जो स्त्री, पुत्र, धन आदि के मोह से ग्रसित हैं वे सागार या गृहस्थ कहलाते हैं। वे यदि सर्वत्याग रूप मुनिमार्ग में प्रीति रखने वाले हैं और कारणवश उस पद को ग्रहण नहीं कर पाते हैं तभी वे श्रावक धर्म को ग्रहण करने के अधिकारी होते हैं, अन्यथा यदि मुनि धर्म मेंं उनकी हार्दिक प्रीति नहीं है तो वे धर्मात्मा और पापभीरु नहीं कहे जा सकते हैं।
अनादिकालीन जो मोहरूपी अविद्या है उसके निमित्त से प्रत्येक व्यक्ति को आहार,भय, मैथुन और परिग्रह की अभिलाषा रूप चार संज्ञारूपी ज्वर चढ़ा हुआ है जिससे ये जीव निरन्तर ही अपने आत्मज्ञान से विमुख हो रहे हैं और विषयों में रच—पच रहे हैं। यही कारण है कि गृहस्थ अनादिकालीन अविद्या से चली आई हुई ऐसे परिग्रह आदि में ‘‘ममेदं’’ यह मेरा है, ऐसा बुद्धि को दूर करने में असमर्थ हो रहे हैं और प्राय: करके इन्द्रियों के भोगों में ही मूर्च्छित हो रहे हैं। वास्तव में जिनका चित्त मिथ्यात्व से ग्रसित है वे मनुष्य होकर भी पशुओं के समान हैं और जिनके हृदय में सम्यक्त्व रूपी चेतना व्यक्त हो चुकी है वे पशु होकर भी मनुष्य के समान हैं।
किन्हीं जीवों के लिये यह अगृहीत मिथ्यात्व घोर अन्धकार के समान है। अन्य किन्हीं जीवों का गृहीत मिथ्यात्व उन्हें गृह—पिशाच के समान त्रसित किये है और किन्हीं का सांशयिक मिथ्यात्व उन्हें शल्य—काँटे के समान दु:खदायी होता है अर्थात् अनादिकालीन मिथ्यात्वबुद्धि अगृहीत मिथ्यात्व है, पर के उपदेश से विपरीत श्रद्धा गृहीत मिथ्यात्व है और अंतरंग में सत्य और असत्य धर्मों के प्रति संशय बना रहना संशय मिथ्यात्व है। ये तीनों ही जीवों को दु:खदायी हैं।
कदाचित् आसन्न भव्यता, निकट भव्यता, कर्मों की हानि होना, संज्ञी पंचेंद्रिय होना, विशुद्ध परिणामों को प्राप्त करना, सच्चे गुरु का उपदेश मिलना आदि कारणों से जीव मिथ्यात्व का नाश करके सम्यक्त्व—समीचीन दृष्टि प्राप्त करता है क्योंकि इस कलिकाल रूपी वर्षा काल में चारों तरफ मिथ्यात्वरूपी बादल छाये हुये हैं। ऐसी स्थिति में सच्चे उपदेश देने वाले गुरुजन जुगनू के समान कदाचित् क्वचित् ही अपना प्रकाश फैलाते हुए उपलब्ध होते हैं। ऐसे युग में यदि सम्यग्दृष्टि श्रोता न मिलें तो जो भद्र हैं उन्हें ही उपदेश सुनाकर सम्यग्दृष्टी बनाना चाहिये।
कुधर्मस्थोपि सद्धर्मं लघुकर्मतयाद्विषन् ।
भद्र: स देश्यो द्रव्यत्वान्नाभद्रस्तद्विपर्ययात्।।
जो कुधर्म में स्थित है फिर भी यदि वह मिथ्यात्वकर्म की मंदता से सच्चे धर्म में द्वेष नहीं करता है तो भद्र है और उपदेश के लिए पात्र है क्योंकि वह भविष्य में सच्चे धर्म को ग्रहण कर सकता है किन्तु जो इस लक्षण से विपरीत है उसे अभद्र कहते हैं।
सच्चा गृहस्थ ही श्रावक बन सकता है।
गृहस्थ धर्म को धारण करने वाले पुरुष का लक्षण बतलाते हुए कहा है कि—
न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् , सद्गीस्त्रिवर्गं भजन् ।
अन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणी , स्थानालयो ह्रीमय: ।।
युक्ताहारविहार आर्यसमिति:, प्राज्ञ: कृतज्ञो वशी।
शृण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभी: सागारधर्मं चरेत् ।।
