गृहस्थों के छह आर्यकर्म होते हैं-इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप। इज्या- अरहंत भगवान् की पूजा को इज्या कहते हैं। इज्या के पाँच भेद हैं- नित्यमह, चतुर्मुख, कल्पवृक्ष, आष्टान्हिक और ऐन्द्रध्वज। नित्यमह- प्रतिदिन शक्ति के अनुसार अपने घर से गंध, पुष्प, अक्षत आदि ले जाकर अर्हंत की पूजा करना, जिनभवन, जिन प्रतिमा का निर्माण कराना, मुनियों की पूजा करना आदि। चतुर्मुख- मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो पूजा की जाती है, उसे चतुर्मुख कहते हैं। इसी को ही महाभद्र और सर्वतोभद्र भी कहते हैं। कल्पवृक्ष-समस्त याचकों को किमिच्छिक-इच्छानुसार दान देकर चक्रवर्ती द्वारा जो पूजा की जाती है, उसे कल्पवृक्ष कहते हैं। आष्टान्हिक-नन्दीश्वर पर्व के दिनों की पूजा को आष्टान्हिक पूजा कहते हैं। ऐन्द्रध्वज- इन्द्र, प्रतीन्द्र आदि के द्वारा की गई पूजा ऐन्द्रध्वज कहलाती है। शास्त्रसारसमुच्चय में कहा है शास्त्रसारसमुच्चय में पूजा के दश भेद भी माने हैं यथा- देव-इन्द्रों द्वारा की जाने वाली अर्हंत की पूजा ‘महाभद्र’ है। इन्द्रों द्वारा की जाने वाली पूजा ‘इन्द्रध्वज’ है। चारों प्रकार के देवों द्वारा की जाने वाली पूजा ‘सर्वतोभद्र’ है। चक्रवर्ती द्वारा की जाने वाली पूजा ‘चतुर्मुख’ है। विद्याधरों द्वारा की जाने वाली पूजा ‘रथावर्तन’ है। महामण्डलीक राजाओं द्वारा की जाने वाली पूजा ‘इन्द्रकेतु’ है। मण्डलेश्वर राजाओं द्वारा की जाने वाली पूजा ‘महापूजा’ है। अर्धमण्डलेश्वर राजाओं द्वारा होने वाली पूजा ‘महामहिम’ है। नन्दीश्वर द्वीप में जाकर कार्तिक, फाल्गुन, आषाढ़ में इन्द्रों द्वारा होने वाली पूजा ‘आष्टान्हिक’ है। स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनकर अष्टद्रव्य से प्रतिदिन मंदिर में जिनपूजा करना ‘दैनिक पूजा’ है। मंदिर निर्माण, प्रतिष्ठा कराना, जीर्णोद्धार, मंदिर के लिए जमीन आदि का दान, पूजा के उपकरण आदि देना, सब दैनिक पूजा में सम्मिलित हैं और भी पूजन के बहुत से विशेष भेद होते हैं। वार्ता-असि-तलवार आदि शस्त्र, मसि-लिखने का काम, कृषि-खेती, वाणिज्य-व्यापार, विद्या-पढ़ाकर आजीविका और शिल्प-कला-कौशल आदि से आजीविका करना, धन उपार्जन करना वार्ता है। दत्ति- दान देने को दत्ति कहते हैं। दत्ति के चार भेद हैं- दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और सकलदत्ति। दयादत्ति- दु:खी प्राणियों को दयापूर्वक अभयदान देना। पात्रदत्ति- रत्नत्रयधारक मुनियों को नवधाभक्तिपूर्वक आहार देना, ज्ञान व संयम के उपकरण शास्त्र, पिच्छी, कमण्डलु आदि देना तथा औषधदान, वसतिका दान देना। समदत्ति- अपने समान आचरण वाले गृहस्थों के लिए कन्या, भूमि, सुवर्ण आदि देना। सकलदत्ति- अपनी निज की सन्तान परम्परा को कायम रखने के लिए अपने पुत्र को या दत्तक पुत्र को धन और धर्म समर्पण कर देना सकलदत्ति है, इसे ही अन्वयदत्ति कहते हैं। स्वाध्याय- तत्त्वज्ञान को पढ़ना, पढ़ाना, स्मरण करना स्वाध्याय है। संयम- पाँच अणुव्रतों में अपनी प्रवृत्ति करना संयम है। तप- उपवास आदि बारह प्रकार का तपश्चरण करना ‘तप’ है। आर्यों के इन षट्कर्म में तत्पर रहने वाले गृहस्थ कहलाते हैं और वे दो प्रकार के होते हैं-जाति क्षत्रिय, तीर्थ क्षत्रिय। चार वर्णों में से क्षत्रिय वर्ण में जन्म लेने वाले जाति क्षत्रिय हैं और तीर्थंकर, नारायण, चक्रवर्ती आदि तीर्थ क्षत्रिय कहलाते हैं ।