शंका-‘‘क्या मुनि गृहस्थों के घर मेंं निवास कर सकते हैं?
समाधान-हाँ, कारणवश ऐसे उदाहरण आगम में उपलब्ध हंै।” देखिए-
किसी समय १मणिमाली नाम के एक मुनिराज उज्जयिनी नगरी के श्मशान भूमि में मुर्दे के समान आसन लगाकर ध्यान कर रहे थे। रात्रि में एक मंत्रवादी ने आकर उनके शरीर को मृतक समझकर उनके मस्तक पर एक चूल्हा रखकर मृतक के कपाल में दूध और चावल डालकर खीर पकाने लगा। अग्नि की ज्वाला से मुनि के मस्तक और मुख में तीव्र वेदना होने से मुनिराज का मस्तक हिलने लगा, इस निमित्त से वह हांडी अकस्मात् गिर गई। यह देख वह मंत्रवादी डरकर भाग गया। प्रात: जब सेठ जिनदत्त ने यह घटना सुनी, वे तत्क्षण ही वहाँ आकर मुनिराज को अपने स्थान पर ले गये। भक्ति पूर्वक उनका उपचार किया कुछ दिन बाद वे मुनि स्वस्थ हो गये और तभी वर्षाकाल का समय भी आ गया। सेठ जिनदत्त आदि के आग्रह से मुनिराज ने वहीं पर चातुर्मास धारण कर लिया।
सेठ का पुत्र दुर्व्यसनी था। एक दिन सेठ जिनदत्त ने पुत्र के भय से अपने धन को एक घड़े में भरकर उस घड़े को लाकर मुनिराज के सिंहासन के नीचे एक गहरा गड्ढा खोदकर उसमें गाड़ दिया, किन्तु उसके पुत्र ने यह सब कार्य छुप कर देख लिया था अत: उसने एक दिन चुपके से वह धन निकाल लिया।चातुर्मास समाप्ति के अनंतर, मुनिराज विहार कर गये। तब सेठ ने अपना धन का घड़ा निकालना चाहा, किन्तु वहाँ न मिलने पर वह मुनिराज पर ही संदेह करने लगा। पुन: मणिमाली मुनिराज के पास जाकर उनसे कहने लगा-भगवन्! आपके विहार करके चले आने से उज्जयिनी की जनता बार-बार आपका स्मरण कर रही है आप कृपा कर एक बार पुन: दर्शन दीजिये। सेठ जी के अतीव आग्रहवश मुनिराज पुन: विहार करके वहीं पर आ गये। अब सेठ ने मुनिराज से कुछ कथा कहने को कहा। मुनिराज ने भी सेठ की चेष्टाओं से उसके मन के संदिग्ध अभिप्राय को जान लिया और तदनुसार कथा के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि बिना विचारे लोग सदोष को भी निर्दोष समझ लेते हैं। तब सेठ ने भी कथा सुनाई जिसका आशय यह था कि कुछ लोग उपकारी के उपकार का बदला अपकार से चुकाते हंै। ऐसे ही बहुत समय तक मुनि और सेठ के मध्य कथाओं का तांता चलता रहा तब सेठ के पुत्र ने सारी घटना देखकर धन और जन से अतिशय विरक्त होकर वह धन का घड़ा दोनों के बीच में लाकर रख दिया और बोला कि इस निकृष्ट धन को धिक्कार हो कि जिसके लोभ में मेरे पूज्य पिताजी परम धार्मिक मुनिभक्त होकर भी महामुनि पर ही संदेह कर रहे हैं। हे गुरुदेव! अब मुझे इस धन की आवश्यकता नहीं है, मैं संसार के दु:खों से अतिशय रूप से भयभीत हो चुका हूँ। अब आप मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिये।
अपने पुत्र का ही अपराध और पुन: ऐसा विरक्त परिणामरूप साहस देखकर सेठ जी एकदम पश्चात्ताप से आहत हो गये। वे अपनी निंदा करने लगे कि हाय! हाय! मैंने यह क्या कर डाला? पुन: उन्होंने भी उस धन को जीर्णतृणवत् छोड़कर उन्हीं गुरुदेव के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली अर्थात् वे सेठ जिनदत्त अपने पुत्र के साथ दीक्षित हो गये।कहने का मतलब यही है कि चतुर्थकाल में जब मुनि शिरोमणि दो गुप्तियों से विभूषित परम तपस्वी साधु श्रावकों के घर में चातुर्मास कर लेते थे। यह घटना उस समय की है जबकि राजा श्रेणिक और रानी चेलना में धर्म का संघर्ष चल रहा था और राजा दिगम्बर मुनियोंं की परीक्षा करना चाहता था। पुन: आज कोई मुनि कारणवश श्रावक के स्थानों में ठहर जाते हैं और चातुर्मास भी कर लेते हैं तो क्या दोषास्पद ही है? अर्थात् दोषास्पद नहीं भी है तथा राजमार्ग भी नहीं है। हाँ! उन्हें अपने संयम में बाधा नहीं लाना चाहिए।