अर्थ— न्यायपूर्वक धन कमाने वाला, गुणगुरु, मुनि, आर्यिका आदि संयमी की तथा अपने माता—पिता आदि की यथायोग्य पूजा, सत्कार, प्रणाम आदि करने वाला, प्रशस्त वचन बोलने वाला, धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थों का परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला, तीन पुरुषार्थ की सिद्धि के लिये अपने योग्य पत्नी, ग्राम और घर जिसका है ऐसा वह लज्जाशील, शास्त्रोक्त आहार विहार में प्रवृत्ति करने वाला, आर्य—सज्जन पुरुषों की संगति में रहने वाला, बुद्धिमान, किये हुए उपकार को मानने वाला, इन्द्रियों को वश में करने वाला, दयालु और पापभीरु जो ऐसा गृहस्थ धर्म की विधि को सुनता है, वही सागारधर्म—श्रावक धर्म की विधि को सुनता है, वही सागार धर्म—श्रावक धर्म को धारण करने के लिये योग्य माना गया है अर्थात् इतने ये गुण जिस व्यक्ति में होते हैं वही श्रावक धर्म को पालन करने में समर्थ होता है।
संक्षेप में देखा जाये तो निर्दोष सम्यग्दर्शन, निरतिचार अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत इनको धारण करना तथा मरणकाल में विधिवत् सल्लेखना करना इतने से ही यह सागार धर्म पूर्ण हो जाता है।
अथवा अष्टमूलगुण को धारण करना, अणुव्रत आदि उत्तर गुणों को पालना, पाँच परमेष्ठी के चरणों की शरण ग्रहण करना; दान और पूजा मुख्यरूप से करना तथ हमेशा सम्यग्ज्ञानरूप अमृत के पिपासु रहना ही श्रावक का लक्षण है।
इनके लिये वैसे दर्शन प्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमायें भी होती हैं। उनमें से यदि एक, दो आदि प्रतिमाओं को भी ग्रहण कर लेता है तो वह परम्परा से मुक्ति का अधिकारी हो जाता है।
धर्म, यश और सुख ये तीन चीजें हैं। कोई इनमें से एक को तथा कोई किन्हीं भी दो को प्राप्त कर लेते हैं किन्तु जो इन तीनों को प्राप्त करने वाले हैं उन्हीं का मनुष्य जन्म सार्थक है।
श्रावक के तीन भेद माने हैं—पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक।
पाक्षिक—‘‘संकल्पपूर्वक मैं किसी जीव का वध नहीं करुँगा।’’ जो ऐसी प्रतिज्ञा करके मैत्री आदि भावनाओं से सहित होता है और धर्म का पूर्णतया पक्ष रखता है वह अभ्यासरूप से श्रावक धर्म को पालता है उसे पाक्षिक श्रावक या प्रारब्ध देशसंयमी कहते हैं।
नैष्ठिक—जो निरतिचार श्रावक धर्म का पालन करता है । पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक की चर्या का अनुष्ठान करने वाला है अर्थात् उनमें से किसी भी प्रतिमा का धारी है वह श्रावक धर्म में निष्ठ होने से नैष्ठिक श्रावक या घटमान देशसंयमी कहलाता है।
साधक—गृहत्याग के अनन्तर जिसका देशसंयम पूर्ण हो चुका है और जो आत्मध्यान में लीन होकर मरणकाल में समाधिमरण का साधन करता है वह साधक श्रावक या निष्पन्न देशसंयमी कहलाता है।
परमवीतरागी, दिगम्बर मुनिराज श्रेणी पर आरूढ़ होकर विकल्पातीत शुद्ध आत्मतत्व के अनुभव का सच्चा रसास्वादन करते हैं। उस स्थिति से रहित आरम्भादि में पँâसे हुए गृहस्थ के योग्य कार्यों का विवेचन महान् तार्किक दिगम्बर जैनाचार्यों ने करुणा बुद्धि से ओतप्रोत होकर किया है।
जो श्रावक जिनेन्द्रदेव की आज्ञा से निरन्तर ही विषयों को छोड़ने योग्य समझता हुआ भी मोह के निमित्त से उन्हें छोड़ने के लिये असमर्थ है। आचार्यों ने उस गृहस्थ के लिए ही गृहस्थ धर्म पालने की अनुमति दी है। उस गृहस्थ धर्म में सबसे प्रथम वह गृहस्थ जिनेन्द्रदेव की आज्ञा का श्रद्धान करता हुआ हिंसा को छोड़ने के लिये मद्य, मांस, मधु और पाँच उदम्बर फलों का त्याग कर ही देवे।
मद्य—
शराब के एक बिन्दु में इतने जीव हैं कि वे संचार करें तो तीन लोक को भी पूरित कर सकते हैं और उसके पीने से जीवों के इहलोक–परलोक दोनों ही नष्ट हो जाते हैं इसलिए इस मदिरा को दूर से ही छोड़ देना चाहिए।
मांस—
मांस का भक्षण तो स्पष्ट में ही बुरा है। यहाँ तक कि विवेकी सभ्यजन मांस के नाम को सुनकर भोजन करते हुए भी छोड़ देते हैं।
प्रश्न— देखो, जैसे मांस प्राणी का अंग है वैसे ही अन्न भी एकेंद्रिय प्राणी का अंग है पुन: अन्न, वनस्पति आदि का भक्षण करना भी मांस दोष के समान है ?
