन्दुविम्ब। मन्य: क इच्छति जन:सहसा ग्रहीतुम्।।
चन्द्रमा को हाथ से छूने का बालवत् प्रयास ही है । केवल जैन धर्म में ही नहीं विश्व के सभी धर्मों, संस्कृतियों, विश्वासों में गुरू को अप्रतिम, सर्वोपरि, सर्वोच्च मान्यता और स्थान दिया गया है—
गुरुब्रह्मा गुरूविष्णु गुरूदेवो महेश्वर:। गुरू: साक्षात परम्ब्रह्म, तस्मै श्री गुरूवे नम:।।
निस्प्रह सन्त कबीर तो इस भावना से भी आगे निकल कर कहते है—
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागू पांय। बलिहारी गुरू आपकी गोविन्द दियो बताय।।
प्रेम और मैत्री को प्राथमिकता या जीवन का उद्देश्य समझने वाले ईसाई धर्म के आद्यगुरु ईसामसीह कहते हैं— ‘‘You must be born again. ’’Christmeant that you must be given a new birth by your Guru. The Guru must re-create you after first destroying you.’’That is why a Guru calls disciple who comes to Guru a’’ Children’’ कबीर दास जी इसी अेूrदब्ग्हु वाली बात को कुछ इस तरह कहते हैं—
जब ‘‘मैं’’ था तब गुरू नहीं, अब गुरू हैं मैं नहीं । प्रेम गली अति सांकरी, तो में दो न समाहिं।।
कबीरदास जी के ‘‘मैं’’ का अर्थ अहंकार है। अहंकार और गुरू एक साथ नहीं रह सकते। जीवन में गुरू का अप्रतिम स्थान है इतना कि समस्त वेद पुराण और धर्म ग्रन्थ की महिमा से भरे पड़े हैं—
गुरुदेवप्रसादेन लभ्यते ज्ञानलोचनम् । समस्त दृश्यते येन हस्तरेखेव निस्तुषय।।
गुरू द्वारा हमें ज्ञानरूपी नेत्र प्रदान किये जाते है जिससे हमें विश्व की समस्त वस्तुएं, स्थितियां और चराचर के क्रियाकलाप हाथ की रेखाओं की भांति स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं। वास्तविक जीवन शुरू करने के लिये हमें गुरू की आवश्यकता हैं। आंखों में नि:स्वार्थ प्रेम, हृदय में अपरिमित करुणा, शिष्यों की हिताकांक्षा, शुद्ध आचरण, अगाध अनुभव, स्वभाव में निरभिमानता, सरलता, शिशु जैसी निर्विकार छवि, ब्रह्मचर्य का दिव्य तेज और प्राणिमात्र के प्रति अहिंसा का भाव गुरू के गौरव को बढ़ाते है। गुरू शिष्य का संबंध आस्था और प्रेम का पवित्र संबंध है। यद्यपि इस संबंध में बन्धन छिपा हुआ है किन्तु गुरू शिक्षा का यह बन्धन भव—भव के कर्म बन्ध को काटने वाला है। गुरू अपने शिष्य को भौतिक जगत से ऊपर उठाकर भावजगत में स्थापित कर देते है और शिष्य भावजगत से अध्यात्म जगत में प्रवेश करने के लिये समर्थ हो जाता है। भावना की नींव करुणा है जो अन्तत: विश्व प्रेम के शिखर का आरोहण करती है। अध्यात्म जगत का प्रवेश द्वार निज आत्म तत्व का बोध है, जो शिष्य को साक्षी भाव, ज्ञान और चेतना के शिखर पर पहुँचाने में समर्थ होता है। उसे वैराग्य में ‘अहंकार, मम्कार, सुख—दुख, प्रिय—अप्रिय, राग—द्बेष, ग्रहण—त्याग जैसे सांसारिक द्वन्द्व शनै:—शनै: विलीन होकर एक अखण्ड चेतना और ज्ञान की ज्योति प्रकट हो जाती है। छह द्रव्य तथा सात तत्वों का मात्र शाब्दिक अर्थ उह्निष्ट नहीं है। उनका गूढ़ार्थ समझने की आवश्यकता है और इस आवश्यकता की पूर्ति केवल और केवल गुरू के पास हो सकती है होती है। जीव और पुद्गल, आत्मा और शरीर के इस शाश्वत द्वैत से अद्वैत की यात्रा गुरू द्वारा प्रदत्त पाथेय और दृष्टि के बिना और उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अहंकार के विसर्जन के सिवाय संभव नहीं।
