जो पुरूष देवपूजा, गुरूपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप, और दान इन षट्कर्मों के करने में तल्लीन रहता है, जिसका कुल उत्तम है वह चूली, उखली, बुहारी आदि गृहस्थ की नित्य षट् आरम्भ क्रियाओं से होने वाले पाप से मुक्त हो जाता है वही उत्तम श्रावक कहलाता हैं।
जो भव्य बिंबाफल के समान वेदी बनवाकर उसमें जौ प्रमाण प्रतिमा विराजमान करता है वह मुक्ति को समीप कर लेता हैं।
पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ मुख करके और तिलक लगाकर जिनपूजन करना चाहिए। शुद्ध जल, इक्षुरस, घी, दूध, दही आम्ररस, सर्वोषधि और कल्कचूर्ण आदि से भाव भक्ति पूर्वक भगवान जिनेन्द्र का अभिषेक करना चाहिये।
खण्डित वस्त्र, गला हुआ, फटा और मैला वस्त्र पहनकर दान- पूजा जप होम और स्वाध्याय नही करना चाहिए । क्योंकि ऐसे खण्डित आदि वस्त्रों को पहनकर पूजन करने से उसका फल नहीं मिलता है।
प्रश्न- पुष्प धूप दीप, फल आदि सचित्त द्रव्यों से भगवान की पूजा करने में पाप संभव है ?
उत्तर- जो जिन पूजा असंख्य भवों के पापों को नष्ट करने में समर्थ है उस पूजा से क्या यत् विंâचित् पूजन के निर्मित से होने वाले सावद्य पाप नष्ट नही होंगे? अवश्य हो जायेंगे। हाँ! इतना अवश्य है कि प्रत्येक कार्यो में यत्नाचार पूर्वक ५ प्रवृत्ति होना चाहिये।
कुदुम्ब पोषण और भोगोपभोग के लिए किया गया आरम्भ पाप उत्पन्न करने वाला होता है, परन्तु दान, पूजा आदि धर्म कार्यों में किया गया आरम्भ पाप बन्ध के लिए नही होता है।
जो मनुष्य धनिया के पत्र बराबर जिनभवन बनवाकर उसमें सरसों के बाराबर भी जिनप्रतिमा की स्थापना करता है, वह तीर्थंकर पद पाने के योग्य पुण्य को प्राप्त करता है तब जो कोई अति उन्नत और परिधि, तोरण आदि से संयुक्त जिनेन्द्र भवन बनवाता है, उसका समस्त फल वर्णन करने के लिए कौन समर्थ हो सकता है?
पूजन के समय जिन भगवान के आगे जलधारा के छोड़ने से पाप रूपी मैल का क्षालन होता है। चंदन के लेप से मनुष्य सौभाग्य से उत्पन्न होता है। अक्षतों से पूजा करने वाला मनुष्य अक्षय नौविधि और चौदह रत्नों का स्वामी चक्रवर्ती होता है। अक्षीण लब्धि से सम्पन्न होकर अन्त में मोक्ष सुख को पाता है।
पुष्पों से पूजा करने वाला मनुष्य कमल के समान सुन्दर मुख वाला पुष्पों की सुन्दर मालाओं से समर्चित देहवाला कामदेव होता है।
नैवेद्य के चढ़ाने से शक्तिमान, कान्ति और तेज से सम्पन्न अति सुन्दर होता है। दीपों से पूजा करने वाला मनुष्य केवलज्ञान रूपी प्रदीप के तेज से समस्त जीवादि तत्वों के रहस्य को प्रकाशित करने वाला केवली होता है ।धूप से पूजा करने वाला मनुष्य त्रैलोक्य व्यापी यश वाला होता है। फलों से पूजा करने वाला परमनिर्वाण रूप फल को प्राप्त कर लेता है। जिनमंदिर में घंटा समर्पण करने से घण्टाओं के शब्दों से व्याप्त श्रेष्ठ सुरविमानों में जन्म लेता है।
मंदिर में छत्र प्रदान करने से पृथ्वी को एक छत्र भोगता है। चमरों के प्रदान करने से उस पर चमर डोरे जाते है। जिन भगवान का अभिषेक करने से मनुष्य सुदर्शन मेरू पर क्षीरसागर के जल से इन्द्रों द्वारा अभिषेक को प्राप्त करता है।