उत्तर— ऐसा नहीं है, देखो अन्न और मांस दोनों ही यद्यपि प्राणी के अंग समान रूप से हैं फिर भी अन्तर है, क्योंकि अन्न खाने योग्य है और मांस खाने योग्य नहीं है। जैसे स्त्री और माता दोनों ही स्त्रीपने से समान हैं किन्तु स्त्री ही भोग्य है माता नहीं, अथवा यों समझिये कि मांस जीव का शरीर है किन्तु जो—जो जीव के शरीर हैं वे सभी मांस नहीं हैं। जैसे कि नीम तो वृक्ष है किन्तु जितने वृक्ष हैं वे सभी नीम नहीं हैं अथवा गाय से उत्पन्न होकर भी दूध ग्राह्य है किन्तु गोमांस ग्राह्य नहीं है। सर्प से मणि उत्पन्न होती है वह तो विषनाशक है किन्तु सर्प का डस लेना विषकारक है इसलिए एकेंद्रिय जीवों के कलेवर अन्न, वनस्पति आदि की मांस संज्ञा नहीं है किन्तु दो इंद्रिय से लेकर सभी जीवों के कलेवर मांस कहलाते हैं और वे त्याज्य हैं।
मधु—
शहद की एक बिंदु मात्र के भक्षण से सात ग्राम के जलाने जितना पाप लगता है इसलिये यह भी महानिंद्य पदार्थ है। इसी प्रकार से नवनीत—मक्खन को भी दो मुहूर्त के बाद में नहीं खाना चाहिये। उसमें बहुत से सूक्ष्म जीव जन्म ले लेते हैं उसी प्रकार से पीपल, उदम्बर,पाकर, बड़ और अंजीर इन फलों को सुखाकर भी नहीं खाना चाहिये। अष्ट मूलगुणधारी श्रावक का कर्तव्य है कि वह रात्रि भोजन और अनछना पानी भी कभी नहीं पीवे क्योंकि स्वास्थ्य और धर्म दोनों की हानि करने वाले हैं । यह पाक्षिक श्रावक पाँच अणुव्रतों को भी अभ्यास रूप से पालता है और सप्त व्यसनों का भी त्याग कर देता है।
दूसरी प्रकार से अष्ट मूलगुणों का वर्णन इस प्रकार है—मद्य, मांस, मधु, रात्रि भोजन और पाँच उदम्बर फल इनका त्याग करना तथा पंचपरमेष्ठी की वंदना करना, जीव दया पालना और पानी छानकर पीना। जो भव्य जीव जीवन भर के लिये इन महापापों को छोड़ देता है और जिसका यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है ऐसा शुद्ध बुद्धि वाला जीव ही जिनधर्म को सुनने के लिये योग्य होता है। इसी बात को श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है—
‘‘अनिष्ट, दुस्तर और पापों के घर ऐसे इन आठों को छोड़कर शुद्ध बुद्धि वाले प्राणी जिनधर्म की देशना के पात्र होते हैं।’’
सम्यग्दृष्टि श्रावक हमेशा जिनेन्द्रदेव की पूजा किया करता है।
पूजा को इज्या भी कहते हैं । इसके पाँच भेद हैं—नित्यमह, आष्टान्हिक, इन्द्रध्वज, चतुर्मुख और कल्पद्रुम।
नित्यमह—
अपने घर पर स्नान करके शुद्ध धुले हुये वस्त्र पहनकर घर से जल , चन्दन आदि सामग्री ले जाकर मंदिर में जिनेन्द्रदेव की पूजा करना नित्यमह कहलाती है। अपनी शक्ति के अनुसार मंदिर में जिनेन्द्रदेव की पूजा करना नित्यमह कहलाती है। अपनी शक्ति के अनुसार जिनप्रतिमा—जिनमंदिर आदि का निर्माण कराना, मन्दिर की पूजा व्यवस्था के लिये जमीन, धन आदि मन्दिर में दान देना, त्रिकाल में जिनदेव की आराधना करना, अपने घर के चैत्यालय में पूजा करना और भक्तिपूर्वक प्रतिदिन मुनियों को दान देना यह सब नित्यमह पूजा है।
आष्टान्हिक—
नन्दीश्वर पर्व में जो पूजा की जाती है वह आष्टान्हिक पूजा है।
इंद्रध्वज—
जो पूजा इन्द्र आदिकों के द्वारा विशेष रूप से की जाती है वह इन्द्रध्वज कहलाती है।
चतुर्मुख—
जो जिनपूजा मुकुटबद्ध मंडलेश्वर राजाओं द्वारा की जाती है वह सर्वतोभद्र—महामह या चतुर्मुख कहलाती है।
कल्पद्रुम—
इस पूजा में चक्रवर्ती किमिच्छक दान देकर सभी की इच्छा पूर्ण कर देते हैं अर्थात् तुम्हें क्या इच्छा है, तुम्हें क्या इच्छा है ऐसा सभी की इच्छा को पूर्ण करते हुये दान देकर जो जिनेन्द्रदेव की महान् पूज्ाा करते हैं वह कल्पद्रुम इस अपने सार्थक नाम वाली पाँचवीं पूजा कहलाती है।
जो गृहस्थ अभिषेक , पूजन, गीत, नृत्य आदि द्वारा पूजन करते हैं वे महान् पुण्य का बंध कर लेते हैं।
अर्हंतदेव के चरणों में जलधार देने से ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मरूपी रज शांत हो जाती है। चंदन से पूजा करने से सुगन्धित शरीर प्राप्त होता है । अक्षत से पूजा वैभव को अखण्डित करने वाली है। पुष्प से पूजा करने वाले स्वर्ग में मंदार माला को प्राप्त करते हैं। नैवेद्य से पूजा करने से लक्ष्मी के स्वामी होते हैं। दीप से पूजा करने वाले कांती को विस्तृत करते हैं। धूप से पूजन करके उत्कृष्ट सौभाग्य को प्राप्त होते हैं। फल से पूजा करके इच्छित फल को प्राप्त कर लेते हैं और अर्घ से पूजा करके अभिमत वस्तुओं को प्राप्त कर लेते हैं। इसके सिवाय जिनपूजा का फल तो अचिन्त्य है। सम्यग्दृष्टि पूजक को मैं पहले, मैं पहले कहते हुये सभी सुख-संपत्तियाँ आकर घेर लेती हैं।
निर्विघ्नता से पूजा , बड़े—बड़े विधान आदि करने के लिये यथायोग्य दान—मान आदि सत्कारों से विधर्मियों को भी अपने अनुकूल करके और सहधर्मियों को भी अपने आधीन करके पूजा करना चाहिये। जो श्रावक स्त्री संसर्ग, आरम्भ आदि सहित हैं, वे विधिवत् स्नान आदि करके शुचि होकर ही जिनपूजा करें।
यहाँ प्रश्न उठता है कि मंदिर बनवाने से तो महान् आरम्भ होता है ?