किसी पत्थर की भी तकदीर बदल सकती है। शर्त ये है कि सलीके से तराशा जाये।।
अनगढ़ शिलाखण्डरूपी शिष्य के व्यक्तित्व में अवांछित—अनपेक्षित विकारी भाव को गुरू कुशल शिल्पी की भांति अपने ज्ञान की ‘‘पैनी छैनी’’ से निकाल कर अर्थात् अपनी तदबीर से शिष्य की तकदीर और तासीर बदल देते हैं। गुरू अपने शिष्य को जीवन—निर्वाह की संकीर्ण परिधि से निकाल कर जीवन निर्माण और उन्नत: जीवन से निर्वाण की राह पर पहुंचा देते हैं। गुरू एक अलौकिक चिकित्सक है जो कर्मरोग से पीड़ित अपने शिष्य को संयम साधना की औषधि से स्वस्थ कर देता है अपने समान स्वस्थ और ‘‘सुस्थ’’ बना लेता है— पारस में और गुरू में यही अन्तरों जान। पारस तो सोना करे गुरू करे आप समान।
गुरू बिन ज्ञान न ऊपजे गुरू बिन मिटे न दोष। गुरू बिन लखै न सत्य को गुरू बिन मिले न मोक्ष।।
गुरू पूर्णिमा के मंगल अवसर पर गुरू के संबंध में अपनी भावना को कागज पर उतारने को मन उद्यत है किन्तु गुरू के प्रति मेरी शृ्रद्धा इतनी व्यापक और गहरी है कि उस शृ्रद्धा की तेज वायु से मानस—सरोवर में उठती भावनाओं की उबाल तरंगों के कारण मैं गुरुगुण समुद्र के तल में बिखरे पड़े उनके गुण—मुक्ताओं को समेटने में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ। केवल यही कह पा रहा हूँ। कि —
न गुरोरधिंक तत्वं न गुरोरधिकं तप:। न गुरोरधिकं ज्ञानं, तस्मै श्री गुरूवे नम:।
ध्यानमूलं गुरोमूर्ति पूजामूलं गुरो: पदम्। मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलम् गुरो: कृपा।।
‘‘गुरू पूर्णिमा ’’ के प्रारंभ होने की कथा कहने से पूर्व निवेदन करना चाहता हूँ कि शिष्यत्व अहंकार विसर्जन का नाम है। गुरू पतित शिष्य को तो पावन बना सकते हैं देते हैं किंतु उस अभिमानी शिष्य का कल्याण नहीं पावन बना सकते हैं देते हैं किंतु उस अभिमानी शिष्य का कल्याण नहीं कर पाते जो स्वयं को विश्व का सर्वोच्च विद्वान समझता है। बुद्धिमान का अभिमान आस्था में तर्क उत्पन्न करता है क्योंकि तर्क की जननी बुद्धि होती है। इस अवसर पर गुरु शिष्य परम्परा के आघ उत्सव और शृ्रद्धा हृदय से उत्पन्न होती है। शृ्रद्धा के अभाव में भक्ति, भक्ति के अभाव में विनय और विनय के अभाव में गुरू—शिष्य का संबंध असम्भव है। गुरू शिष्य को ज्ञान से सम्पन्न करते हैं, ज्ञान ही अन्तत: मोक्ष सुख का कारण होता है—
विद्या ददाति विनयम् विनयात् याति पात्रताम्। पात्रत्वात् धनं आप्नोति, धनात् धर्म, तत: शाश्वत सुखम्