जिनमंदिर में विजय पताकाओं के देने से सर्वत्र विजयी षटखण्डाधिपति चक्रवर्ती होता है।
अधिक कहने से क्या? जिनपूजन के फल से संसार के सभी अभ्युदय प्राप्त हो जाते हैं और परम्परा से मुक्ति को भी प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार से संक्षेप से देवपूजा नाम की आवश्यक क्रिया का वर्णन हुआ। गुरू की उपासना- अपने मनोवांछित पदार्थ सिद्ध करने के लिये तथा इस लोक सम्बन्धी समस्त संशय रूप अन्धकार का नाश करने के लिए एवं परलोक में सुख प्राप्त करने के लिए गुरू की सेवा सदा करते रहना चाहिए।उत्तम, मध्यम, जघन्य कैसे ही मनुष्य हो परन्तु बिना गुरू के वे मनुष्य नही कहलाते । इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सर्वोत्कृष्ट गुरू की सेवा अवश्य करते रहना चाहिए।
गुरू भक्ति रूपी संयम से घोर संसार समुद्र को पार कर लेते हैं और अष्टकर्मो को छेदनकर देते हैं पुन: जन्म मरण के दु:खों से छूट जाते है। स्वाध्याय- स्वाध्याय भव्य जीवों को ज्ञान देने वाला है उसके पाँच भेद है- वाचना- पढ़ना-पढ़ाना। पृच्छना- प्रश्न करना। अनुप्रेक्षा – पढ़े हुए का बार-२ चिंतवन करना। आम्नाय- शुद्ध पाङ्ग रचना। और धर्मोपदेश- धर्म का उपदेश देना। संयम- इन्द्रिय और मन पर नियंत्रण करना और जीवदया पालना संयम है। संयम के दो भेद है-इन्द्रिय संमय, प्राणि संयम।
पंचेन्द्रिय के विषयों का त्याग करना और मन को वश में रखना संयम है। पांच स्थावर और त्रसकाय ऐसे षट्काय के जीवों की दया पालन प्राणिसंयम हे। तप-कर्मनिर्जरा के लिए किया गया तपश्चरण तप कहलाता है। तपके दो भेद है- ब्राह्म और आभ्यन्तर । बाह्य के छह भेद है- आभ्यन्तर के छह भेद है- बाह्य – अनशन अवमौदर्य व्रतपरिसंख्यान रसपरित्याग विविक्त शयासन कायक्लेश
अभ्यन्तर- प्रायश्चित वैयावृत, विनय, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग ध्यान।
इन बारह प्रकार के तपों का एक देशरूप से शक्ति के अनुसार श्रावकों को भी अनुष्ठान करना चाहिये। मुख्यता इनका अनुष्ठान मुनियों के ही होता है। दान- स्वपर के अनुग्रह के लिए धन का त्याग करना दान है। दान के चार भेद है- आहारदान, ज्ञानादान, औषधिदान, अभयदान। उत्तम आदि पात्रों में इन चारो दानों को देना उत्तम दान है। इस प्रकार से जो गृहस्थ श्रावक नित्यप्रति षट् आवश्यक क्रियाओं को आदर पूर्वक करना है वह चक्की, उखली, चूल्ही, बुहारी ओर जल भरना गृहारम्भ के इन पांच पापों से और पापों से और द्रव्य कमाना इस छठे पाप से अर्थात् षट् आरम्भजनित पापों से छूट जाता है।
सुपात्र को चार प्रकार का दान देना और श्री देवशास्त्र गुरू की पूजन करना श्रावक धर्म में श्रावक के ये दो कर्तव्य प्रमुख है इन दो कर्तव्यों के बिना श्रावक नही हो सकता है। वैसे ही मुनियों के कर्तव्यों में ध्यान और अध्ययन के दो कर्तव्य मुख्य हैं इन दो कार्यो के बिना मुनि, मुनि नही हो सकता है। पूजा के फल से यह मनुष्य तीनों सारभूत उत्तम सुखों को भोगता है।
भोजन आहार दान देने मात्र से ही श्रावक धन्य कहलाता हैं। पंचाश्चर्य को प्राप्त होता हुआ देवताओं से पूज्य होता है। एक जिनलिंग को देखकर आहार दान देना चाहिए, उस समय पात्र-अपात्र की परीक्षा करने से क्या प्रयोजन ?