इसका उत्तर यह जानना है कि जिनप्रतिमा, जिनमंदिर, वसतिका और स्वाध्यायभवन आदि बनवाने वालों को महान् सातिशय पुण्य का बंध होता है और परम्परा से वे लोग इस पुण्य के बल से कर्मों का भी नाश कर देते हैं, क्योंकि गृहस्थ तो हमेशा पाप क्रिया रूप आरम्भ में, व्यापार में, मकान बनवाने आदि में ही प्रवृत्त रहते हैं । यद्यपि मन्दिर बनवाने आदि के आरम्भ में हिंसा है तो भी उसके महान् पुण्य में वह समुद्र के जल में एक कण विष के समान क्या कर सकता है ? और तो क्या—‘‘मुक्तिप्रासादसोपानमाप्तेरुक्त जिनालय:’’ शास्त्र में ऐसा कहा है कि जिनेन्द्रदेव ने मन्दिर को मुक्ति महल की सीढ़ी बताया है।
जैनाचार्यों ने तो यहाँ तक कहा है कि—इस दु:षमाकालरूपी रात्रि को धिक्कार हो कि जहाँ पर बड़े—बड़े शास्त्र के विद्वान् भी जिनबिंबदर्शन के बिना प्राय: करके भगवान् की भक्ति करने में प्रवृत्त नहीं होते हैं इसलिये प्रत्येक स्थान पर जिनमन्दिर की परम आवश्यकता है। अहो! इस पंचम काल में गृहत्यागी मुनियों का मन भी रागादि परिणति से चंचल होकर धर्म — कर्म में प्रवृत्ति नहीं कर पाता है इसलिये जिनमन्दिर की बहुत ही आवश्यकता है अर्थात् मुनिगण भी मन्दिर और जिनप्रतिमाओं के आश्रय से अपनी प्रवृत्तियों को नियमित कर पाते हैं, उन्हें भी आज इसकी पूरी आवश्यकता रहती है।
इस प्रकार सरल प्रवृत्ति से जिनपूजा करने वालों के सभी दु:ख नष्ट हो जाते हैं और दशों दिशायें उनके मनोरथों को पूर्ण करती हैं।
महान् करुणावन्त तीर्थंकर परमदेव, चार ज्ञान के धारक गणधरदेव तथा उसी अन्वय में आगत दिगम्बर जैनाचार्यों ने गृहस्थियों के लिए परम्परा से मोक्ष प्राप्ति का उपाय बताया है, उसी बात को परमकारुणिक भावना से ओतप्रोत हो गुरुओं ने बताया है।
श्रावक जैन शास्त्रों की भी विधिवत पूजा करे। गणधरदेव ने ऐसा कहा है कि जो भव्य जीव भक्तिपूर्वक श्रुत की अर्चा कर रहे हैं क्योंकि ‘‘श्रुत और अर्हंत देव में कुछ भी अन्तर नहीं है।’’ उसी प्रकार से गुरुओं की भी नितप्रति पूजन करना चाहिये क्योंकि गुरु की भक्ति से बड़े—बड़े विघ्न क्षणमात्र में समाप्त हो जाते हैं। छल-कपट रहित मनोवृत्ति से और गुरु के अनुकूल प्रवृत्ति से हमेशा विनय से गुरु के मन में प्रवेश करके गुरु के मन को अनुरंजित कर लेवे जैसे कि राजा का मन अनुरंजित किया जाता है। गुरु के पास बैठने पर शास्त्रविरुद्ध ऐसी कोई भी क्रियायें नहीं करनी चाहिये जैसे कि क्रोध, हँसी, विवाद आदि नहीं करना, असत्य भाषण नहीं करना, ताली,चुटकी आदि नहीं बजाना इत्यादि।
पात्रदत्ति, समदत्ति, दयादत्ति और अन्वयदत्ति ऐसे दान के भेद माने गये हैं। दान को दत्ति शब्द से कहते हैं।
पात्रदत्ति—
यह धन बड़े भाग्य से प्राप्त होता है और आश्चर्य इस बात का है कि यह प्राणों के साथ ही विनष्ट हो जाता है अर्थात् यहीं पर छूट जाता है, साथ में अणुमात्र भी नहीं जाता है इसीलिए परलोक में इसे अपने साथ अनंत गुणित रूप करके लेने के लिए यदि कोई उपाय है तो एक पात्रदान ही है।
आजकल के मुनियों में पूर्वमुनियों की स्थापना करके भक्ति से उनकी पूजा करनी चाहिये जैसे कि आप पाषाण की प्रतिमाओं में जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके उनकी पूजा करते हैं क्योंकि अति चर्चा—क्षोदक्षेम करने वालों का कल्याण वैâसे हो सकता है?