जैनागम में गुरू शिष्य परम्परा की उस मंगलकारी घटना के कारण ही कैवल्य प्राप्ति के पश्चात तीर्थंकर भगवान महावीर की वाणी उनके महान शिष्य गौतम गणधर के माध्यम से जन सामान्य को उपलब्ध हुई। आचार्य गुणभद्र स्वामी द्वारा विरचित उत्तरपुराण के ७४ वें पर्व में श्लोक क्रमांक ३४८ से ३७८ तक भगवान वर्धमान स्वामी के चरित्र के उस अंश का वर्णन किया गया है, जिसमें वैशाख शुक्ल दशमी के दिन अपराह्न काल में हस्त और उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के बीच चन्द्रमा के आने पर परिणामों की विशुद्धता बढ़ाते हुए वे क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ हुए और सयोगकेवली गुणस्थान के धारक हुए। सौधर्म इन्द्र द्वारा विधिवत् पूजन और धनपति कुबेर द्वारा समवसरण की रचना के पश्चात् भी भगवान की दिव्य ध्वनि ६६ दिन तक नहीं खिरी। सौधर्म इन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से प्रभु के मौन रहने का कारण जान लिया और योग्य गणधर की उपस्थिति के लिये प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया। इन्द्र को जब अपने अवधिज्ञान से ज्ञात हुआ कि भगवान की वाणी उपयुक्त गणधर के अभाव में नहीं खिर रही हैं तो उसने उस समय के श्रेष्ठतम विद्वान को इस पद के लिए बुलाना उचित समझा। काफी सोच विचार के पश्चात् इन्द्र ने गौतम ऋषि को बुलाने का निर्णय लिया क्योंकि—
एकोपि वङ्कामणिरि शिष्योलं गुरूजनस्य किं बहुभि:। काचशकलैरिवान्यैरू दण्डै: पात्रता शून्यै :।।
गुरूजन के लिये एक ही हीरे जैसा शिष्य पर्याप्त है कांच के टुकड़ों की भांति पात्रता शून्य ढेर सारे उद्दण्ड शिष्यों से क्या प्रयोजन है ? वर्धमान चरित्र के अनुसार वीर जिनेश्वर की दिव्यध्वनि के उत्पन्न न होने के कारण इन्द्र ने अपने अवधि ज्ञान से जानकर गौतम ग्राम वासी गोतम गोत्रीय सकल वेद वेदांग के ज्ञाता पारगामी महाज्ञानी विद्वान इन्द्रभूति को भगवान के समीप लाने के लिये गया। सौधर्म इन्द्र ने वृद्ध ब्राह्मण का रूप बनाया (उत्तरपुराण श्लोक ३५७,३५८) जो पग पग पर कांप रहा था। गौतम ऋषि की शाला में पहुंच कर इन्द्र ने कहा ‘‘ नर कोस्त्य शालायां सत्प्रयुत्तरदायक : (७६ गौतम चरित्र) इन्द्र ने गौतम ऋषि से कहा—
गुरूर्यो मे वृषग्राही ध्यानी सर्वार्थसाधक :। स च मां प्रतिनोवक्ति स्व—पर कार्यतत्पर:।।
(गौतम चरित्र ८०)
मेरे गुरू इस समय धर्म कार्य में लगे हुए हैं तथा ध्यान लगाकर मोक्ष पुरुषार्थ की साधना कर रहे हैं स्व तथा पर के उपकार करने में निमग्न हैं इससे वे मुझसे वार्ता नहीं कर रहे हैं। वृद्ध ब्राह्मणवेशी सौधर्म इन्द्र ने गौतम ऋषि से कहा ‘‘ हे विप्रवर आप बहुत ज्ञानी हैं आपके सदृश कोई अन्य विद्वान यहां आसपास के क्षेत्र में नहीं हैं। मेरे गुरू श्री महावीर इस समय मौन धारण किये हुए हैं अत: मैं इस श्लोक का अर्थ जानने के लिये आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। काव्य का अर्थ जान लेने से मेरी जीविका चल जायेगी, कितने ही भव्य पुरुषों का उपकार होगा और आप इस यश के भागीदार होंगे। ‘‘ महाअभिमानी गौतम ने वृद्ध से कहा— ‘‘रे वृद्ध यदि मैं तेरे काव्य का उचित अर्थ बता दूंगा तो तू मुझे इसके बदले में क्या देगा ?’’ इन्द्र ने कहा कि यदि आप मेरे श्लोक का समुचित अर्थ बता देंगे तो मैं आपका शिष्यत्व स्वीकार कर लूंगा। फिर ब्राह्मणवेशी इन्द्र ने विंâचित संकोच से धीमे स्वर में कहा कि यदि आप अर्थ नहीं बता पाये तो ? ब्राह्मण की बात सुनकर गौतम के अहंकार को भारी आघात पहुंचा। अपने ज्ञान पर अतिविश्वास के कारण तीख में भरकर बोला—यदि मै अर्थ नहीं बता सका तो अपने पांच सौ शिष्यों और अपने दोनों भाइयों के साथ अपना जगत्प्रसिद्ध एवं वेद—प्रतिपादित सनातन मत को छोड़ कर तुम्हारे गुरू का शिष्य बन जाऊंगा। तू अपना काव्य तो बता। तब इन्द्र ने कहा—
त्रैकाल्यं द्रव्य षट्कं सकल गतिगणा सत्पदार्था नवैव: । विश्वं पंचास्ति काया: व्रत समिति चिद: सप्त तत्वानि धर्मा:।।
सिद्धेर्माण: स्वरूपं विधिजनित फलं जीवषट्काय लेश्या। एतान् य: श्रद्धाति जिन वचन रतो मुक्ति गांभीरू भव्य:।।
इन्द्र के कहे गये उपरोक्त काव्य को सुनकर महाविद्वान गौतम आश्चर्य चकित रह गये। श्लोक का अर्थ और उसमें निहित सिद्धान्त गौतम ने अपने समस्त वेद, स्मृति पुराणों में कहीं नहीं पढ़े थे। गौतम ने विचार किया कि यदि मैं उत्तर नहीं दूंगा तो मैं पराजित हो जाऊंगा। मेरी प्रतिष्ठा घट जायेगी। इसलिये उसने बहाना बनाकर इन्द्र को टालना चाहा और कहा—अज्ञ ब्राह्मण मैं इस विषय में तुम्हारे साथ कोई विवाद नहीं करना चाहता, चलो मैं सीधे तुम्हारे गुरू से ही शास्त्रार्थ करूंगा।
गच्छ वो गुरू—सान्निध्य तव कृत्वेति निश्चयम् । जग्म तुस्तौ सुवेद्येशौ विश्वजन समावृतौ।।
इस प्रकार कह कर गौतम अपने पांच सौ शिष्यों तथा दोनों भाइयों — वायुभूति, अग्निभूति के साथ भगवान महावीर के दर्शनों को निकल पड़ा।
‘‘मानस्तम्भ समालोक्य मान तत्याज गौतम:। निजप्रशोभया येन विस्मितं भुवनत्रयम् ।।’’
भगवान के समवसरण के बाहर स्थापित महामनोज्ञ मानस्तम्भ को देख कर गौतम ऋषि का समस्त अहंकार और मान तत्काल ही स्वयमेव विगलित हो गया।
इति विचिंतितं तेन मही विस्मय वाटिका। यस्य गुरोरियं भूति: स विंâ केनापि जीयते।।९७।।
गौतम ऋषि विचारने लगे कि जिस गुरू की विश्व को विस्मय में डालने वाली ऐसी विभूति है उसे भला कौन जीत सकता है। गौतम ऋषि को इस प्रकार भाव विह्वल देखकर उनके दोनों भाई वायुभूति और अग्निभूति कहने लगे कि भगवान महावीर कोई एन्द्रजालिक है और उन्होंने अपने दर्शन मात्र से हमारे बड़े भ्राता गौतम ऋषि को सम्मोहित कर दिया है। तत्पश्चात् गौतम ऋषि ने अपने भाईयों तथा सभी शिष्यों को समझा कर वे उनके साथ समवसरण के भीतर गये। भगवान महावीर के दर्शन करके गौतम का मन वैराग्य पूर्ण भावों से भर गया—
ततो जैनेश्वरीं दीक्षां भ्रातृभ्यां ज ग्रहे सह। शिष्यै पंचशतै: सार्ध ब्राह्मण कुल संभवै:।।