जो भव्य जीव मुनीश्वरों के आहारदान के पश्चात् अवशेष अन्न को प्रसाद समझकर सेवन करता है, वह संसार के सारभूत उत्तमसुखों को प्राप्त होता है। और क्रम से मोक्ष को प्राप्त करता है ऐसा श्री जिनेन्द्र देव ने कहा है। इस भरतक्षेत्र के अवसर्पिणी के पंचम काल में श्री मुनीश्वरों को प्रमाद रहित धर्म ध्यान होता है ऐसा जिनवचन है जो नही मानता है वह मिथ्यादृष्टि है। ‘‘आज भी रत्नत्रय से शुद्ध साधु आत्मा का ध्यान करके इन्द्र पद को और लौकान्तिक पद को प्राप्त कर लेते है पुन: वहाँ से च्युत होकर मोक्ष चले जाते है अर्थात् एक भवावतारी हो जाते है। प्रात: काल उठकर शौच, आचमनपूर्वक प्रभातिक विधि करे। शुद्ध जल से स्नान कर मन्त्र-स्नान और व्रत स्नान और व्रतस्नान ऐसे तीन स्नान करें, धुले हुए वस्त्र पहन कर जिनमंदिर में जाकर नि:सहि मन्त्र का उच्चारण करते हुए प्रवेश करें और ईर्यापथ शुद्धि करके जिनेन्द्र भगवान् का स्तवन करे। पुन: बैठकर सकलीकरण विधि करे। पूजा-पात्र पूजा द्रव्य आदि को शुद्ध करके पंचामृत अभिषेक पाठ में कही गई विधि के अनुसार जिनेन्द्र भगवान का विधिवत् पंचामृत अभिषेक करे पुन: अष्टद्रव्य से पूजा करके अघ्र्य प्रदान करके शांतिधारा करे और पुष्पांजलि क्षेपण करे। पूजन में अष्टद्रव्य से अर्चन और अघ्र्य के बाद शांतिधारा पुष्पांजलि करना चाहिये । जो कि शास्त्रोक्त है।
पुन: अपनी रूचिपूर्वक एक-दो या कई पूजन करके पंचनमस्कार मन्त्र द्वारा १०८ पुष्पों से या लवंगो से जाप्य करे। सिद्धचक्र यन्त्र आदि यन्त्रों की पूजा जाप्य आदि करके चैत्यभक्ति और पंचगुरू भक्ति बोलकर शांति भक्ति समाधि भक्ति करे ओर विसर्जन करे। अनन्तर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त या जितना अवकाश है उतने काल तक स्वस्थ चित्त से अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करे।
अनन्तर श्रुतपूजा, गुरूपूजा करके आर्यिका और ऐलक आदिको की विधिवत पूजा करे। इस प्रकार से श्रावक की सामायिक विधि है। विशेष- संहिता- शास्त्रों में और मतलब यह है कि यदि श्रावक इस विधि के अनुसार पूजन करता है तो सामायिक विधि उसी में सम्मिलित होने से उसकी सामायिक विधि भी वही कहलाती है। सामायिक नाम की पुस्तक में ‘पूजामुखविधि’ और पूजा ‘अन्त्यविधि’ में विधि करने का स्पष्टीकरण है। श्रावक की पूजन विधि में प्रारम्भ में ईर्यापथ शुद्धि और सिद्धभक्ति करना चाहिये । अनन्तर विधिवत् पंचामृत अभिषेक और अष्टद्रव्य से पूजन करके चैत्यभक्ति, पंचगुरूभक्ति और शान्तिभक्ति करना चाहिये। यही विधि श्री पूज्यपाद स्वामी कृत पंचामृताभिषेक पाठ में भी पाई जाती है।तृतीय अतिथिसंविभाग व्रत मं दान का वर्णन –
पात्र, दातार, दानविधि, दातव्य-देने योग्य पदार्थ और दान का फल ये पाँच अधिकार होते है। पात्र के तीन भेद- उत्तम, मध्यम, जघन्य । रत्नत्रयधारी निग्र्रंथ दिगम्बर साधु उत्ततपात्र है। अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य पात्र है। जप,तप आदि से सहित किन्तु सम्यक्तव से रहित कुपात्र है एवं सम्यक्तव, शील तथा व्रतों से रहित जीव अपात्र है। दातारों के गुण- श्रद्धा, भक्ति, सन्तोष, विज्ञान, अलुब्धता क्षमा और शक्ति ये सात गुण है। दान विधि-प्रतिग्रह-पड़गाहन करना, उच्च स्थान देना पाद प्रक्षालन करना पूजा करना प्रणाम करना मन शुद्धि वचन शुद्धि कायशुद्धि, और भोजन की शुद्धि कहना, ये नवधा भक्ति के हुए बिना उत्तम साधु आहार नही करते है।
दातव्य वस्तु- आहार, औषधि, शास्त्र और अभयदान ये देने योग्य है।
दान का फल सम्यग्दृष्टि के द्वारा पात्रों में दिया गया दान स्वर्ग, मोक्ष फल को प्रदान करता है। कुपात्र में दिया गया दान फल रहित है एवं अपात्र में दिया गया दान अत्यन्त दुख का देने वाला है।
गृहस्थ धर्म को धारण करने वाले पुरूष का लक्षण- न्यायपूर्वक धनकमाने वाला, गुणों से गुरू-माता-पिता का सम्मान एवं गुरूओं की मुनियों की पूजा करने वाला, सत्य वचन बोलने वाला, परस्पर विरोध रहित धर्म, अर्थ और काम, इन तीन वर्गो को सेवन करने वाला, तीन पुरूषार्थ के योग्य, स्त्री ग्राम और घर जिसके है ऐसा लज्जाशील, शास्त्रोक्त योग्य आहार तथा विहार करने वाला, आर्य पुरूषों की संगति करने वाला, बुद्धिमान, दूसरों द्वारा किये हुए उपकार को मानने वाला, इन्द्रियों को वश में रखने वाला, धर्मविधि को सुनने वाला दयालु और पापों से भयभीत पुरूष ही गृहस्थ धर्म को धारण करने के लिये योग्य है।