अन्यत्र ग्रन्थों में भी कहा है कि—भोजनमात्र प्रदान करने के लिए तुम्हें साधुओं की परीक्षा से क्या लाभ है ? वे मुनि ठीक हों या न हों, दान से गृहस्थ तो शुद्ध हो ही जाता है। गृहस्थों के धन का व्यय तो हर प्रकार के आरंभ में हो ही रहा है अत: पात्रदान में उन्हें इतना अधिक सोच—विचार नहीं करना चाहिए। जैसे एक खंभे पर घर नहीं ठहर सकता है उस्ाी प्रकार से केवल छोटे या बड़े के ऊपर ही लोक की स्थिति नहीं हो सकती है। देखो, इस कलिकाल में यह शरीर तो अन्न का कीड़ा बना हुआ है, चित्त मर्कट के समान चंचल है ऐसी स्थिति में यदि जिनमुद्रा के धारी मुनिजन दिखते हैं, तो समझना चाहिए कि यह बहुत बड़े आश्चर्य की बात है।
ज्ञानमर्च्यं तपोंऽगत्वात् तपाऽर्च्यं तत्परत्वत:।
द्वयमर्च्यं शिवांगत्वात् तद्वंतोर्च्या यथागुणम्।।
ज्ञान पूज्य है क्योंकि वह तप का कारण है। तप भी पूज्य है क्योंकि वह ज्ञान के अतिशय में कारण है। ये ज्ञान और तप दोनों ही पूज्य हैं क्योंकि ये मोक्ष के कारण हैं इसलिये उनके यथायोग्य गुणों के अनुसार ज्ञानी और तपस्वी दोनों ही पूजनीय होते हैं। अभिप्राय यह है कि किन्हीं साधु में ज्ञान विशेष है तप नहीं है वे भी पूज्य हैं, किन्हीं में तप विशेष है ज्ञान अल्प है वे भी पूज्य हैं और जिनमें दोनों हैं वे तो विशेष रीति से मान्य हो जाते हैं।
अनगार मुनि उत्तम पात्र हैं, प्रथम प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमाधारी तक क्षुल्लक, ऐलक आदि मध्यम पात्र हैं और अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र हैं। इनमें यथायोग्य दान देने से यदि कोई भव्य जीव सम्यग्दृष्टि नहीं है तो क्रम से उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि को प्राप्त कर लेता है जैसे कि राजा वङ्काजंघ, रानी श्रीमती ने आहारदान देकर और नकुल, वानर, सूकर तथा व्याघ्र ने मुनियों के आहारदान को देखकर उत्तम भोगभूमि प्राप्त की थी किन्तु जो सम्यग्दृष्टि हैं वे दान के प्रभाव से स्वर्ग के सुख भोगकर परम्परा से मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं।
यह जिनधर्म जगत् का बंधु है इसकी परम्परा को सतत चलाने के लिये मुनियों को पैदा करने का प्रयत्न करें तथा जो वर्तमान में हैं उनके ज्ञान आदि गुणों को बढ़ाकर उनके उत्कर्ष को बढ़ाने का प्रयत्न करना यह श्रावक का कर्त्तव्य है। यदि कलिकाल के दोष से या साधु के कुछ कर्मोदय के कारण प्रयत्न करने पर भी उनके गुणों का विकास नहीं हुआ तो भी प्रयत्न करने वाले श्रावक का तो कल्याण हो ही जाता है। यदि साधु में गुणों का विकास हो जाये तो फिर श्रावक को और उसके निमित्त से अनेकों जीवों को भी उन मुनि से लाभ हो जाता है अत: साधुओं को ज्ञानदान के लिये विद्वान की व्यवस्था करना आदि कार्य बहुत ही उपयोगी हैं। उसी प्रकार से आर्यिका, ऐलक, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि का भी यथायोग्य दान आदि के द्वारा सत्कार करना चाहिए। उन्हें उनके पद के योग्य वस्त्र आदि भी देने चाहिये। यह सब पात्रदत्ति का स्वरूप हुआ।
दयादत्ति—
दु:ख से भयभीतजनों को अभयदान देना दयादत्ति है अथवा अपने आश्रितजनों को या दीनदु:खी जनों को वस्त्र, भोजन आदि करुणा भाव से देना दयादत्ति है।
समदत्ति—
जिस जैन में ज्ञान और तप नहीं है केवल एकमात्र जैनत्व गुण ही स्फुरायमान है वह तमाम अजैनों की अपेक्षा भी श्रेष्ठ है, क्योंकि जिसके मन में इतना विश्वास है कि ‘जिनदेव ही संसार समुद्र से पार करने वाले हैं वह कल्याण का इच्छुक है, सबसे प्रथम उस पर अनुग्रह करना चाहिये। ‘‘एक जैन पर उपकार करना जितना श्रेष्ठ है हजारों अजैनों पर उपकार करना उतना श्रेष्ठ नहीं है’’। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की अपेक्षा से जैन भी इतरों की अपेक्षा श्रेष्ठ है फिर यदि वे द्रव्य से या भाव से जैन हुये तो फिर कहना ही क्या है ?