इसके पश्चात् गौतम ऋषि ने भगवान वीरनाथ के समक्ष उन्हें अपना गुरू स्वीकार करते हुए अपने दोनों भाइयों और पांच सौ शिष्यों के साथ जैनेश्वरी नग्न दिगम्बर दीक्षा ग्रहण कर ली। उत्तरपुराण के ७४ वें पर्व के श्लोक ३७० से ३७२ तक में गणधर परमेष्ठी गौतम ने स्वयं कहा है— तदनन्तर सौधर्मेन्द्र ने मेरी पूजा की ओर मैंने पांच सौ ब्राह्मणपुत्रों के साथ श्रीवर्धमान स्वामी को नमस्कार कर संयम धारण कर लिया। परिणामों की विशेष शुद्धि होने से मुझे उसी समय सात ऋद्धियां प्राप्त हो गई। तदनन्तर वर्धमान स्वामी के उपदेश से मुझे श्रावण वदी प्रतिपदा के दिन पूर्वाह्ण काल में समस्त अंगों के अर्थ और पद स्पष्ट जान पड़े। इसी तरह उसी दिन अपराह्ण काल में अनुक्रम से पूर्वों के अर्थ तथा पदों का भी स्पष्ट बोध हो गया। १३६६—३७०।। इस प्रकार जिसे समस्त अंगों तथा पूर्वों का ज्ञान हुआ है और जो चार ज्ञान से सम्पन्न है ऐसे मैंने रात्रि के पूर्व भाग में अंगों की और पिछले भाग में पूर्वों की ग्रन्थ—रचना की। उसी समय से मैं ग्रन्थकर्ता हुआ। इस तरह श्रुतज्ञान रूपी ऋद्धि से पूर्ण हुआ मैं भगवान महावीर स्वामी का प्रथम गणधर हो गया।‘‘३७१—३७२’’ वह मंगलकारी दिन आषाढ़ शुल्का पूर्णिमा का था जिसे अपने महाकल्याणकारी प्रभावी घटनाओं के कारण ‘‘ गुरू पूर्णिमा’’ के नाम से जगत में शाश्वत ख्याति प्राप्त हुई। इसी गुरु पूर्णिमा का प्रभाव था कि महान गुरू भगवान महावीर स्वामी को महान शिष्य गौतम की प्राप्ति हुई। अगले दिन अर्थात् श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को प्रभात काल तथा अभिजित नक्षत्र के उदयकाल में प्रथमबार भगवान की गुरू गम्भीर वाणी खिरी। अपने दोनों भाइयों के साथ इस प्रकार गौतम भगवान महावीर के प्रथम गणधर पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनके दोनों भाइयों तथा अन्य सुधर्म, मौर्य, मौन्द्र्य, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेल तथा प्रभास सहित ग्यारह गणधर हुए। श्रावण कृष्णा प्रतिपदा को भगवान की जगत कल्याणी गुरू गम्भीर निरक्षरी वाणी खिरी अत: वह दिन विश्व में वीरशासन जयन्ती के रूप में प्रसिद्ध हुआ। इस प्रकार गौतम गणधर तथा ‘‘गुरूपूर्णिमा’’ के प्रभाव से महावीर भगवानरूपी हिमाद्रि से जिनवाणीरूप गंगा का प्रादुर्भाव हुआ— वीर हिमाचल तैं निकसी गुरू गौतम के मुख कुण्ड ढरी है। ‘‘गुरू पूर्णिमा’’ के अचिन्त्य प्रभाव के कारण ही वर्तमान में कवि श्री भागचन्द्र जी ‘‘भागेन्दु’’ की अमर लेखनी से निसृत ‘‘ महावीराष्टक’’ में इन पंक्तियों का अभ्युदय हुआ—
‘‘यदीया वागंगा विविधनय—कल्लोल—विमला। वृहज्ज्ञानांभोभिर्जगति जनतां या स्नपयति।।
इदानीमप्येषा बुधजनमरालै: परिचिता। महावीर स्वामी नयन पथगामी भवतु में।।
इस प्रकार गुरू पूर्णिमा का पर्व प्रारम्भ हुआ जिसमें शिष्यगण अपने गुरू की पूजा अर्चना पूरी शृ्रद्धा और समर्पण के साथ करते हैं। जिस व्यक्ति को अपने जीवन में गुरू मिल जाएं उससे सौभाग्यशाली शिष्य कोई और नहीं होता है।
‘‘एकतो विश्व सम्पत्तथैकतश्चैदुरो: कृपैकेव। चुलुकार्णवयोर्भेद : प्रतिभाति तयोस्तु शिष्यस्य।’’
यदि एक ओर विश्व की सम्पदा हो और दूसरी ओर अकेली गुरूकृपा, तो शिष्य को उनमें चुल्लूभर पानी और समुद्र जितना अन्तर प्रतीत होता है। जय जय गुरूदेव। गुरूवो भवन्तिद शरणं— हे गुरू मेरे उर बसो, जे भव जलधि जहाज—।