ऐसे अपने समान धर्म वाले जैन को कन्या, भूमि, सुवर्ण, रत्न, मकान आदि देना समदत्ति कहलाती है।
निर्दोष श्रावक को अपनी कन्या विवाह कर धर्म की परम्परा को अविच्छिन्न चलाना यह भी एक दान ही है। जिसने जिसको कन्या दी है समझो उसने उसे त्रिवर्ग—धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को ही दिया है। आज के युग में जिसके कन्या है वे माता-पिता कन्या को भारभूत समझते हैं कारण कि दहेज प्रथा ने माता—पिता के जीवन को महान् कष्टकर बना दिया है। सभी सुशिक्षित कन्याओं का एवं सुशिक्षित युवावर्गों का कर्त्तव्य है कि इस कुरीति का जड़मूल से विनाश करके विश्व में और अपने गृहस्थ जीवन में भी सुख शांति की स्थापना करें। देखिये—
‘‘सत्कन्यां ददत: दत्त: सत्रिवर्गो गृहाश्रम:।
गृहं हि गृहिणीमाहुर्न कुड्यकटसंहतिम् ।।’’
उत्तम कन्या को देने वाले साधर्मी गृहस्थ के लिये तीनों वर्ग सहित गृहस्थाश्रम ही दिया है क्योंकि विद्वान लोग गृहिणी को ही घर कहते हैं किन्तु दीवाल और वासादि के समूह को घर नहीं कहते हैं। यह सब समदत्ति दान कहलाता है।
अन्वयदत्ति—
अपने योग्य पुत्र पर घर का भार छोड़कर आप गृहस्थी से निवृत्त होना अन्वयदत्ति कहलाती है।
इस प्रकार से पाक्षिक श्रावक अपनी प्रवृत्ति को देवपूजन, दान, स्वाध्यायमय बना लेता है तथा शक्ति अनुसार तपश्चरण भी करता है।
अनेक जिज्ञासुओं की उत्कण्ठा को दृष्टि में रखते हुए गृहस्थावस्था में गृहस्थ धर्म को सार्थक बनाने की समीचीन विधि प्रदर्शित की जा रही है—
पाक्षिक श्रावक अपने से अधिक गुणों के अनुराग से दान आदि के द्वारा समयिक, साधक, समयद्योतक, नैष्ठिक और गणाधिपों को संतुष्ट करे अर्थात् समयिक, साधक आदि के भेद से धर्मपात्र पांच प्रकार के माने गये हैं।
समयिक— जिनधर्म का आश्रय लेने वाले यति या श्रावक समयिक कहलाते हैं।
साधक— ज्योतिषशास्त्र, मंत्रशास्त्र आदि निमित्तों के ज्ञाता और भी लोकोपकारक शास्त्र के ज्ञाता साधक कहलाते हैं।
समयद्योतक—वाद—विवाद वेâ द्वारा जिनधर्म की प्रभावना करने वाले समयद्योतक कहलाते हैं।
नैष्ठिक— मूलगुण—उत्तरगुण और प्रशंसनीय तप में विशेष निष्ठा रखने वाले नैष्ठिक कहलाते हैं।
गणाधिप— धर्माचार्य—दिगम्बर आचार्य और गृहस्थाचार्य ये दोनों ही गणाधिप कहलाते हैं।
इन सभी में उनके विशेष-विशेष गुणों के अनुसार यथायोग्य दान,सम्मान, संभाषण आदि के द्वारा उनको दान देवें, इसी बात को और स्पष्ट करते हैं—
१. जिनधर्म के धारक यति अथवा श्रावक दान देने के समय जो भी उपलब्ध हों, सम्यग्दृष्टि यथोचित उनका सत्कार करे, उन्हें दान देवे क्योंकि ये समयिक हैं।
२- परोक्ष अर्थ को जानने में जिनकी बुद्धि समर्थ है ऐसे ज्योतिषशास्त्र, मंत्रशास्त्र, निमित्तशास्त्र आदि के ज्ञाता साधक कहलाते हैं। कर्त्तव्य के जानने वाले होने से ये भी पात्र हैं सम्यग्दृष्टि इन्हें दान आदि देकर सम्मान करें।
३- यदि ऐसे ज्ञानी न रहें तो उनके बिना जैनधर्म के मर्मज्ञ की दीक्षा, प्रतिष्ठा, यात्रा, क्रिया वैâसे हो सकेगी ? तथा इस विषयक प्रश्न होने पर जैनधर्म की उन्नति वैâसे होगी ? इसलिये ‘समय द्योतक’ विद्वान का भी आदर करना चाहिये।
४- मूलगुण— उत्तर गुण तथा श्रेष्ठ तप के द्वारा जिनका विशेष स्थान है और इसी कारण जो नैष्ठिक कहलाते हैं ऐसे साधु भी धर्मात्माओं द्वारा भले प्रकार पूजनीय हैं।
५- जो ज्ञानकांड और क्रियाकांड के विषय में चतुर्वर्ण में अग्रणी माने जाते हैं, जो संसार सागर से पार उतारने में जहाज के समान हैं वे सूरि भी देव के समान पूज्य हैं।
इन धर्मपात्रों में उत्तम, मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार के पात्र आ जाते हैं। इनमें दान देते समय यथायोग्य पात्रदत्ति और समदत्ति को समझ लेना चाहिये। मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविका इन रत्नत्रय सहित पात्रों में भक्ति से दिया गया दान पात्रदत्ति की कोटि में आता है और गृहस्थों में यथायोग्य रीति से वात्सल्य बुद्धि से दिया गया दान समदत्ति की कोटि में आता है, ऐसा समझना चाहिए।
गृहस्थों के छह आर्य कर्म होते हैं— इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। इनमें से इज्या अर्थात् पूजा के ५ भेद पहले आ चुके हैं। असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, विद्या और शिल्पकला, इनसे आजीविका करना/धन उपार्जन करना वार्ता है। चार प्रकार की दत्ति का वर्णन स्पष्ट किया गया है। निर्दोष आप्त के द्वारा दिव्यध्वनिरूप से जिनका प्रतिपादन किया है, गौतम गणधर आदि के द्वारा जो रचे गये हैं, पुन: परम्परा से आचार्यों द्वारा वर्णित है ऐसे ग्रंथों को पढ़ना—पढ़ाना, लिखना—लिखाना, मनन करना,उपदेश करना आदि स्वाध्याय है। षट्काय जीवों की या त्रसजीवों की दया पालना, इंद्रिय और मन को वश में करना संयम है। अनशन आदि तपश्चरण करना तप है। तप—इस आवश्यक कर्म में अनेक प्रकार के व्रतों का वर्णन किया गया है।
यावन्न सेव्या विषयास्तावत्तानप्रवृत्तित:।
व्रतयेत् सव्रतो दैवान्मृतोऽमुत्र सुखायते।
जितने काल तक विषय (कोई भी पदार्थ) सेवन करने में नहीं आते हैं तब तक उनमें प्रवृत्ति न होने से उनका नियम कर लेना चाहिये अर्थात् जब तक मैं इस वस्तु का सेवन नहीं करूंगा तब तक के लिये मुझे इनका त्याग है ऐसा नियम करे। यदि कदाचित् व्रतसहित मर गया तो परलोक में भी सुखी हो जाता है।
इसके अतिरिक्त पंचमीव्रत, णमोकार पैंतीस, जिनगुणसंपत्ति, रोहिणी, रत्नत्रय, लब्धिविधान, वृहत्पल्य आदि व्रतों को भी विधिवत् करना चाहिये।
किसी भी वस्तु का त्याग करना व्रत कहलाता है । उसको विधिवत् गुरु के सान्निध्य में ग्रहण करना चाहिये—
समीक्ष्य व्रतमादेयमात्तं पाल्यं प्रयत्नत:।
छिन्नं दर्पात् प्रमादाद्वा प्रत्यवस्थाप्यमंजसा।।
अपनी स्थिति को देखकर व्रत लेना चाहिये, किये हुये व्रतों का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये । गर्व से या प्रमाद से यदि व्रत भंग हो जाये तो शीघ्र ही प्रायश्श्चित्त लेकर पुन: उस व्रत को ग्रहण कर लेना चाहिये।
संकल्पपूर्वक: सेव्यो नियमोऽशुभकर्मण:।
निवृत्तिर्वा व्रतं स्याद्वा प्रवत्ति: शुभकर्मणि।।
सेवन करने योग्य विषयों का संकल्पपूर्वक नियम करना अथवा अशुभ कार्यों से संकल्पपूर्वक निवृत्त्त होना- उनका त्याग करना अथवा शुभ कार्यों में अहिंसादिव्रत को ग्रहण करने में प्रवृत्ति करना व्रत कहलाता है अर्थात् भक्ष्य—नमक, घी आदि वस्तुओं का भी जीवन भर के लिए या कुछ दिन के लिए त्याग कर देना। हिंसादि पापों का या अभक्ष्य आदि वस्तुओं का कुछ दिन के या जीवन भर के लिए त्याग कर देना अथवा शुभ कार्यों को, व्रतों को गुरुसाक्षीपूर्वक ग्रहण करना यह सब व्रत कहलाते हैं। इन श्रावक क्रियाओं को पालन करने वाले श्रावक का कर्तव्य है कि वह हर हालत में संकल्पी हिंसा का त्याग अवश्य कर देवे।
अपने सम्यक्त्व को निर्मल करने के लिये गिरनार, पावापुरी, चंपापुरी, सम्मेदशिखर जी आदि तीर्थयात्रायें भी करते रहना चाहिये तथा लौकिक चिंता को दूर करने के लिए हर्ष से इष्ट मित्रों को भोजन कराना आदि क्रियायें भी करता रहे। जीमन करने-कराने से कभी भी धन की हानि नहीं होती है प्रत्युत धन की वृद्धि ही होती है और आपस का प्रेम बढ़ता है । गृहस्थ को चित्त की प्रसन्नता के लिये कीर्ति उपार्जन करना चाहिए क्योंकि अपकीर्ति से मन संतापित होता है और मन में संताप होने से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है तथा कीर्ति से मन प्रसन्न होता है और मन की प्रसन्नता से शुभ कर्मों का आस्रव होकर पुण्यबंध होता है इसलिए अपने में असाधारण गुणों की वृद्धि करना चाहिए, विद्वानों द्वारा प्रशंसनीय, पापनाशक दान, सत्य, शौच, शील, संयमादि उत्तम-उत्तम गुणों को अपने में लाना चाहिए जिससे इस लोक में शांति और सुख मिलता है तथा कीर्ति प्राप्त होती है। परलोक में सुख, शांति की वृद्धि होते हुए अंत में परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति भी हो जाती है।
ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और भिक्षुकाश्रम (संन्यस्ताश्रम) जैनों के ये चार आश्रम होते हैं। ऐसा सातवें उपासकाध्ययन नामक अंग में बताया गया है यथा—
ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थश्च भिक्षुक:।
इत्याश्रमास्तु जैनानां सप्तमांगाद्विनि:सृता:।।
ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये चार आश्रम सातवें उपासकाध्ययन से निकले हैं।
१. ब्रह्मचर्याश्रम— जहाँ पर पूर्णतया ब्रह्मचर्य का पालन होता है उसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहते हैं। ब्रह्मचारी के पाँच भेद हैं—उपनयन, अवलंब, अदीक्षा, गूढ़ और नैष्ठिक।
१. उपनयनब्रह्मचारी— जो मौजीबन्धन विधि के अनुसार गणधरसूत्र (यज्ञोपवीत) को धारण कर गुरु के पास उपासकाध्ययन आदि शास्त्रों का अभ्यास करते हैं और फिर गृहस्थधर्म स्वीकार करते हैं उन्हें उपनयन ब्रह्मचारी कहते हैं।
२. अवलंबब्रह्मचारी—गुरु के पास क्षुल्लक रूप से समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद में गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाले अवलंब ब्रह्मचारी हैं।
३. अदीक्षा ब्रह्मचारी—जो ब्रह्मचारी के वेष को धारण किए बिना ही शास्त्रों का अभ्यास करते हैं फिर गृहस्थ धर्म स्वीकार करते है उन्हें अदीक्षा ब्रह्मचारी कहते हैं।
४. गूढ़ ब्रह्मचारी—जो बाल्यावस्था में ही गुरु के पास रहकर शास्त्रों का अध्ययन करते हैं। नग्न रहकर ही संयम पालते हैं (किन्तु दीक्षा नहीं ली है) पुन: कारणवश गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं, वे गूढ़ ब्रह्मचारी कहलाते हैं।
५. नैष्ठिक ब्रह्मचारी—जो व्रत के चिह्न—शिरोलिंग—चोटी, उरोलिंग—जनेऊ,कटिलिंग—लंगोटी एवं करधनी धारण करते हैं, भिक्षावृत्ति से भोजन करते हैं, जो स्नातक या व्रती हैं, सदा जिनपूजा आदि करने में तत्पर हैं वे नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। ब्रह्मचर्याश्रम चारों ही आश्रमों में प्रमुख है। इसका अभिप्राय यह है कि कोई भी व्यक्ति पहले कुमार काल—बाल्यावस्था में ब्रह्मचारी ही रहता है। यदि वह ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश कर अर्थात् गुरुकुल आदि में रहकर यज्ञोपवीत आदि संस्कारों से सुसंस्कृत होकर शास्त्रों का अभ्यास करता है पुन: उसकी इच्छा हो तो मुनि भी बन जाता है, जैसे भद्रबाहु श्रुतकेवली और जिनसेनाचार्य आदि। कोई गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है जैसे जीवंधर कुमार आदि।
२. गृहस्थाश्रम—यदि वह भव्यजीव मोक्ष पुरुषार्थ को सिद्ध करने के लिये समर्थ नहीं है तो वह गुरुकुल से आकर धर्म पुरुषार्थ की सिद्धि हेतु ‘‘माता—पिता की अनुकूलता से सजातीय कन्या के साथ विवाह करे। ‘‘उत्तम श्रावक ने उत्तम कन्या साधर्मी मनुष्य को दी है तो समझना चाहिए कि उसने धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थों को ही दे दिया है, क्योंकि विद्वान लोग गृहिणी को ही घर कहते हैं किन्तु दीवाल आदि के समूह को घर नहीं कहते हैं।’’ घर में सुयोग्य स्त्री के बिना धर्म की परम्परा नहीं चल सकती है इसलिये धर्मसंतति, संक्लेशरहित रति, व्रत, कुल की उन्नति और देवपूजा, अतिथिदान आदि की परंपरा चालू रखने हेतु ही विवाह किया जाता है न कि मात्र भोग के लिये ही। गृहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर वह श्रावक अपनी धर्मपत्नी को प्रेमपूर्वक धर्म में व्युत्पन्न कर दे क्योंकि मूर्ख अथवा विरुद्ध स्त्री अपने पति को धर्म से भ्रष्ट कर देती है। कुलस्त्री का भी कर्तव्य है कि वह हमेशा पति के अनुकूल ही आचरण करे, चूँकि पतिव्रता स्त्रियाँ ही धर्म, लक्ष्मी, सुख और कीर्ति का एक स्थान हैं। श्रावक भी अन्न के समान शारीरिक और मानसिक संताप की शांतिपर्यंत स्त्री का सेवन करे क्योंकि अधिक विषयासक्ति धर्म, अर्थ और शरीर को नष्ट कर देती है । वह गृहस्थ अपने पुत्र—पुत्रियों को भी प्रारम्भ से ही धर्म के संस्कार से संस्कारित कर देवे अन्यथा अन्य संस्कार पड़ जाने के बाद धार्मिक संस्कार का पड़ना कठिन हो जाता है। जैसे वस्त्र पर पहले पक्का नीला या काला रंग चढ़ जाये तो उस पर पीला रंग चढ़ाना कठिन क्या असंभव ही है।
गृहस्थ के छह आर्य कर्म होते हैं— इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप।
इनका वर्णन पहले आ चुका है।
३. वानप्रस्थ आश्रम— जो दिगंबर रूप को धारण न करके खंडवस्त्र ग्रहण करते हैं अर्थात् क्षुल्लक, ऐलक अवस्था में रहते हैं वे वानप्रस्थ कहलाते हैं ।
४. संन्यस्ताश्रम— अरहंत भगवान् की दिगंबर मुद्रा को धारण करने वाले सन्यासी या भिक्षुक कहलाते हैं।
भिक्षुक के चार भेद हैं— अनगार, यति, मुनि और ऋषि।
अनगार— सामान्य मुनियों को अनगार कहते हैं।
यति— जो उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी में स्थित हैं वे यति हैं।
मुनि— अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और केवलज्ञानियों को मुनि कहते हैं।
ऋषि— जिन्हें ऋद्धियाँ प्राप्त हो चुकी हैं वे ऋषि कहलाते हैं ।
ऋषि के चार भेद हैं— राजर्षि, ब्रह्मर्षि, देवर्षि और परमर्षि।
जिन्हें विक्रियाऋद्धि और अक्षीण ऋद्धि प्राप्त हो चुकी है वे ‘राजर्षि’ हैं। बुद्धि ऋद्धि और औषधि ऋद्धि को धारण करने वाले ‘ब्रह्मर्षि’ हैं। आकाशगामिनी ऋद्धिधारी ‘देवर्षि’ हैं। केवलज्ञानी ‘परमर्षि’ कहलाते हैं।
वर्तमान में जितने भी दिगम्बर मुनि हैं चाहे आचार्य हों, उपाध्याय हों अथवा साधु हों, वे सभी अनगार में ही सम्मिलित हैं। जो उन्हें ऋषि, मुनि या यति कहते हैं वह उपचार की अपेक्षा है अथवा साधु के ये सभी पर्यायवाची नाम हैं इसलिये कहते हैं, वहाँ इन लक्षणों की अपेक्षा नहीं रहती है।